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'प्रोफेशनल्स कांग्रेस' बनाकर पार्टी को 'वाइब्रेंट' कैसे बनाएंगे राहुल गांधी?

पेशेवर तरीके से देखा जाए तो पेशेवर लोगों को राहुल गांधी की कौन सी छवि कांग्रेस से जोड़ने का काम करेगी?

Kinshuk Praval

कांग्रेस अब पेशेवर लोगों को अपनी ताकत बनाना चाहती है. उसे लगता है कि पेशेवर लोगों के कांग्रेस से जुड़ने के बाद कांग्रेस की दशा-दिशा में बदलाव होगा. पार्टी में नई जान डालने के लिए प्रोफेशनल को न्योता तो भेजा जा रहा है लेकिन साथ में शर्त भी ये है टैक्स भरने वाले पेशेवर ही इसका हिस्सा होंगे. एक हजार रुपए की फीस देकर सदस्यता मिलेगी. शशि थरूर को ऑल इंडिया प्रोफेशनल्स कांग्रेस का चेयरमैन बनाया गया है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि वो चाहते हैं कि देश के प्रोफेशनल्स की आवाज भी पॉलिटिक्स और पॉलिसी मेकिंग में शामिल हो.


लेकिन बड़ा सवाल ये है कि पेशेवर लोग कांग्रेस से किस वजह से प्रभावित होकर जुड़ेंगे?

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के वक्त देखा कि किस तरह से 'मोदी लहर' के वक्त सोशल मीडिया से लेकर पब्लिक फोरम में एक कैम्पेन चली. उस कैम्पेन में देश के हर वर्ग के लोग शामिल थे. कई प्रोफेशनल्स भी उस टीम का हिस्सा थे जिन्होंने चुनाव का मैनेजमेंट भी देखा तो पार्टी की रणनीति में भी कहीं न कही बड़ी भूमिका में रहे.

नरेंद्र मोदी के साथ पेशेवर लोगों के जुड़ने की कई वजहे थीं. बतौर गुजरात सीएम उनके काम की देश के दिग्गज उद्योगपति सराहना कर चुके थे. गुजरात मॉडल की चुनाव में धूम थी. मोदी सोशल मीडिया से लेकर हर प्लेटफार्म पर लोगों से संवाद कर अपनी बात कहने और समझाने में कामयाब रहे.

लोग उनके संवाद से प्रभावित हो कर पुरानी सोच को बदलते हुए बीजेपी के वोटर बनते चले गए. नतीजा सिर्फ लोकसभा चुनाव का ही नहीं सकारात्मक आया. बल्कि मोदी लहर का असर देश में कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में दिखा. यूपी में तो इतिहास ही रच दिया गया.जबकि कांग्रेस का हर दांव उल्टा ही पड़ता चला गया. कांग्रेस की हार हताशा को बढ़ाती चली गई.

देश में अनुमानित 3.2 करोड़ टैक्सपेयर्स है जिनमें 4 लाख कॉरपोरेट टैक्सपेयर हैं. कांग्रेस ये सोच रही है कि किसी भी तरह अगर ऐसे प्रोफेशनल लोगों का एक हिस्सा साथ में जुड़ जाए तो सोशल मीडिया कैम्पेन और व्हाट्स एप ग्रुप के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों को कांग्रेस से जोड़ा जा सकेगा. ये तो हो गई किताबी सोच लेकिन व्यवहारिक तौर पर सोचने वाली बात ये है कि कांग्रेस से पेशेवर लोग क्या सोच कर आकर्षित हो सकेंगे?

कांग्रेस में नेतृत्व क्षमता की कमी खुद कांग्रेस के भीतर कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं. गांधी परिवार की विरासत में सिमटी हुई कांग्रेस में उपाध्यक्ष राहुल गांधी से कांग्रेस किस करिश्मे की उम्मीद करे.

अगर पेशेवर तरीके से देखा जाए तो पेशेवर लोगों को राहुल गांधी की कौन सी छवि जोड़ने का काम करेगी? क्या उनका भूचाल लाने वाला बयान लोगों को जगाने का काम करेगा? क्या उनका फटी जेब वाला कुर्ता जो आम जनमानस पर छाप नहीं छोड़ सका वो पेशेवर लोगों को खींचेगा?  क्या ऑर्डिनेंस फाड़ने वाली उनका स्टाइल लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करेगी? क्या बार-बार छुट्टियां मनाने के लिए उनका विदेश दौरा देश के पेशेवर लोगों को कांग्रेस से जोड़ने का काम करेगा?  या फिर उनका मंदसौर किसान गोलीकांड के बाद 'हाइड एंड सीक' का दौरा लोगों को रोमांचित करेगा?

