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ब्राह्मण प्रेम के जरिए जातीय राजनीति की सबक पढ़ने में उलझी कांग्रेस

राहुल की पार्टी ने ब्राह्मणों को रिझाने के लिए नया पासा फेंका है. पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस को ब्राह्मण डीएनए वाली पार्टी बताया है.

Syed Mojiz Imam

राहुल गांधी कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा पर हैं. कांग्रेस के अध्यक्ष पार्टी को जिताने के लिए सारी कोशिश कर रहे हैं. राहुल गांधी ने कैलाश धाम की तस्वीर ट्विटर पर शेयर की है. जिसके साथ उनका ट्वीट है. जिसमें निशाने पर बीजेपी है. राहुल गांधी ने कहा है कि कैलाश पर्वत के दर्शन उन्हीं को नसीब होता है जिसको शंकर जी बुलाते हैं. मानसरोवर की तारीफ करते हुए कहा कि यहां का पानी शांत है. कोई भी पानी पी सकता है. इसमें कोई नफरत नहीं है. इसलिए भारत में इसकी हम आराधना करते हैं.

जिसका मतलब है कि भगवान शंकर ने बीजेपी के नेताओं को नहीं बुलाया है. राहुल गांधी के बयान से बीजेपी विचलित है. राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी के बनारस वाले बयान को दोहराया है. जिसमें मोदी ने कहा था कि मां गंगा ने उन्हें बुलाया है. राहुल गांधी की अध्यात्मिक यात्रा के पीछे भले मकसद राजनीतिक है. लेकिन इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं. राहुल गांधी ने यात्रा के जरिए उनके धर्म के बारे में उठ रहे सवाल का जवाब दिया है.


इस सब के बीच राहुल की पार्टी ने ब्राह्मणों को रिझाने के लिए नया पासा फेंका है. पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस को ब्राह्मण डीएनए वाली पार्टी बताया है. कांग्रेस के नेता ने गरीब ब्राह्मण के आरक्षण की भी वकालत की है.

कांग्रेस का ब्राह्मण प्रेम

राहुल गांधी ने अध्यक्ष बनने के बाद कई जातीय राजनीतिक सम्मेलन किए हैं. कांग्रेस का ब्राह्मण प्रेम अचानक नहीं जन्मा है. हालांकि पहले कांग्रेस का वोट बैंक ब्राह्मण दलित और मुस्लिम रहा है. लेकिन मंडल और कमंडल की राजनीति में ये वर्ग कांग्रेस से खिसक गया है. उत्तर भारत में सवर्ण मतदाता बीजेपी का समर्थक बन गया है.

कांग्रेस सवर्ण मतदाता में से ब्राह्मण को दोबारा अपने पाले में खींचना चाहती है. कई प्रयोग कांग्रेस ने बीते सालों में किया. लेकिन ब्राह्मण कांग्रेस में नहीं लौटा है. अब मौके की नजाकत समझते हुए कांग्रेस ने सार्वजनिक कोशिश की है. इसमें टाइमिंग का महत्व है. राहुल गांधी हिंदू धर्म के सबसे बड़े तीर्थ स्थल की यात्रा पर हैं. दूसरे एससी/एसटी एक्ट पर सवर्ण इस वक्त बीजेपी से नाराज दिखाई दे रहा है. जिसका फायदा कांग्रेस उठाना चाहती है. इसलिए कांग्रेस के नेताओं ने सवर्ण मतदाताओं को ये पैगाम देने की कोशिश है.

ब्राह्मण क्यों महत्वपूर्ण

देशभर में ब्राह्मण की आबादी है. संख्याबल में तो ये ज्यादा ताकतवर नहीं है. लेकिन ब्राह्मण जिस ओर जाता है कमोवेश सत्ता उसके साथ रहती है. उत्तर भारत में ब्राह्मण मतदाता काफी प्रभावशाली है. 2007 में मायावती ने ब्राह्मण-दलित का सफल प्रयोग किया था. लेकिन कांग्रेस का कोर वोट बैंक होते हुए ये वर्ग पार्टी के साथ नहीं है. कांग्रेस के कमजोर होने की वजह ये भी है. लेकिन कांग्रेस ने कोई गंभीर कोशिश नहीं की है. 1990 में मुलायम सिंह का समर्थन कांग्रेस ने यूपी में किया, फिर कई बार दोहराया. जिससे पार्टी से ये वोट खिसक गया है. रही सही कसर मायावती के साथ गठबंधन ने पूरी कर दी है. यही हाल बिहार में लालू प्रसाद का समर्थन करने से कांग्रेस का ये वोट बीजेपी के साथ जुड़ गया. कांग्रेस के समर्थन से लालू-मुलायम की राजनीतिक ताकत बढ़ गई. कांग्रेस कमजोर होती रही.

