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राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के भाषण पर बेवजह भड़क रही है कांग्रेस

बापू और दीन दयाल की सोच एक जैसी थी फिर हंगामा किस बात का?

Kinshuk Praval

कांग्रेस बापू के नाम पर इतना दीन ना बने कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ उनका नाम लेने पर संसद में सेनानी बन जाए. बापू सबके थे और किसी एक पार्टी की बपौती नहीं थे. फिर बापू के नाम पर बार-बार हंगामा क्यों बरपाया जाता है?

इस बार कांग्रेस ने नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की स्पीच पर ही सवाल उठा दिया. कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने कहा- राष्ट्रपति ने अपनी स्पीच में दीनदयाल उपाध्याय की तुलना महात्मा से की.’


राष्ट्रपति ने अपनी स्पीच के जरिये पूरे देश को संबोधित किया. राष्ट्रपति कोविंद ने कहा, ‘आज पूरे विश्व में भारत के दृष्टिकोण का महत्व है. विश्व समुदाय हमारी तरफ देख रहा है. हम तेजी से विकसित होने वाली एक मजबूत अर्थव्यवस्था है. हमें समान मूल्यों वाले अवसर का निर्माण करना होगा. ऐसा समाज जिसकी कल्पना महात्मा गांधी और दीनदयाल उपाध्याय ने की थी.’

आखिर दीनदयाल उपाध्याय के समाज की कल्पना से कांग्रेस क्यों आहत है? या फिर ये बताए कि महात्मा गांधी के समाज और दीनदयाल उपाध्याय के सपनों के समाज में बुनियादी फर्क क्या है?

दोनों नेताओं का लक्ष्य था अंतिम व्यक्ति का विकास

दीनदयाल उपाध्याय साम्यवाद अंत्योदय सर्वोदय के प्रणेता माने जाते हैं. वो वसुधैव कुटुम्बकम के पोषक रहे. उनकी सोच थी कि समाज के अंतिम पायदान के व्यक्ति को भी इंसाफ और लाभ हासिल हो सके. इसके बावजूद सवाल ये है कि क्या बापू और उपाध्याय की समाजिक व्यवस्था को लेकर सोच अलग थी?

पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे. उन्होंने देश में ‘एकात्म मानववाद’ जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतकों में शुमार हैं. वो चाहते थे कि समाज के अंतिम सोपान पर खड़े व्यक्ति का जब तक विकास नहीं होगा तब तक एक स्वस्थ और सुंदर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है. साथ ही दिसंबर 1967 में केरल में जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद अपने भाषण में कहा था कि सामाजिक-आर्थिक समानता की लड़ाई पर किसी विचारधारा का एकाधिकार नहीं है.

राष्ट्रपति कोविंद के भाषण में महात्मा गांधी के साथ पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम आने पर कांग्रेस की बेचैनी उसके एक व्यक्ति, एक दल, एक सिद्धांत के इतिहास का सबूत ही देती है. जो नेहरू युग के बाद गांधी परिवार के दायरे से कभी बाहर नहीं निकल सकी. जिसके प्रचार और प्रसार में आजादी से लेकर राष्ट्र निर्माण तक गांधी, नेहरू और इंदिरा की ही गूंज सुनाई देती है.

अगर बापू और उपाध्याय के विचारों और आदर्श में समानता है तो फिर समाज के हित के लिये कांग्रेस की सियासत कई सवाल खड़े करती है.

राष्ट्रपति के भाषण को भी नहीं छोड़ा

पहला बड़ा सवाल तो यही है जो सांसद अरुण जेटली ने किया. जेटली का सवाल था कि ‘ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई सदस्य राष्ट्रपति के भाषण पर सवाल खड़ा कर सकता है?’

राष्ट्रपति पूरे देश का होता है. वो दलों से ऊपर होता है. राजनीति से बाहर होता है. क्या सियासी इतिहास में किसी नए राष्ट्रपति के इस्तकबाल का ऐसा वाकया पहले कहीं सुनाई और दिखाई देता है?

राष्ट्रपति कोविंद ने अपने भाषण में आजादी के आंदोलन के लिये महात्मा गांधी, भारत के एकीकरण के लिये सरदार पटेल और संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर का जिक्र किया.

कोविंद ने कहा था कि ‘महात्मा गांधीजी ने हमें मार्ग दिखाया. सरदार पटेल ने हमारे देश का एकीकरण किया. बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने हम सभी में मानवीय गरिमा और गणतांत्रिक मूल्यों का संचार किया. वे राजनीतिक स्वतंत्रता से संतुष्ट नहीं थे. वे करोड़ों लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता का लक्ष्य चाहते थे.’

