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सिंहासन खाली करो कि बीजेपी आती है...लेकिन विलुप्त क्यों हो रहे हैं वामदल?

लेफ्ट को खुद से ये सवाल पूछना होगा कि कभी देश में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहने वाली उनकी पार्टी सिमटते-सिमटते आखिर कहां जा कर रुकेगी?

Kinshuk Praval

त्रिपुरा में जनता ने ‘माणिक’ को ठुकराकर ‘हीरा’ को अपना लिया. अपने सबसे बड़े गढ़ में वामदलों की हार देश की आधुनिक राजनीति में उसकी विचारधारा की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करने का काम करेगी. पहले पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का किला धराशायी हुआ तो अब त्रिपुरा में बीजेपी से पटखनी मिली. दिलचस्प ये है कि साल 2013 के विधानसभा चुनाव में इसी बीजेपी के 49 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. साठ सीटों पर पचास उम्मीदवार उतारने के बावजूद एक भी सीट बीजेपी ने नहीं जीती थी. यहां तक कि बीजेपी को सिर्फ दो फीसदी वोट ही मिल सके थे. लेकिन पिछले पांच साल में बदलाव की बयार ऐसी चली कि जिस त्रिपुरा को लेकर लेफ्ट ताल ठोंकती थी आज उसी अखाड़े में वो चारों-खाने चित हो गई.

सीपीएम महासचिव प्रकाश करात और सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के लिए चुनावी मतगणना शुरू होने के वक्त नतीजों की टैली के सिर्फ वो लम्हे ही खुशनुमा थे जब सीपीएम 30 सीटों पर बढ़त बनाए थी और कांग्रेस 1 सीट पर. उसके बाद बाजी ऐसी पलटी कि फिर लेफ्ट के शासन के इतिहास में त्रिपुरा भी एक अध्याय बन गया.


प्रकाश करात ने दावा किया था कि त्रिपुरा में उनकी सरकार पूर्ण बहुमत से बनेगी जबकि सीताराम येचुरी चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन पर जोर दे रहे थे. दोनों के सियासी दावे और अनुमानों को ईवीएम ने ‘नोटा’ साबित कर दिया.

त्रिपुरा में बीजेपी की जीत बहुत बड़ी है

बीजेपी के लिए ये जीत वैसे ही बड़ी है जैसी कि लोकसभा चुनाव में उसने कांग्रेस का सूपड़ा साफ किया था तो यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी-एसपी के सोशल इंजीनियरिंग और मुस्लिम-यादव कॉम्बिनेशन को ध्वस्त किया. त्रिपुरा में बीजेपी की इस प्रभावी जीत के भविष्य में कई संकेत हैं. केरल में लेफ्ट के लिए तो पश्चिम बंगाल में टीएमसी के लिए बीजेपी ने खतरे की घंटी बजा दी है. पूर्वोत्तर में जीत के बाद बीजेपी ये नारा लगा सकती है.....सिंहासन खाली करो....कि बीजेपी आ रही है. लेकिन सवाल उठता है कि लेफ्ट का सिमटना आखिर कहां जा कर ठहरेगा?

बीजेपी के नए युग के बाद दूसरी विपक्षी पार्टियों में अपने वजूद को लेकर आत्ममंथन का दौर जारी है. कांग्रेस के भीतर केंद्र और राज्यों की सरकार खोने की छटपटाहट है तो क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर अपने ही राज्यों से छिनती सत्ता के बाद कुलबुलाहट है. अब लेफ्ट भी उसी कतार में आ खड़ी हुई है.

कोई लौटा दे लेफ्ट के बीते हुए दिन

साल 1977 तक संसद में वामदल ही मुख्य विपक्ष हुआ करते थे. एक दौर वो भी था जब लेफ्ट अपने वर्चस्व के दम पर देश को अपनी पार्टी से ज्योति बसु के रूप में पीएम देने की दहलीज पर आ खड़ा हुआ था. एक दौर वो भी था जब केंद्र में गैर कांग्रेसी और गैर बीजेपी सरकार देने के लिए तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी कड़ी वामदल हुआ करते थे. लेकिन पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ हाशिए पर आने का सफर अब त्रिपुरा के बाद थमेगा या नहीं ये खुद लेफ्ट भी नहीं जानता.

त्रिपुरा में वामदलों की हार उनको नए सिरे से सोचने पर मजबूर करेगी कि क्या उनकी पुरानी सोच और सियासी फॉर्मूले को बदलने की जरूरत अब आ पड़ी है?

त्रिपुरा का राजनीतिक अर्थ और मायने लेफ्ट से शुरू हो कर लेफ्ट पर ही खत्म होते थे. ये किसी को अनुमान नहीं था कि लेफ्ट के एकछत्र राज को कभी दक्षिणपंथी विचारधारा चुनौती दे सकेगी. वामदल और कांग्रेस के बीच रहने वाली त्रिपुरा की राजनीति के मैदान में पहली दफे दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधारा का मुकाबला हुआ.

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार

माणिक पर लेफ्ट का दांव आखिर गया खाली

वामदल को उम्मीद थी कि राज्य के सीएम माणिक सरकार इस बार भी तुरुप का इक्का साबित होंगे. माणिक सरकार की पहचान देश में सबसे सादगी पसंद मुख्यमंत्रियों में शुमार है. कहा जाता है कि उनके पास न तो मोबाइल है और न ही खुद का कोई मकान. बताया जाता है कि उनकी सैलरी पार्टी फंड में जाती है और वो पत्नी की पेंशन से खर्चा चलाते हैं. कभी पैदल तो कभी साइकिल पर चलते हैं तो कभी सरकारी कार से. न तो उनके पास अपनी कार है और न ही निजी मकान. वो बस एक छोटे से घर में रहते हैं. माणिक की सादगी पर कई कहानियां सिनेमा की तरह चलती हैं. लेकिन जनता भी इस सादगी में अपने सतरंगी सपनों को कब तक कैद रखती?