प्रभावी ब्राह्मण नेताओं की कमी

कांग्रेस के पास एक वक्त में कमलापति त्रिपाठी और उमाशंकर दीक्षित जैसे नेता थे. इन्होंने ब्राह्मण को कांग्रेस के साथ जोड़े रखा था. बाद में नरायण दत्त तिवारी ने कमी पूरी की थी. लेकिन हाल फिलहाल में पार्टी के पास ऐसे नेताओं की कमी है. ब्राह्मण के नाम पर जनार्दन द्विवेदी मोती लाल वोरा कांग्रेस में अहम पद पर रहे हैं. मनीष तिवारी, जितिन प्रसाद जैसे युवा नेता भी हैं. लेकिन अपनी बिरादरी में उतने प्रभावशाली नहीं हैं, जितने मध्य प्रदेश के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री डीपी मिश्र थे. कांग्रेस ने कोशिश की. विजय बहुगुणा और रीता बहुगुणा को आगे बढ़ाया था. लेकिन बुरे वक्त पर ये लोग पार्टी का साथ छोड़कर चले गए.

कांग्रेस की कोशिश जारी है. कर्नाटक में दलित-ब्राह्मण का प्रयोग चल रहा है. डिप्टी सीएम दलित हैं. तो प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गुंडूराव ब्राह्मण हैं. यूपी जैसे राज्य में ब्राह्मण को अपने साथ लाने की गंभीर कोशिश नहीं हो रही है. यूपी में इस वक्त ब्राह्मण कांग्रेस के साथ आ सकता था. क्योंकि बीजेपी से नाराज है. हालांकि किसी ब्राह्मण को यूपी की कमान नहीं दी गई है. जबकि जितिन प्रसाद को वर्किंग कमेटी में मनोनीत किया गया है.

कांग्रेस की मजबूरी

कांग्रेस की कश्मकश साफ है. जो पार्टी सभी को साथ लेकर चलने का दावा करती है, उसमें अचानक तब्दीली क्यों आ रही है ? गांधी की पार्टी का दावा करने वाली कांग्रेस अचानक धर्म और जाति का लबादा ओढ़ने की जल्दबाजी में क्यों है? इसका उत्तर चुनावी राजनीति की सफलता का पैमाना है, जिसमें पार्टी खरा उतरना चाहती है. लेकिन इसमें डर है कि कहीं धर्म के नाम पर चल रहे कम्पटीशन में बीजेपी को मात देने की कोशिश में कांग्रेस के मूल आवरण का हरण ना हो जाए, यही जातीय राजनीति के मसले पर लागू होता है.

कांग्रेस जातिगत राजनीति में पारंगत नहीं है. जो पार्टियां जाति की लकीर पर चलती हैं, उनका दायरा सीमित है. रीजनल पार्टियों का नेशनल पार्टी न बन पाने में यही वजह आड़े आती है. जाति की राजनीति में लकीर साफ नहीं है. कब एक जाति को खुश करने में दूसरा नाराज हो जाए, ये पता नहीं चलता है. इसलिए कांग्रेस की ये कोशिश फलदायी होने के बजाय नुकसानदेह साबित हो सकती है. कांग्रेस का जातीय प्रयोग पार्टी को बहुत फायदा नहीं पहुंचा सकता है. पार्टी को अपने मूल पर कायम रहना चाहिए.

मुद्दों की राजनीति

कांग्रेस को मुद्दे की राजनीति पर जोर देना चाहिए. ये मुद्दा सभी धर्म जाति को सूट करना चाहिए. मसलन डीजल-पेट्रोल का मसला है. जिसमें पार्टी को सभी वर्ग का साथ मिल सकता है. बीजेपी ने भी 2014 का चुनाव भी विकास, महंगाई और करप्शन पर जीता है. इसमें हिंदुत्व के एजेंडे का मिश्रण था. लेकिन यूपीए सरकार की नाकामी अहम मुद्दा था. बीजेपी ने अन्ना के आंदोलन से समां बनाया, जिसको मोदी मॉडल के जरिए पैकेज कर दिया गया. कांग्रेस उसकी काट अभी तक ढूंढ नहीं पाई है.

