उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार को दस महीने हो गए हैं. पिछले साल 19 मार्च को योगी आदित्यनाथ ने देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. उस दिन योगी के साथ दो उप-मुख्यमंत्री भी बनाए गए थे. माना जा रहा था कि यह पिछड़ा-ब्राह्मण-क्षत्रिय समीकरण को साधने के लिए किया गया था. दरअसल यह सत्ता के शीर्ष पर संतुलन बनाए रखने की कोशिश थी, लेकिन यह संतुलन दस महीने में ही डगमगाता दिख रहा है.
केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में ही बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में अपना 15 साल का राजनीतिक वनवास खत्म किया. संगठन के काम में दक्ष होने के कारण पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें अपने वीटो से प्रदेश अध्यक्ष बनवाया था, लेकिन सरकार बनने के बाद कुर्सी मिली योगी आदित्यनाथ को.
योगी पूर्वांचल के फायर ब्रांड हिंदुत्व छवि वाले नेता थे. विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद योगी ही सबसे बड़े स्टार प्रचारक थे. योगी की स्वीकार्यता पूरब से लेकर पश्चिम तक है. दोनों ही नेताओं की अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन और जलवा भी है. शायद यही वजह है कि दोनों एडजस्ट करने में असहज हो जाते हैं.
24 जनवरी को लखनऊ में आयोजित उत्तर प्रदेश दिवस के प्रथम समारोह में मौर्य नहीं पहुंचे. केशव प्रसाद मौर्य के समर्थकों का कहना है कि यूपी दिवस के विज्ञापन में मौर्य का नाम ही नहीं था, जबकि उनसे जूनियर मंत्रियों के नाम छापे गए थे, फिर केशव वहां कैसे जाते? मामला तूल पकड़ा तो समापन समारोह के विज्ञापन में उनका नाम भी डाला गया और वे पहुंचे भी. लेकिन, दोनों एक दूसरे से खिंचे-खिंचे रहे.
केशव को 20 जनवरी को वाराणसी में हुए युवा उद्घोष कार्यक्रम में नहीं बुलाया गया था. फिर 23 जनवरी को योगी की ओर से बुलाई गई मंत्रियों की मीटिंग में मौर्य नहीं पहुंचे. अब उनका यूपी दिवस कार्यक्रम से गायब रहना, फिर से अंतर्कलह को हवा दे गया. पार्टी सूत्रों के मुताबिक संगठन और सरकार में भी बन नहीं रही है. सीएम और डिप्टी सीएम एक साथ एक मंच पर आने से बचते हैं.
बीएसपी से वोट ट्रांसफर कराया मौर्य ने, सीएम की कुर्सी ले गए योगी
4 जनवरी को भाटपार रानी (देवरिया) और 25 को देवरिया के राजकीय इण्टर कॉलेज में आयोजित सभाओं में केशव प्रसाद मौर्य ने मंच से मोदी का नाम तो लिया लेकिन योगी का एक बार भी जिक्र नहीं किया.
दरअसल, दोनों नेताओं में खींचतान 2017 के विधानसभा चुनाव के समय से ही चल रहा है. अगड़ी जातियां तो बीजेपी की परंपरागत मतदाता रही हैं. लेकिन बीजेपी को जीतने के लिए पिछड़ों का वोट भी चाहिए था. इसलिए फूलपुर से सांसद रहे केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष बना दिया.
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केशव प्रसाद ने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में खूब मेहनत की थी, उन्होंने ओबीसी वोटों खासकर मौर्य, कुशवाहा, शाक्य और सैनी समाज को बीजेपी के पक्ष में गोलबंद कराया. इसलिए वह खुद को सीएम पद का दावेदार मान रहे थे, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ पर भरोसा जताया.
जातीय संतुलन साधने के लिए पार्टी ने पीडब्ल्यूडी जैसे अहम विभाग के साथ केशव को उप मुख्यमंत्री पद दिया. लेकिन केशव प्रसाद इससे संतुष्ट नहीं हुए. बताया गया है कि शपथ लेने के कुछ दिनों बाद केशव प्रसाद मौर्या एनेक्सी बिल्डिंग (लाल बहादुर शास्त्री भवन) में आए. इसकी पांचवीं मंजिल पर अखिलेश यादव सीएम के रूप में बैठा करते थे. केशव मौर्य ने उसी ऑफिस पर अपना नेमप्लेट लगवा दिया. उस वक्त योगी दिल्ली में थे. जब योगी लखनऊ लौटे तो फिर केशव के नाम का बोर्ड हटा दिया गया.
