view all

असहिष्णुता भी एक मानसिक स्थिति हो सकती है राहुल जी, इसका इलाज देश में क्यों नहीं ढूंढते?

आम जनता सोच सकती है कि गांधी परिवार भी कांग्रेस की मानसिक स्थिति है और अब देश इससे बाहर आने लगा है

Kinshuk Praval

अमेरिका में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सबका ध्यान हिंदुस्तान की तरफ खींचने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान में असहिष्णुता और बेरोजगारी दो मुख्य मुद्दे हैं.

राहुल गांधी ने एक बार फिर विदेशी जमीन पर देसी मुद्दों को उठाया. मोदी सरकार पर उनका प्रहार पीएम मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं पर भी हमला था. देश में असहिष्णुता और बेरोजगारी की बात कर न सिर्फ उन्होंने विदेशी निवेशकों को आगाह करने की कोशिश की बल्कि 'मेक इन इंडिया' और 'स्किल इंडिया' जैसी योजनाओं पर भी सवाल उठा दिया.


राहुल का असहिष्णुता और बेरोजगारी पर बयान उनके पिछले साल लोकसभा में दिए गए भाषण का ही ताजा रूप था. लोकसभा में भी उन्होंने मोदी सरकार को घेरते हुए कहा था कि देश में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है लेकिन पीएम मौन हैं.

राहुल गांधी जिस असहिष्णुता की बात कर रहे हैं उसे समझने की भी जरूरत है. एक बार राहुल गांधी ने गरीबी को मानसिक स्थिति कहा था. उन्होंने कहा था कि गरीबी सिर्फ मानसिक स्थिति है. ऐसे में उनसे पूछा जा सकता है कि जब गरीबी मानसिक स्थिति हो सकती है तो फिर असहिष्णुता क्यों नहीं?

असहिष्णुता की वजह से पैदा होने वाला डर क्यों नहीं मानसिक स्थिति हो सकता? क्या असहिष्णुता को लेकर देश में वाकई हालात इतने खराब हो चुके हैं कि अब विदेशी जमीन पर विदेशी मदद मांगने की जरुरत आ चुकी है?

क्या देश में कोई तानाशाह सरकार काम कर रही है जिसने खास वर्गों का हुक्का-पानी और धरम-करम बंद करवा दिया है?

जिसे कांग्रेस असहिष्णुता मान कर प्रचार कर रही है दरअसल ये वो जनता के भीतर की आग है जो आपातकाल के समय भड़की थी और जेपी के आंदलन की मशाल बनी थी. ये वो ही गुस्सा है जिसने सड़कों पर निकल कर अन्ना हजारे के आंदोलन की हुंकार देश के कोने कोने तक भर दी थी.

जब मनमोहन ने कहा था, 'पैसे पेड़ पर नहीं उगते'

कांग्रेस के कार्यकाल में बढ़ती हुई ये वो ही हताशा थी जिसने मोदी लहर में बह कर बीजेपी की केंद्र में सरकार बनवा दी. भले ही कांग्रेस के कार्यकाल के पिछले सत्तर साल में उपलब्धियों के कई मौके रहे हों लेकिन यूपीए पार्ट 1 और यूपीए पार्ट टू में घोटालों, महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने मोदी को विकल्प के तौर पर चुनने में देर नहीं की.

पीएम मोदी और बीजेपी की जीत एक खास विचारधारा की जीत नहीं थी. वो तबका भी बीजेपी के साथ जुड़ा जो खुद बीजेपी पर भगवा होने का आरोप लगाता था. क्योंकि उसने देखा कि जो पार्टी गरीबी को मानसिक स्थिति समझ सकती है वो किसी दिन बेरोजगार युवाओं को देश का बोझ भी समझ सकती थी.

महंगाई के मुद्दे पर कांग्रेस के आंकड़े जनता की थाली से दाल-रोटी कम कर रहे थे. जबकि तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के फैसलों पर दलील दे रहे थे कि, 'पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं...यदि हम कड़े कदम न उठाते तो वित्तीय घाटा, सरकारी खर्चा खासा बढ़ जाता. निवेशकों का विश्वास भारत में कम हो जाता. वे कतराने लगते और ब्याज की दरें बढ़ जाती...बेरोजगारी भी बढ़ जाती..'

अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उन्होंने कड़े कदम उठाने की पैरवी की थी. हर सरकार अपने कार्यकाल में कड़े फैसले लेती है. लेकिन सवाल ये है कि क्या वो कड़े कदम देश में रोजगार पैदा कर सके? रोजगार सिर्फ रातों-रात कोई भी सरकार नहीं पैदा कर सकती खासतौर से वो देश जिसकी पैंसठ फीसदी से ज्यादा आबादी 35 साल से कम है.

अब कांग्रेस बेरोजगारी को मुद्दा बता रही है. क्या सिर्फ तीन साल के वक्त में ही पीएम मोदी पैंसठ प्रतिशत युवाओं को रोजगार देने की गारंटी थे. अगर राजनीति का ऐसा ही गुणा-भाग है तो फिर पिछले सत्तर साल में जो कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता में रही उसे तो गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी को देश से हमेशा के लिए मिटा देना चाहिए था.

राहुल आज असहिष्णुता की बात उस देश में कर कर रहे हैं जहां की अवाम ने डोनाल्ड ट्रंप को उनकी बेबाक सोच की वजह से राष्ट्रपति बनाया. डोनाल्ड ट्रंप ने ग्रेट अमेरिका बनाने की बात की है और इसके लिए वो कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने भी अमेरिका को महान बनाने के लिए कई फैसले किए हैं जो वहां के दूसरे राजनीतिक दलों की राय में अमेरिका को असहिष्णु नहीं बनाते हैं. जबकि अमेरिका भी लोकतांत्रिक देश है और वहां भी बोलने की आजादी है. यहां तक कि वहां भी बुद्धिजीवियों की बड़ी तादाद है जो कि राष्ट्र के खिलाफ जा कर 'पुरस्कार वापसी दौड़' में शामिल नहीं होती है.

पीएम दुनिया में बढ़ा रहे देश का स्वाभिमान

राजनीतिक शख्सियतों के लिए बेहतर यह होगा कि वो विदेशी धरती पर राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की बात करें. वो सरकार की योजनाओं का खाका साझा करें. वो निवेशकों को भारत आने का न्योता दें ताकि रोजगार भी पैदा हों और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो.

लेकिन जब राहुल अमेरिका जाते हैं तो उन्हें भारत का सियासी वंशवाद स्वाभाविक लगता है. वो विदेशी जमीन पर भारत की समस्याएं गिनाते हैं. वो निवेशकों को इशारों में संदेश भी दे देते हैं. सवाल ये है कि राहुल गांधी के पास इन दोनों मुद्दों का समाधान भी होना चाहिए ताकि अप्रवासी भारतीय ये जान पाते कि देश की सबसे पुरानी राजीतिक पार्टी के युवराज राहुल पीएम मोदी की ही तरह एक विज़न भी साथ लेकर चलते हैं.लेकिन राहुल सिर्फ मुद्दा उठा कर और बात छेड़ कर निकल जाते हैं.

सवाल उठता है कि क्या राहुल अपनी कांग्रेस की 'नई विदेश नीति' बना चुके हैं जिसके तहत अब देश के राजनीतिक आरोपों को वो इंटरनेशनल मुद्दा बनाएंगे?

बहरहाल राहुल की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आम जनता सोच सकती है कि गांधी परिवार भी कांग्रेस की मानसिक स्थिति है और अब देश इससे बाहर आने लगा है.