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वंशवादी राजनीतिः रफूगीरी की कोशिश में और उधड़ गई कांग्रेस की पैबंद

पीवी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी जैसे लोग इसलिए शीर्ष संगठनात्मक पद हासिल कर सके, क्योंकि कांग्रेस के प्रथम परिवार से कोई शख्स कमान संभालने के लिए उपलब्ध नहीं था

Sanjay Singh

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कांग्रेस को पांच साल के लिए नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के शख्स को पार्टी अध्यक्ष बनाने की चुनौती का जवाब देते हुए पी. चिदंबरम ने सच के साथ बहुत कंजूसी बरती.

उन्होंने सोचा होगा कि उनकी प्रसिद्ध बौद्धिक क्षमता उन्हें परिवार के बाहर से एक दर्जन से ज्यादा नेताओं के नाम गिनाकर बच निकलने में मददगार होगी. वह जवाबी माहौल बनाने में कामयाब भी हो जाते लेकिन शायद वह भूल गए कि उनका मुकाबला मोदी से है, वह शख्स जिसे भाषण कला का वरदान मिला है. चिदंबरम ने अनजाने में ही मोदी और अमित शाह को गोला-बारूद मुहैया करा दिया, जिससे उन्हें नेहरू-गांधी की वंशवादी राजनीति और कांग्रेस में व्याप्त चाटुकारिता की संस्कृति को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी मुद्दा बनाने का मौका मिल गया.


कांग्रेस के लिए इस दुर्भाग्यशाली बहस की शुरुआत शशि थरूर के इस बयान से हुई जिसमें उन्होंने कहा था कि जवाहरलाल नेहरू ने ऐसी संस्थाओं का निर्माण किया जिनके चलते 'चायवाला' मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन सके. चिदंबरम और थरूर कांग्रेस के अग्रणी बुद्धिजीवी चेहरे हैं.

थरूर केरल से आते हैं, लेकिन वह अपनी सुविधा के हिसाब से भूल गए कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व वाली केरल सरकार को केंद्र सरकार ने जुलाई 1959 में बर्खास्त कर दिया था, जब नेहरू प्रधानमंत्री थे और इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार की बर्खास्तगी का पहला मामला इंदिरा गांधी के केरल दौरे के बाद पेश आया था. कैथरीन फ्रैंक ने अपनी पुस्तक 'इंदिरा: द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी' में जिक्र किया है कि किस तरह फिरोज गांधी ने इस तानाशाही कार्रवाई के लिए अपनी पत्नी पर इल्जाम लगाया था.

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कांग्रेस अध्यक्षों और उनके कार्यकाल की सूची को मोटे तौर चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है- सबसे पहले, जब नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने सीधे पार्टी अध्यक्ष पद संभाला; दूसरा, जब परिवार से बाहर का वफादार शख्स कांग्रेस अध्यक्ष बना और उसके साथ कैसा बर्ताव किया गया; तीसरा, जब नेहरू-गांधी परिवार ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में एक चुनिंदा पिट्ठू को नामांकित किया; और चौथा, जब पद संभालने के लिए परिवार से कोई नहीं मिला तो बाहर के सदस्य ने कमान संभाली.

पीवी नरसिम्हा राव (1992-96) और सीताराम केसरी (1996-98) जैसे लोग किस्मत से शीर्ष संगठनात्मक पद हासिल कर सके, क्योंकि कांग्रेस के प्रथम परिवार से कोई शख्स कमान संभालने के लिए उपलब्ध नहीं था, बल्कि इससे भी बुरे हालात थे. अपनी जनसभा में मोदी ने याद दिलाया कि कैसे सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए 1998 में केसरी को पद और पार्टी मुख्यालय से निकाला गया था.

चिदंबरम को जवाब देते हुए अमित शाह ने एक और उदाहरण याद दिलाया कि निधन के बाद नरसिम्हा राव (पांच साल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बने परिवार से बाहर के इकलौते नेता) के शरीर को कांग्रेस मुख्यालय 24 अकबर रोड में ले जाने की इजाजत नहीं दी गई थी. राजीव गांधी की हत्या के बाद राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष बने थे. राव कांग्रेस अध्यक्ष पद केवल इसलिए पा सके क्योंकि नेहरू-गांधी परिवार से कोई भी शख्स राजनीति में आने के लिए तैयार नहीं था. सोनिया गांधी गहरे शोक में थीं. राव का नाम अब कांग्रेस के कर्णधारों की सूची में शुमार नहीं किया जाता.

