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राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस करती रही है महाभियोग का इस्तेमाल

राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस ने 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी.रामास्वामी के खिलाफ संसद में आए महाभियोग प्रस्ताव को संसद में पराजित कर दिया था

Surendra Kishore

इन दिनों कांग्रेस एक बार फिर राजनीतिक फायदे के लिए ही देश की सबसे बड़ी अदालत के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है. इस बार उसके साथ कुछ अन्य दल भी शामिल हैं. खबर है कि महाभियोग प्रस्ताव का ड्राफ्ट तैयार कर कांग्रेस ने बंटवा दिया है. 1993 में सवाल दक्षिण भारतीय वोट का था. इस बार नजर अल्पसंख्यक वोट पर है.

इस बार मामला बाबरी मस्जिद मुकदमा और जज लोया मामले का बताया जा रहा है. कांग्रेस के वकील कपिल सिब्बल चाहते थे कि बाबरी मस्जिद मुकदमे का कोई भी निर्णय 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही आए. इसमें कांग्रेस अपना राजनीतिक लाभ देखती है.


न्यायपालिका के साथ कांग्रेस का ऐसा सलूक?

वैसे मौजूदा स्थिति में महाभियोग प्रस्ताव का सिर्फ प्रचारात्मक लाभ ही है क्योंकि महाभियोग प्रस्ताव पास कराने के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है. सुप्रीम कोर्ट के जज वी.रामास्वामी के खिलाफ संसद में विफल महाभियोग प्रकरण इस देश की न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के संरक्षण की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ था.

11 मई, 1993 को लोकसभा में जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ पेश महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया. प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े. ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा. यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया, वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे. जबकि कांग्रेस ने यह कहते हुए मतदान के लिए कोई व्हिप जारी नहीं किया था कि ऐसे मामले में लोकसभा को अर्ध न्यायिक निकाय के रूप में काम करना पड़ता है और सदस्योें की हैसियत जज की होती है. ऐसे में जजों को व्हीप के रूप में निर्देश कैसे दिया जा सकता है. बेहतर हो कि कांग्रेस के सदस्य अपने विवेक के अनुसार ही मतदान करें.

पर यह तो सिर्फ कहने की बातें थीं. असली बात थी कि कांग्रेस को लग गया था कि रामास्वामी के खिलाफ कार्रवाई से दक्षिण भारत में कांग्रेस को वोट की दृष्टि से नुकसान होगा. पर कांग्रेस के इस कदम से न्यायपालिका को नुकसान हो गया. यह घटना विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक महत्वपूर्ण कारक बनी.

कांग्रेस सांसदों ने नहीं किया वोट

मार्क्सवादी सांसद सोमनाथ चटर्जी द्वारा प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव पर लोकसभा में 10 मई, 1993 को सात घंटे तक बहस चली. रामास्वामी पर लगाए गए आरोपों का उनके वकील कपिल सिब्बल ने छह घंटे तक जवाब दिया. उन्होंने मुख्यतः यह बात कही कि खरीददारी का काम जस्टिस रामास्वामी ने नहीं बल्कि संबंधित समिति ने किया था. महाभियोग पर लोकसभा में इस चर्चा को दूरदर्शन के जरिए प्रसारित किया जा रहा था. 11 मई को फिर इस पर नौ घंटे की बहस चली. सोमनाथ चटर्जी ने चर्चा का जवाब दिया. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग के मामले में ऊपरी तौर पर तो कांग्रेस ने अपने सदस्यों को विवेक के आधार पर मतदान करने की छूट दे दी, पर भीतर -भीतर उन्हें कह दिया गया कि रामास्वामी को बचा लेना है. इसके कई प्रमाण सामने आए. क्या एक ही साथ सभी कांग्रेसी सांसदों के विवेक ने कहा कि रामास्वामी के खिलाफ वोट मत करो? इतना ही नहीं, लोकसभा में जब -जब कपिल सिब्बल ने कोई जोरदार तर्क पेश किया तो कांग्रेसी सदस्यों ने खुशी में मेजें थपथपाईं. विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज टोका-टोकी के जरिए कपिल सिब्बल का ही पक्ष लेते रहे.

लोकसभा तो रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नहीं पास कर सकी, पर सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर साथी जजों ने रामास्वामी के साथ बेंच में बैठने से इनकार कर दिया. काश! इस देश के नेता इसी तरह कभी अपने दागी साथियों के साथ बैठने से इनकार कर देते!

आखिरकार 14 मई, 1993 को वी.रामास्वामी ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी. उन्होंने यह भी कहा कि ‘लोकसभा में मेरे खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के गिर जाने से मेरे दृष्टिकोण की पुष्टि हुई है. साथ ही भविष्य में निहित स्वार्थ वाले तत्वों द्वारा निंदा और उनके बेतुके हमले से निर्भीक और स्वतंत्र विचारों वाले न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा संभव हुई है.’

रामास्वामी पर क्या थे आरोप?

अब जरा उन आरोपों पर गौर करें, जो वी.रामास्वामी पर लगे थे. नवंबर, 1987 और अक्तूबर, 1989 के बीच पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वी.रामास्वामी ने अपने आवास व कार्यालय के लिए सरकारी निधि से पचास लाख रुपये के गलीचे और फर्नीचर खरीदे. यह काम निविदा आमंत्रित किए बिना और नकली और बोगस कोटेशनों के आधार पर किया गया. दरअसल ये फर्नीचर खरीदे ही नहीं गए थे. पर कागज पर खरीद दिखा दी गई. यह खर्च राशि, खर्च सीमा से बहुत अधिक थी.

