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धर्मनिरपेक्षता को अब घाटे का सौदा मानने लगी है कांग्रेस

देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते पर अब जोर-शोर से चल पड़ी है. ऐसे में लगता यही है कि सेक्युलर राजनीति गुजरे हुए जमाने की चीज बन गई है

Rakesh Kayasth

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मध्य-प्रदेश का चुनावी अभियान धूम-धड़ाके से शुरू कर दिया है. भोपाल के उनके 13 किलोमीटर लंबे रोड शो में अच्छी-खासी भीड़ जुटी. लेकिन भीड़ से ज्यादा चर्चा रही एक हिंदू के रूप में राहुल गांधी की ब्रांडिंग की.

भोपाल में जगह-जगह पोस्टर लगे थे- झीलों की नगरी में शिवभक्त राहुल गांधी का स्वागत है. पोस्टर से लेकर रोड शो तक हर कदम पर हिंदू प्रतीकवाद नजर आया. वेदपाठी पंडितों ने मंत्रोच्चार के साथ शंखनाद किया. कन्या पूजन हुआ, राहुल को अक्षत का तिलक लगाया गया. यही नहीं जब काफिला आगे बढ़ा तो सड़क पर खड़े समर्थकों ने राहुल को गणपति की मूर्तियां भेंट कीं.


एक हिंदू के तौर पर राहुल गांधी की ब्रांडिंग की कहानी पिछले साल गुजरात के चुनाव के दौरान शुरू हुई थी. राहुल अपने चुनावी मंचों पर अगरबत्ती जलाते और नारियल फोड़ते नजर आए थे. उसी दौरान कांग्रेस पार्टी ने राहुल के जनेऊधारी होने का दावा किया था और सबूत के तौर पर उनकी तस्वीरें पेश की थीं. गुजरात के बाद तय हो गया था कि यह सिलसिला आगे बढ़ेगा लेकिन अपने 'सॉफ्ट हिंदुत्व' के प्रचार को लेकर कांग्रेस इस कदर आक्रमक हो जाएगी यह किसी ने शायद नहीं सोचा था.

'सॉफ्ट हिंदुत्व' का आक्रामक प्रचार नई रणनीति

भोपाल में राहुल गांधी के रोड शो के बाद न्यूज चैनलों पर कांग्रेस के प्रवक्ताओं के तेवर देखने लायक थे. एक प्रवक्ता ने दावा किया कि कांग्रेसी हमेशा से धार्मिक रहे हैं लेकिन बीजेपी का धर्म का इस्तेमाल सिर्फ दिखावे के लिए करती है. दूसरे प्रवक्ता के तेवर कहीं ज्यादा दिलचस्प थे. अखिलेश प्रताप सिंह ने एक डिबेट में इल्जाम लगाया कि मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब महाकाल के बदले सैयदना से प्रेरणा लेते हैं. अपने समर्थकों के बीच शिवराज 'मामा' कहे जाते हैं, अखिलेश प्रताप सिंह ने उन्हें `मामू’ कहा. उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में यह भी कहा कि राहुल के रोड शो में पूजा-पाठ पर  सवाल उठाने के बदले बीजेपी को अपने चुनावी कार्यक्रमों में बोहरा मस्जिद गए प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों का इस्तेमाल करना चाहिए.

यह बीजेपी पर उसी के हथियार से  हमला करने की नई रणनीति है. यह रणनीति एक हद तक कामयाब होती भी दिख रही है. राफेल जैसे मामलों पर राहुल गांधी के आरोपों को लेकर बीजेपी जितनी चिंतित नहीं है, उससे कहीं ज्यादा परेशान उनके 'हिंदू अवतार' से है. बीजेपी की कोशिश राहुल को नकली हिंदू साबित करने की है. यही वजह है कि योगी आदित्यनाथ से लेकर गिरिराज सिंह जैसे मुखर बीजेपी नेता राहुल के हिंदू कर्मकांडी आचरण पर लगातार तीखी छींटाकशी कर रहे हैं.