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राव के बाद बिहार के घाघ ओबीसी नेता सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी पाने में इसलिए सफल हो सके क्योंकि सोनिया गांधी अभी भी कोई जिम्मेदारी लेने की ख्वाहिशमंद नहीं थीं.

आजादी के बाद से परिवार- जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने 38 साल तक अध्यक्ष पद संभाला. कांग्रेस पार्टी के 133 साल के इतिहास में सोनिया गांधी 1998 से 2017 तक सबसे लंबे तक पार्टी अध्यक्ष बनी रहीं.

स्वतंत्रता-पूर्व 1928 में परिवार से अध्यक्ष बनने वाले सबसे पहले शख्स मोतीलाल नेहरू थे. उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू ने उत्तराधिकार में 1929 और 1930 में और फिर 1936 में पद संभाला.

इस तथ्य पर गौर करें. आचार्य कृपलानी ने जल्द ही किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाने के लिए कांग्रेस को छोड़ दिया. उनके कांग्रेस अध्यक्ष रहते 1947 में ब्रिटिश शासन से सत्ता का हस्तांतरण हुआ था. बाद में सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई गई. नेहरू तब प्रधानमंत्री थे. यह समझने के लिए बहुत दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि भारत को आजादी दिलाने और कांग्रेस को सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में देखने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जी-जान से संघर्ष करने के बाद कृपलानी ने पार्टी क्यों छोड़ दी होगी.

नेहरू के समर्थन के साथ, पट्टाभि सीतारमैया कृपलानी के उत्तराधिकारी बने और दो साल तक पार्टी अध्यक्ष रहे. फिर पुरुषोत्तम दास टंडन आए. सरदार पटेल ने उनकी उम्मीदवारी का दमदार समर्थन किया था. टंडन का कार्यकाल छोटा रहा था, नेहरू के साथ मतभेदों के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. और फिर जैसे किस्मत का रचा हुआ और दिसंबर 1950 में सरदार पटेल का निधन हो गया.

नेहरू ने 1951 में कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला और 1955 तक इस पद पर रहे. वह प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों थे, यह एक ऐसी परंपरा की शुरुआत थी, जिसका बाद में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी अनुसरण किया. सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष, यूपीए अध्यक्ष और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष के रूप में 2004-14 से दौरान मनमोहन सिंह सरकार के ऊपर संविधानेत्तर सत्ता बनी रही थीं.

1955 में नेहरू ने शीर्ष संगठनात्मक पद छोड़ दिया. यूएन ढेबर को कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया, लेकिन अपने कार्यकाल के बीच में ही ढेबर ने इंदिरा गांधी के अध्यक्ष बनने के लिए इस्तीफा दे दिया. नेहरू के प्रधानमंत्री रहते 1959 में 42 साल की उम्र में इंदिरा कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं.

उनके बाद नीलम संजीव रेड्डी, के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा अध्यक्ष बने, जिन्हें बाद में सामूहिक रूप से सिंडिकेट के रूप में जाना गया और बाद में इन्होंने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; यह एक ऐसा फैसला था जिस पर वो अपनी पूरी जिंदगी पछताने वाले थे. इंदिरा ने पार्टी को बंटवारे पर मजबूर कर दिया.

जल्द ही इंदिरा ने पार्टी और सरकार पर अपना शिकंजा कस लेने के बाद विनम्र शंकर दयाल शर्मा को अध्यक्ष बनाया और फिर उसके बाद, 'इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज की इंडिया' की प्रसिद्ध टिप्पणी वाले खांटी वफादार देवकांत बरुआ को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया. इंदिरा ने 1978 में कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाला, जिस पर 1984 में अपनी मौत तक बनी रहीं. उनकी मौत पर राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों काम संभाला और 1991 में अपनी मौत तक पार्टी अध्यक्ष बने रहे.

अब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं. जब उन्हें मां सोनिया ने पार्टी अध्यक्ष के ताज से सुशोभित किया, तो एक पार्टी प्रवक्ता ने गर्व से टेलीविजन पर दावा किया कि राहुल अगले 50 सालों तक पार्टी का नेतृत्व करेंगे. इन वजहों से मोदी की चुनौती पर चिदंबरम की प्रतिक्रिया पूरी तरह से गलत है.