उनकी सादगी से आज के महत्वाकांक्षी युवाओं की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती हैं जिनकी आंखें रोजगार के लिए विकास की राह तकती हैं. जबकि पीएम मोदी की चुनावी रैलियों ने युवाओं के मन में नए सपने और भरोसा जगाने का काम किया. माणिक सरकार की सादगी से भरे सफेद कुर्ते में युवाओं और जनता को विकास स्याह ही दिखाई दिया. हालांकि दीगर बात ये है कि माणिक सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा. लेकिन त्रिपुरा को उग्रवाद मुक्त बनाने वाला ये सीएम राज्य की दूसरी समस्याओं को मुद्दा बनने से नहीं रोक सका. तभी त्रिपुरा वासियों ने ‘माणिक’ की जगह ‘हीरा’ को हासिल करने के लिए वोट दे दिया.

आखिर क्यों सिमटती गई लेफ्ट पार्टियां?

लेफ्ट को खुद से ये सवाल पूछना होगा कि कभी देश में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहने वाली उनकी पार्टी सिमटते-सिमटते आखिर कहां जा कर रुकेगी?

वामदलों के पास देश में व्यापक और मजबूत जनाधार था. बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तो यूपी से लेकर बिहार और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ साथ दक्षिण में हंसिया-हथौड़े छाप लहराते झंडे थे. आम लोगों में लेफ्ट की छवि न सिर्फ गरीबों के सच्चे हितैषी की थी बल्कि नेताओं की साफ सुथरी छवि और सादगी जनता को अपनी तरफ खींचने का काम करती थी. इसके बावजूद मजबूत जनाधार को लेफ्ट देश में दूसरी वैकल्पिक पार्टी में तब्दील करने में कामयाब नहीं रही. केवल तीन राज्यों में सरकार बनाने और केंद्र में महत्वपूर्ण सहयोगी दल की भूमिका के बाद लेफ्ट ने राष्ट्रीय राजनीति में विस्तार करने की बजाए पैर खींच लिए. यही वजह रही कि धीरे-धीरे वामदलों की विचारधारा की प्रासंगिकता को क्षेत्रीय दलों ने जाति-गणित से हाशिए पर ला दिया.

कभी इस पर समाजवादियों ने सेंध लगाई तो अब त्रिपुरा में इसके किले की दीवारों पर दक्षिणपंथ ने भगवा रंग दिया. पहले हिंदी बेल्ट में कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर पड़ा तो अब जमी जमाई जमीन पर पांव उखड़ रहे हैं. सामाजिक न्याय की परिकल्पना के सांचे में वामदल खुद को पूरी तरह ढाल नहीं सके क्योंकि जातियों के गणित ने ही उनकी हर चाल को चित कर दिया. रही सही कसर देश के केंद्रीय नेतृत्व के विरोध की विचारधारा ने कर दिया जो कई दफे उन्हें राष्ट्र विरोध के आरोपों के कटघरे में खड़ा करने का काम करता रहा.

अलग राग अलापना पड़ा भारी?

क्या लेफ्ट की विचारधारा से आज के दौर की जनता इत्तेफाक नहीं रखती है? जब देश सर्जिकल स्ट्राइक पर जश्न मना रहा था तब लेफ्ट सर्जिकल स्ट्राइक पर सबूत मांग रहा था. जब देश में जेएनयू में लगे भारत विरोधी नारों पर बहस तेज थी तब लेफ्ट छात्रों के समर्थन में आ खड़ा हुआ था. जनभावना के खिलाफ लेफ्ट का अलग राग ही क्या उसके सत्ता के कालीन को खींचने का काम कर रहा है?

साल 2025 में कम्युनिस्ट पार्टी को देश में स्थापित हुए सौ साल बीत जाएंगे. लेकिन सौ साल में बने जनाधार को लेकर ये पार्टी सियासी और सामाजिक क्रान्ति करने में नाकाम रही. संघर्ष और राजनीतिक क्रान्ति के जरिए सत्ता हासिल करने की कोशिश के बावजूद आम जनभावना के मानस में अपना घर नहीं बना सकी और न ही सामाजिक पुनर्रचना कर सकी.

इसने भी सत्ता के लिए उन्हीं फॉर्मूलों को गढ़ा जिसने इसे कभी अवसरवादी तो कभी निरंकुश तो कभी भ्रष्टाचार में डूबा बनाया. त्रिपुरा में वामदल और कांग्रेस एक दूसरे के विरोधी हैं तो केंद्र की राजनीति में दोनों एक साथ हैं. कहा जा सकता है कि वामदल अपने ही वैचारिक भटकाव की वजह से इस परिणति के शिकार हुए हैं.

काश! त्रिपुरा, बंगाल से आगे चलते

वामदलों ने खुद को केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक सीमित रख कर भी बड़ी सियासी भूल की. ये नहीं सोचा कि दूसरे राज्यों से शुरू हुई बदलाव की आंधी जब इनके राज्यों में पहुंचेगी तब क्या होगा. आज वही कीमत त्रिपुरा में वामदलों ने चुकाई है.

अब केरल में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे में वामदलों के लिए आखिरी मौका होगा कि वो नए राजनीतिक प्रयोग कर अपनी सर्वहारा वर्ग की राजनीति को जनाधार में बदलने का काम करें और परंपरागत जनाधार को खिसकने से बचाएं क्योंकि ये देश में राजनीति के ध्रुवीकरण का दौर है. ऐसा न हो कि एक दिन देश में वामदल विलुप्त हो जाएं.