कांग्रेस की नई रणनीति से उसे कितना फायदा या बीजेपी को कितना नुकसान होगा, इसका कोई ठोस आकलन कर पाना फिलहाल मुश्किल है. लेकिन एक बात बहुत साफ है कि इस देश की सेक्यूलर राजनीति अब बहुत पीछे छूटती नजर आ रही है. वही सेक्युलर राजनीति जिसे लेकर गांधी और नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी प्रतिबद्धता बार-बार दोहराई थी. 'शिवभक्त' राहुल गांधी उसी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं, जिसने कभी संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द जुड़वाए थे. फिर आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई कि राहुल गांधी को हरेक राजनीतिक कार्यक्रम में खुद को हिंदू साबित करना पड़ रहा है?

सेक्युलरिज्म से शिवभक्त्ति तक का सफर

सेक्युलरिज्म शब्द को लेकर बहस बहुत पुरानी है. मोटे तौर पर इसका मतलब यही है कि धर्म निजी आस्था का प्रश्न है. राज्य का ना तो अपना कोई धर्म होगा और ना ही राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव करेगा. हरेक नागरिक को अपनी आस्था का पालन करने, उसका प्रचार-प्रसार करने और धार्मिक संस्कृति को बनाए रखने की स्वतंत्रता होगी.

कांग्रेस पार्टी लगातार यह कहती आई थी कि बीजेपी देश के सेक्युलर ढांचे पर हमले कर रही है. 2014 का चुनाव नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व नहीं बल्कि विकास के एजेंडे पर लड़ा था. इसके बावजूद कांग्रेस देश के सेक्युलर ढांचे को बचाए रखने की दुहाई दे रही थी लेकिन बीजेपी की अगुआई में एनडीए प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आ गया. उसके बाद बीजेपी की राजनीति में धीरे-धीरे एक बदलाव आया. उसके नैरेटिव में हिंदुत्व आगे आ गया और विकास पीछे रह गया. गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे वाकई यह लगता है कि देश तेजी से धार्मिक कट्टरता की तरफ बढ़ रहा है.

लेकिन 2014 से पहले तक सेक्युलरिज्म का शोर मचाने वाली कांग्रेस अब लगभग चुप है. लिंचिंग की शुरुआती घटनाओं को छोड़ दें तो उसके बाद कांग्रेस ने अपना मुंह पूरी तरह बंद रखा है. कोई भी ऐसा सवाल जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुसलमानों से नाता है, उसपर बात करने से कांग्रेस बच रही है. घोषित सेक्युलर प्रतिबद्धताओं वाली पार्टी का यह व्यवहार हैरान करने वाला है. लेकिन राजनीति की समझ रखने वालों को इसके पीछे की कहानी पता है.

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन किया और 44 सीटों पर आ गिरी. इस हार की समीक्षा के लिए बनाई गई ए.के.एंटोनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कई बातें कहीं. इनमें एक बात यह थी कि सेक्युलरिज्म को लेकर प्रतिबद्धता की बात बार-बार करने से लोगो में गलत संदेश गया. मतदाताओं ने यह मान लिया कि कांग्रेस एक मुसलमान परस्त पार्टी है. इससे हिंदू मतदाताओं का बड़ा तबका नाराज हो गया.

साफ है कि 2014 के सबक ने कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलने को मजबूर किया. कांग्रेस के लिए सबक 2014 के बाद के भी हैं. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि गर्वनेंस के मोर्चे पर मोदी सरकार के प्रति देश के लोगों मे नाराजगी है. इसके बावजूद एक 'हिंदू अंडर करेंट' उनके पक्ष में काम कर रहा है. प्रधानमंत्री खुद विवादास्पद बयानों से बचते हैं. लेकिन पार्टी के एक तबके ने 'हिंदू खतरे में है' का बैनर उठा रखा है. जयंत सिन्हा जैसे अमेरिका में शिक्षित मंत्री का लिंचिंग के आरोप में सजायाफ्ता लोगों का नागरिक अभिनंदन करना यह बताता है कि उग्र हिंदुत्व को बीजेपी फायदे का सौदा मानती है.