सवाल कई हैं क्योंकि इसकी वजहें भी कई हैं. कांग्रेस ने न लोकसभा चुनाव की हार से सबक लिया और न ही राज्यों के विधानसभा चुनावों से.

बीजेपी ने लगातार खुद को मजबूत बनाने के लिए रणनीतियों पर काम किया. नतीजा ये रहा कि असम, केरल, प. बंगाल और तमिलनाडु के चुनाव में भी बीजेपी के प्रदर्शन में सुधार हुआ. पूर्वोत्तर के असम में बीजेपी की जीत ने सारे समीकरणों को बदल कर रख दिया. जबकि कांग्रेस के हाथ से धीरे-धीरे राज्य मुट्ठी में रेत की तरह फिसलते चले गए. कश्मीर से कन्याकुमारी तक राज करने वाली कांग्रेस अपने ही गढ़ में चुनौती नहीं दे पा रही है.

इसकी सबसे बड़ी वजह करिश्माई नेतृत्व की कमी है. राहुल अबतक जननेता की छवि बना नहीं सके हैं.उनके बयानों में कभी जोश दिखता है तो कभी एक्शन में खामोशी. राहुल की परिपक्वता पर सवाल उठाने वाले लोग उन्हें राजनीति से संन्यास तक लेने का सुझाव दे चुके हैं क्योंकि उनका मानना है कि बीजेपी के सामने साल 2030 तक कोई चुनौती नहीं है.

बिहार के सीएम नीतीश कुमार को विपक्ष कभी पीएम मोदी के मुकाबले खड़ा करने की रणनीति बनाने के बारे में सोचता था. लेकिन खुद नीतीश भी बोल चुके हैं कि मोदी को हराने की क्षमता किसी की नहीं.

जाहिर तौर पर अब सवाल उन क्षमताओं का है और जरूरत भी. कांग्रेस के पूर्व के नेताओं के पास करिश्मा भी था तो क्षमता भी. उनके सिर्फ किसी रैली में हाथ हिला भर देने से ही वोटरों की भीड़ जुट जाती थी. लेकिन आज सोनिया- राहुल के रोड शो में उमड़ी भीड़ वोट में तब्दील नहीं हो पाती है.

यही वजह रही कि लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, असम, केरल, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, उत्तराखंड, गोवा और राजस्थान में कांग्रेस सत्ता गंवाती चली गई.

कांग्रेस के रणनीतिकारों को ये सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों वो मोदी लहर का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. सिर्फ नकारात्मक प्रचार से कांग्रेस अपना ही नुकसान करती आई है. नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर कांग्रेस अपने आरोप साबित नहीं कर सकी और राहुल के बयानों से पूरी कांग्रेस की किरकिरी हुई.

कांग्रेस 'सीरियल हार' का सामना कर रही है. बीजेपी 'कांग्रेस मुक्त भारत' की बात कर रही है.

कांग्रेस पेशेवर लोगों को अपने से जोड़ने के लिए रणनीति बना रही है. लेकिन वो ये भूल रही है कि उसका वोटबेस दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा रहा है. ऐसे में उसे इस वोटबेस को नए सिरे से संगठित करने की कोशिश करनी चाहिए. कांग्रेस को संघ की तरह ही सेवा दल के कैडर को मजबूत करना चाहिए और जमीनी हकीकत को समझना चाहिए.

कांग्रेस ने पेशेवर लोगों को संगठित करने के लिए संगठन तो तैयार कर लिया. लेकिन जो संघ उसके पास पहले से मौजूद हैं उनके बारे में क्या किया गया?

कांग्रेस ने मजदूरों को भी आवाज देने के लिए अखिल भारतीय मजदूर संघ कांग्रेस का गठन किया था. लेकिन आज के दौर में न तो मजदूरों की कोई आवाज सुनाई देती है न ही किसानों की. ये अनदेखी ही किसी भी पार्टी के लिए पारंपरिक वोटबेस को छिटकाने का काम करती आई है. आज वामदलों की हालत से कांग्रेस एक सबक सीख सकती है.

हालांकि कांग्रेस के पास साल 1977 में मिली करारी हार के बाद 1980 में वापसी का इतिहास मौजूद है. यही उसके गिरे मनोबल को फिर से बढ़ा सकता है. लेकिन जब कार्यकर्ताओं के भीतर ही हताशा और भ्रम का माहौल हो तो फिर वापसी की उम्मीद मृगतृष्णा सी ही दिखाई देती है. कांग्रेस सिर्फ अपने इतिहास के बूते वर्तमान के हालात नहीं बदल सकती है. हां, गीता उपनिषद पढ़कर जरूर आत्मअवलोकन किया जा सकता है.