भाषण में जिक्र किए 8 में से 6 नेता कांग्रेसी

यहां ये देखना जरूरी है कि किस संदर्भ में राष्ट्रपति अपनी भावना व्यक्त कर रहे थे. लेकिन  कांग्रेस की शिकायत है कि पंडित नेहरू को कोविंद जानबूझकर भूल गए.

कोविंद ने अपने भाषण में आठ नेताओं का जिक्र किया. इनमें से छह नेता कांग्रेस से थे. लेकिन जवाहरलाल नेहरू का जिक्र नहीं होने पर कांग्रेस ने एतराज जताया. राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि ‘राष्ट्रपति ने जवाहरलाल नेहरू के मंत्रियों के नाम लिए लेकिन एक बार भी पहले प्रधानमंत्री का नाम नहीं लिया. ये अफसोस की बात है. कोविंद अब बीजेपी के कैंडिडेट नहीं हैं.’

केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जवाब दिया कि पंडित नेहरू बड़े नेता थे लेकिन सभी भाषणों में उनका जिक्र किए जाने की जबर्दस्ती कर क्या कांग्रेस नेहरू की पर्सनैलिटी की अहमियत को कम नहीं कर रही?

जाहिर तौर पर पंडित नेहरू की शख्सियत को किसी ब्रांडिंग की जरूरत नहीं है. आजाद हिंदुस्तान ने डेढ़ दशक का नेहरू युग देखा है. देश के निर्माण में नेहरू के योगदान को कभी कम करके किसी भी गैर कांग्रेसी सरकार ने नहीं आंका. लेकिन विरोध की राजनीति की विडंबना यही है कि इतिहास पुरुषों को लेकर अब पार्टियां अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही हैं.

मायावती के भी वही बोल- दलित नेता की समाधि पर क्यों नहीं गए?

बहुजन समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती का कहना था ‘अच्छा होता कि कोविंद गांधीजी को राजघाट पर श्रद्धांजलि देने के बाद डॉ. अंबेडकर को भी श्रद्धांजलि देते.’

क्या दलित वर्ग से आए एक राष्ट्रपति को दलितों के प्रति अपनी आस्था दिखाने के लिये मायावती के बताए मार्ग से ही गुजर कर अग्निपरीक्षा देनी होगी?  ऐसा ही सवाल कांग्रेस से भी है कि क्या कोविंद का पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेना उनके बीजेपी होने का परिचायक है.

आज बीजेपी जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर खड़ी पार्टी मानी जाती है तो फिर कैसे उसके पितृपुरुष को भुलाया जा सकता है? कांग्रेस के पास अगर नेहरू-इंदिरा-राजीव की विरासत है तो बीजेपी के पास डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी की विरासत है. इसके बावजूद पीएम मोदी कई बार सार्वजनिक मंच से सरदार पटेल के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त कर चुके हैं.

कोविंद ने भी अपने भाषण में 4 राष्ट्रपतियों के नाम लेकर उनके पदचिन्हों पर चलने की बात की. कोविंद के भाषण में डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणब मुखर्जी का नाम लिया गया. कांग्रेस इस पर भी अफसोस जता सकती है.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर हंगामा करने वाले कांग्रेस के झंडाबरदारों को ये मालूम होना चाहिये कि उपाध्याय की मृत्यु के बाद जब उनकी 'पोलिटिकल डायरी' प्रकाशित हुई थी तो उसका प्राक्कथन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संपूर्णानंद ने ही लिखा था. पंडित दीनदयाल उपाध्याय देश में लोकतंत्र के इतिहास में उन पुरोधाओं में से एक हैं  जिन्होंने इसे उदार बनाया है.

सिर्फ हंगामा खड़ा करना है मकसद

राजनीति में उनका सत्ता प्राप्ति उद्देश्य कभी नहीं था. जौनपुर का चुनाव पूरे देश के लिये एक मिसाल है जहां वो सिर्फ हारने के लिये खड़े हुए थे ताकि समाज में जाति की राजनीति पर विराम लग सके.

बापू भी छुआछूत और जातिभेद के खिलाफ थे. यहां दोनों की तुलना नहीं की जा रही बल्कि एक समान सोच का उदाहरण दिया जा रहा है जिसे कोविंद ने अपने भाषण में समझाने की कोशिश की और कांग्रेस ने संसद में हंगामा बरपाने की.