बेहतर हिंदू दिखने की होड़

कांग्रेस ने भी समझ लिया है कि भले ही 2019 के चुनाव में रोजगार, विकास और भ्रष्टाचार मुद्दे हों. लेकिन असली मुकाबला हिंदुत्व के अखाड़े में ही होगा. ऐसे में राहुल गांधी लगातार नरेंद्र मोदी को इस अखाड़े में पटखनी देने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी केदारनाथ गए तो राहुल उससे आगे बढ़ते हुए सीधे कैलाश मानसरोवर पहुंच गए.

कांग्रेस यह भी समझ रही है कि सवर्ण वोटरों का एक तबका बीजेपी से नाराज है. ऐसे में बिना सीधे-सीधे कुछ कहे राहुल गांधी की सवर्ण पहचान को बार-बार सामने रखा जा रहा है. गांधी-नेहरू परिवार की हिंदू धर्म के प्रति आस्था को प्रदर्शित करने के लिए सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो जारी किए गए हैं, जिनमें परिवार के लोग पूजा-पाठ करते दिख रहे हैं. इंदिरा गांधी की वैष्णो देवी यात्रा की तस्वीरें आजकल वायरल हैं.

बेहतर हिंदू या आदर्श हिंदू दिखने की होड़ में वे क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल हैं, जिनकी राजनीतिक ताकत ओबीसी और मुसलमान वोटर रहे हैं. अखिलेश यादव कह रहे हैं कि वे इटावा के पास एक भव्य विष्णु मंदिर बनाएंगे जो अंकोरवाट के मंदिर को टक्कर देगा. आरजेडी की रैलियों में लालू यादव के बेटे तेजप्रताप  शंखनाद करते कई बार नजर आए. इतना ही नहीं उन्होंने बीजेपी नेताओं को ललकारा कि अगर असली हिंदू हो तो मेरी तरह शंख बजाकर दिखाओ.

बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने 'मनुवाद' शब्द का नाम लेना बंद कर दिया है. पिछले कई साल से वे बहुजन की जगह सर्वजन शब्द का इस्तेमाल करती हैं. 2014 में गैर-जाटव दलितों ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिया था. यही ट्रेंड 2017 के विधानसभा में भी बहुत हद तक जारी रहा. यह वोटिंग एक तरह  से वृहद हिंदू छतरी के नीचे आने की स्वीकारोक्ति थी. दलित और ब्राह्मणवादी या हिंदू नैरेटिव ऐतिहासिक रूप से एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं, लेकिन बीएसपी की कोशिश बीच का कोई रास्ता निकालने की है. 2007 में मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाने में ब्राह्मणों का बड़ा योगदान रहा था. ऐसे में मायावती यही चाहती हैं कि उनकी दलित अस्मितावादी राजनीति सीधे-सीधे 'हिंदू' से ना टकराने पाए.

तो यह बहुत साफ है कि 2019 के चुनाव में हिंदू आइडेंटिटी के महिमामंडन की होड़ होगी. कांग्रेस यह समझ चुकी है कि बेशक सेक्युलरिज्म एक अच्छी चीज हो लेकिन इसका नाम लेना अब एक घाटे का सौदा है. कांग्रेस ही नहीं क्षेत्रीय पार्टियों को भी लगता है कि मुसलमानों के लिए उनके साथ आने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. ये पार्टियां मुसलमानों को यह संदेश दे रही हैं कि अगर वे उनके पक्ष में खड़ी दिखीं तो बीजेपी हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में कामयाब हो जाएगी. बेशक बीजेपी को काउंटर करने की रणनीति में राजनीतिक दूरंदेशी हो लेकिन आइडियोलॉजी का सवाल अब बहुत पीछे छूट चुका है.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)