कांग्रेस से प्रोग्रेसिव तबका जाति धर्म की राजनीति की अपेक्षा भी नहीं कर रहा है. गुजरात विधानसभा में नोटा को मिले बड़े तादाद में वोट इसके गवाह हैं. बहरहाल पार्टी इससे निराश नहीं है. कांग्रेस जातिगत समीकरण की गणित बैठाने के फार्मूला पर चल रही है. हालांकि कांग्रेस की ये सार्वजनिक पेशकश पार्टी के दलित पिछड़ा वर्ग को लुभाने की कोशिश को नुकसान पहुंचा सकती है.

दलित पिछड़ा वर्ग को लुभाने की कोशिश

राहुल गांधी की दलित वर्ग का दर्द समझने की कोशिश कई साल से जारी है. राहुल गांधी दलित वर्ग को पार्टी से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. ये कहा जा सकता है कि राहुल गांधी का स्पेशल फोकस इस सामाजिक वर्ग पर है. अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने दलित बुद्धिजीवियों से सबसे पहले मुलाकात की. इसके बाद तालकटोरा स्टेडियम में बड़ा सम्मेलन किया गया था. कई राज्यों में दलित यात्रा चल रही है जिसके जरिए कांग्रेस दलित वर्ग को जोड़ने की कोशिश है.

कई दलित नेताओं को राहुल गांधी ने अहम जिम्मेदारी दी है. मल्लिकार्जुन खड़गे को पहले लोकसभा में पार्टी का नेता मनोनीत किया,फिर महासचिव नियुक्त किया है. महाराष्ट्र जैसे राज्य का प्रभारी बनाया है. जहां दलित आबादी की भूमिका अहम है. कर्नाटक में डिप्टी सीएम दलित वर्ग के नेता को बनाया है.

यही नहीं राहुल गांधी के सचिवालय का काम रिटायर्ड दलित आईएएस अफसर के. राजू संभाल रहे हैं. पीएल पुलिया, कुमारी शैलजा को वर्किंग कमेटी का सदस्य बनाया है. हरियाणा जैसे जाट बहुल्य राज्य में प्रदेश की कमान अशोक तंवर को दी गई है जो राहुल गांधी के दलित अभियान का हिस्सा हैं.

राहुल गांधी लगातार ये कह रहे हैं कि पार्टी का दरवाजा सभी लोगों के लिए खोल दिया गया है, जिसके तहत राहुल गांधी पिछड़ा वर्ग की लीडरशिप डेवलप करने का प्रयास कर रहे हैं. यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष केशव चंद्र यादव को बनाया है जो उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं, जहां पिछड़ी जाति की राजनीति हावी है. वहां भी भविष्य की राजनीति को देखते हुए नेता बनाए जा रहे हैं. कुर्मी वर्ग से आरपीएन सिंह को पार्ट में महत्वपूर्ण पद दिया गया है.

कांग्रेस की नीति

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी पिछली गलतियों से सबक ले रहे हैं. कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग और दलित लीडरशिप को बढ़ने नहीं दिया. राहुल गांधी सोशल इंजीनियरिंग का पाठ अब पढ़ रहे हैं. शायद काफी देर हो गई है. जबकि बीजेपी ने मंडल की राजनीति की काट के लिए कमंडल और जातीय समीकरण का ध्यान 90 के दशक से रखा है.

बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती रघुवर दास और सुशील मोदी जैसे नेताओं को आगे बढ़ाया है. वहीं बैलेंस करने के लिए राजनाथ सिंह, रमन सिंह, वसुंधरा राजे, और त्रिवेंद्र सिंह को भी आगे रखा है. यूपी के वर्तमान मुख्यमंत्री बीजेपी के भविष्य की नीति का हिस्सा हैं.

कांग्रेस भी हर वर्ग की लीडरशिप विकसित करने का प्रयास कर रही है. कांग्रेस को लग रहा है कि पुराने वोटबैंक की जगह नया वोट बैंक डेवलप किया जाए. इसके लिए नए प्रयोग किए जा रहे हैं जिसकी सफलता का नतीजा आना बाकी है.

साल 2004 में लोकसभा चुनावों के पहले कांग्रेस पार्टी का घोषणा पत्र जारी करती सोनिया गांधी. ( रॉयटर्स इमेज )

इन राजनीतिक प्रयास के बीच सवाल ये है कि कांग्रेस के मूल सिद्धांतों से राहुल गांधी समझौता तो नहीं कर रहे हैं? कभी सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलना, कभी जातीय समीकरण बैठाना जीत का निश्चित फार्मूला नहीं है. जनता का दिल और दिमाग जीतना ही सही और साबित तरीका है. 2004 में सोनिया गांधी के अभियान में मुद्दे थे. जाति या धर्म नहीं था. सोनिया गांधी ने जातिगत पार्टियों से तालमेल जरूर किया था.