केशव प्रसाद कभी अपने आपको कम नहीं मानते. इसलिए वर्चस्व की लड़ाई का मामला भी है. केशव के पास सिर्फ चार जबकि योगी आदित्यनाथ के पास 36 विभाग हैं. गड्ढा मुक्त सड़कों के मामले को लेकर सीएम लगातार उनके विभाग के काम पर नजर रख रहे हैं, जबकि केशव को पीडब्ल्यूडी में सीएम का हस्तक्षेप पसंद नहीं है.
अंदरूनी झगड़े का बाहर आना, मतलब नुकसान होना तय
बताया जाता है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुए शपथग्रहण समारोह में योगी के साथ दूसरे उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा गए, लेकिन केशव नहीं. केशव दूसरे विमान से अलग पहुंचे. कहा जा रहा है दोनों की काफी समय से मुलाकात नहीं हुई है. सरकार, संघ और संगठन के बीच नौ जनवरी को सीएम की कोठी पर हुई मीटिंग में मौर्य ने अपने मन की बात कही थी.
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'खटपट' की वजह से केशव प्रसाद को केंद्र में भेजे जाने की भी चर्चा हुई थी. लेकिन अंत में पार्टी नेतृत्व ने उन्हें यूपी में ही काम करने को कहा. समझा जाता है कि पार्टी को यह भी चिंता है कि केशव प्रसाद के जरिए जो ओबीसी वोट बसपा और सपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है, कहीं वह दूसरी जगह न खिसक जाए. बीजेपी को 2019 में यूपी से सबसे ज्यादा सीटें चाहिए तो अपने कोर वोटरों के अलावा पिछड़े वर्ग का भी समर्थन चाहिए.
इस बारे में बात करने के लिए हमने उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को फोन लगाया, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी. सीएम के साथ अपने मतभेदों को लेकर मौर्य पहले ही इनकार कर चुके हैं. सितंबर में उन्होंने कहा था कि 'मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मेरे बीच कोई मतभेद नहीं है. जो लोग हमारे बीच खटास पैदा करना चाहते हैं उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला.'
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक प्रोफेसर एके वर्मा का मानना है कि 'राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई तो स्वभाविक है. शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी तो खुलकर बोलते रहते हैं, कोई नहीं भी बोलता है. जहां संगठन होगा, पद होगा वहां पर हित टकराते हैं. ऐसे में दोनों पक्ष प्रेशर प्रैक्टिस करते हैं. केशव प्रसाद मौर्य खुद को सीएम मानकर चल रहे थे, जबकि उन्हें यह कुर्सी नहीं मिली. इसलिए उनके मन में यह कसक तो हमेशा रहेगी. इसीलिए उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया गया.'
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प्रो. वर्मा कहते हैं कि 'पार्टी ने यहां 80 की 80 लोकसभा सीटों को जीतने का लक्ष्य रखा है, ऐसे में मुझे नहीं लगाता कि केशव प्रसाद को कोई परेशान करेगा. अगर घर का झगड़ा जनता के बीच आता है तो उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. समाजवादी पार्टी इसका बड़ा उदाहरण है.'
यूपी सरकार के प्रवक्ता एवं बिजली मंत्री श्रीकांत शर्मा का कहना है कि 'सरकार एकजुटता के साथ चल रही है. मुख्यमंत्री-उप मुख्यमंत्री में खटपट वाली खबरें आधारहीन हैं. तथ्यों से परे हैं. जहां तक उत्तर प्रदेश दिवस का मामला है तो केशव प्रसाद मौर्य का कार्यक्रम मुंबई में प्रस्तावित था. जब उन्हें यहां आना ही नहीं था तो विज्ञापन में उनका नाम कैसे रहता.'
(न्यूज 18 हिंदी के लिए ओमप्रकाश की रिपोर्ट)