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'न्यू कांग्रेस' की सोच की जरूरत क्योंकि 'न्यू इंडिया' में अब सब कुछ ऐसे नहीं चल पाएगा

राहुल को अब न्यू इंडिया की तरह न्यू कांग्रेस के विजन पर काम करने की जरूरत है

Kinshuk Praval

आजादी की 70वीं सालगिरह पर लालकिले की प्राचीर से पीएम मोदी ने कहा था कि देश में देश में 'चलता है' का जमाना चला गया है. लेकिन राहुल कहते हैं कि हिन्दुस्तान में  सब कुछ ऐसे ही चलता है.

राहुल गांधी वंशवाद की राजनीति को सभी पार्टियों की समस्या मानते है. उनका कहना है कि 'देश में ज्यादातर ऐसा ही चल रहा है. चाहे आप मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव को देखें या फिर बच्चन परिवार के अभिषेक बच्चन को देखें. सभी अपने पिता की विरासत ही आगे बढ़ाते दिखते हैं. ये सब बताता है कि देश कैसे चल रहा है'.


लेकिन वंशवाद की बेल में उलझी राजनीति को सुलझाने की बजाए राहुल उलझा और गए. बदलते भारत में देश के सर्वोच्च पद पर बैठे तीन चेहरे वंशवाद की राजनीति के ठुकराने वाले लोकतंत्र की तस्वीर पेश करते हैं. ये चेहरे किसी वंशवाद का पुरस्कार पा कर यहां तक नहीं नहीं पहुंचे हैं. रामनाथ कोविंद दलित परिवार से राष्ट्रपति चुने गए तो पीएम मोदी भी गरीब परिवार की पृष्ठभूमि से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे तो वहीं वेंकैय्या नायडू किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं. देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे इन तीनों नेताओं को सत्ता की कुर्सी विरासत के रूप में कांग्रेस उपाध्यक्ष की तरह नहीं मिली.

राहुल गांधी आज की अपनी राजनीति को अपने पिता और दादी की शहादत से जोड़ कर बताते हैं तो वहीं दूसरी तरफ वो ये भी नहीं चाहते कि विरासत में मिली कांग्रेस पर लोग उन पर सवाल खड़े करें.

भारतीय लोकतंत्र में बदलते परिवेश में वंशवाद को लेकर विरोधाभास नहीं होना चाहिए. वंशवाद की जगह लोकतंत्र में मेरिट ले रही हैं. सियासत के तेजी से बदलते समीकरणों से दिखाई देने लगा है कि वंशवाद की राजनीति को आम जनता ने नकारना शुरू कर दिया है. यूपी चुनाव के नतीजे जनता की तरफ से बड़ा एलान रहे जिन्होंने मुलायम और अखिलेश के साथ राहुल को भी नकारा. राहुल गांधी अपने परिवार की पारंपरिक सीट अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस के घटते जनाधार को भांप चुके हैं.

शायद वो भीतर ही भीतर ये मानने लगे हैं कि गांधी परिवार के नाम भर से अब जनता के बीच जाना आसान नहीं है. लेकिन कांग्रेस के साथ बड़ी मुश्किल ये है कि नेहरू के वक्त से लेकर अब तक कांग्रेस गांधी परिवार की छत्र-छाया में ही आगे बढ़ी है. उस आवरण से बाहर आ कर कांग्रेस के लिये अपनी अलग पहचान बना पाना आसान नहीं है.

जबकि बीजेपी ने भगवाकरण और सांप्रदायिकता के तमाम आरोपों के बावजूद अपनी छवि को ‘सबका साथ सबका विकास’ के साथ ऐसा जोड़ा कि राजनीति के सारे जातिगत समीकरण, मुस्लिम-यादव फॉर्मूले और दलित वोट की राजनीति धराशायी हो गई. कांग्रेस की मजबूरी ये है कि वो छद्म सेकुलरिज्म से बाहर नहीं निकल सकती और यही उसके गले की फांस भी बन गई है. तुष्टिकरण की नीति ही बदलते भारत में सांप्रदायिककरण की वजह बनी है.

लेकिन राहुल गांधी इतिहास में कांग्रेस की गलतियों से सबक लेने के बजाए ये कह रहे हैं कि कांग्रेस अपने अहंकार की वजह से साल 2012 का चुनाव हारी. हालांकि राहुल की ये राजनीतिक स्वीकारोक्ति उनकी मैच्योर होती समझ को नुमाया करती है.

विदेशी जमीन पर भी वो पार्टी की हार की वजह कबूलने में हिचकिचा नहीं रहे हैं. लेकिन वो जिसे कांग्रेस का अहंकार समझ रहे हैं दरअसल वो कांग्रेस की अतिवादी और निरंकुश होती सोच थी जिसे जनता ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि उन्हें मोदी के रूप में विकल्प दिख रहा था.

इसके बावजूद अगर राहुल ये सोचते हैं कि देश में ‘सब ऐसे ही चलता है’ तो ये उनकी बड़ी भूल है. न्यू इंडिया में अब सब ऐसे नहीं चलेगा. पीएम मोदी ने कहा था कि 'सब चलता है की जगह पर बदल रहा है, बदल गया का जमाना और विश्वास लाना है और जब साधन हो और विश्वास हो तभी परिवर्तन आता है.'

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी देश की सबसे बड़ी पार्टी के वारिस हैं. उनके पास साधन है और उनकी पार्टी के लोगों में ये विश्वास है कि राहुल देश की सत्ता में परिवर्तन जरूर लाएंगे. उसी उम्मीद को लेकर राहुल अमेरिका में छात्रों से बर्कले यूनिवर्सिटी में मिले. लेकिन उन्होंने जो कहा वो न्यू इंडिया की तस्वीर पर लागू नहीं होता है. राहुल को भी अब न्यू इंडिया की तरह न्यू कांग्रेस के विज़न पर काम करने की जरूरत है ताकि देश में एक मजबूत विपक्ष खड़ा हो सके.