जस्टिस वी.रामास्वामी ने चंडीगढ़ में अपने 22 महीने के कार्यकाल में गैर सरकारी फोन काॅलों के लिए आवासीय फोन के बिल के 9 लाख 10 हजार रुपए का भुगतान कोर्ट के पैसे से कराया. मद्रास स्थित अपने आवास के फोन के बिल का भी पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से भुगतान कराया. वह बिल 76 हजार 150 रुपये का था. इसके अलावा भी कई अन्य गंभीर आरोप वी.रामास्वामी पर थे. उनकी अदालत में केस आने पर पंजाब के खूंखार आतंकियों की भी मदद करने का आरोप भी उन पर अलग से लगा था.

फरवरी 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा, वामपंथी दल और बीजेपी के 108 सांसदों ने मधु दंडवते के नेतृत्व में लोकसभा में वी.रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस दी. तब रवि राय लोक सभा के स्पीकर थे. अपने संवैधानिक दायित्व का पालन करते हुए उन्होंने इसकी सत्यता की जांच के लिए 12 मार्च 1991 को तीन जजों की समिति बना दी. सुप्रीम कोर्ट के जज पी.बी. सामंत के नेतृत्व में गठित इस न्यायिक समिति के सामने रामास्वामी ने अपना पक्ष रखने से इनकार कर दिया. सावंत समिति के अन्य सदस्य थे.

बॉम्बे हाईकोर्ट

बंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.पी.देसाई और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ओ. चिनप्पा रेड्डी. पी.बी. सावंत समिति ने अपनी जांच रपट में कहा था कि ‘जस्टिस वी.रामास्वामी ने अपने पद का जानबूझ कर दुरूपयोग किया. सरकारी खजाने के बूते पर उन्होंने जानते-बूझते फिजूलखर्ची की. सरकारी पैसों का कई तरह से निजी उपयोग करने के नाते वे नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं. उन्होंने न्यायाधीश की ऊंची पदवी पर धब्बा लगाने के साथ-साथ न्यायपालिका में जनता के विश्वास को मिटा कर रख दिया है. अपनी जांच रपट में जस्टिस सावंत ने कहा कि ये सब बातें अब भी लागू होती हैं और उन्होंने जो अपराध किए हैं, वे सभी अपराध ऐसे हैं कि उनका पद पर बने रहना न्यायपालिका के और सार्वजनिक हित में नहीं होगा.’

लोक सभा में महाभियोग प्रस्ताव गिर जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अजीब उलझनपूर्ण स्थिति पैदा हो गई थी. अंततः रामास्वामी के इस्तीफे के बाद ही उलझन समाप्त हुई. सन् 1992 के दिसंबर में ही सावंत समिति ने अपनी रपट पेश कर दी थी. उसके बाद से ही सुप्रीम कोर्ट के एक जज आर.पांडियन को छोड़कर कोई भी जज रामास्वामी के साथ एक बेंच में काम करने को तैयार ही नहीं हो रहे थे.

कांग्रेस और विवादों के साथ रामास्वामी का था गहरा संबंध

दरअसल कांग्रेस का रामास्वामी के साथ गहरा संबंध रहा. तब रामास्वामी का बेटा तमिलनाडु में कांग्रेस का विधायक था. रामास्वामी के वकील कपिल सिब्बल तब भी कांग्रेस के सदस्य थे.

रामास्वामी और विवाद का आपसी संबंध पुराना था. सन् 1971 में पहली बार एक ऐसे विवाद की खबर मद्रास से आई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश ने अपने दामाद की सिफारिश करके उसे जज बनवा दिया. वे नवनियुक्त जज यही वी.रामास्वामी ही थे. तब इस अनियमितता के कारण काफी बवाल हुआ था. 41 साल की उम्र में जब वे जज बनाए गए थे तो उनकी कोई निजी प्रैक्टिस नहीं थी. वकालत की डिग्री लेने के बाद वी. रामास्वामी, सरकारी वकील वीरा स्वामी के साथ प्रशिक्षु वकील थे. उधर 1976 में वी.रामास्वामी के ससुर न्यायमूर्ति वीरा स्वामी के घर में ऐसी रकम मिली थी, जिसका हिसाब उनके पास नहीं था. इस पर जस्टिस वीरा स्वामी को इस्तीफा दे देना पड़ा था.

कानूनी मामलों के पत्रकार मनोज मिट्टा एक जगह लिखते हैं कि ‘मद्रास हाई कोर्ट के जज के रूप में भी रामास्वामी का कार्यकाल विवादास्पद रहा. घर के पिछवाड़े वे 10 भैंसों वाली डेयरी चलाते थे जो उनकी व्यावसायिक बुद्धि का परिचायक था. सन् 1986 में उन्होंने फैसला करने के लिए एक ऐसा मामला चुना जिसमें उनकी पत्नी सरोजिनी भी एक पक्ष थी.’

वी.रामास्वामी के खिलाफ जब लोकसभा में महाभियोग लाया जा रहा था तो तमिलनाडु के एक कांग्रेसी सांसद आर. प्रभु रामास्वामी के पक्ष में नई दिल्ली के राजनीतिक हलकों में काफी सक्रिय थे. उन्होंने यह प्रचार अभियान चला रखा था कि रामास्वामी के खिलाफ यह ‘उत्तर भारतीय साजिश’ है. इसी आधार पर उन्होंने तमिलनाडु के सांसदों को गोलबंद भी कर लिया था. शायद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव भी ऐसा ही चाहते थे.