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छत्तीसगढ़ में वोटिंग के लिए वो दरवाजे भी खुले जहां दस्तक देने पर निकलता न था कोई

भारतीय लोकतंत्र पर मजबूत आस्था ही बंदूक, बम और बुलेट का जवाब है और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के इलाकों में वो दौर आ चुका है

Kinshuk Praval

छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव में पहले चरण में 18 सीटों पर वोटिंग हुई. नक्सल प्रभावित इलाका होने की वजह से 10 सीटों पर वोटिंग का समय सुबह 7 बजे से दोपहर 3 बजे तक का रखा गया. 3 बजे तक बिना किसी अप्रिय वारदात के वोटिंग भी पूरी हो गई. हालांकि नक्सलियों ने एक आईडी ब्लास्ट किया लेकिन किस्मत से कोई हताहत नहीं हुआ. वहीं एक जगह नक्सलियों के साथ सुरक्षा बलों की मुठभेड़ भी हुई. इनके अलावा किसी बूथ या फिर इलाके से नक्सलियों के किसी बड़े हमले की बुरी खबर नहीं आई. ये लोकतंत्र और छत्तीसगढ़ की जनता के भविष्य के लिए ‘अच्छे दिन’ से कम नहीं है.

सबसे खास बात ये रही कि इस बार लोग नक्सलियों की धमकी के बावजूद उन इलाकों से वोट डालने के लिए घरों से बाहर निकले जहां पिछले विधानसभा चुनाव में वोट नहीं डाले गए थे.


दंतेवाड़ा को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित इलाका माना जाता है. लेकिन दंतेवाड़ा में घरों में कैद दहशत उम्मीद में तब्दील हुई और वोट बनकर बाहर निकली. अगर मेदपाल में 4 वोट पड़े तो काकड़ी में 9 वोट और समेली में 234 वोट पड़े. इन जगहों पर कभी पोलिंग बूथ पर सन्नाटा पसरा होता था. नक्सली हमले के डर से वोटर्स घरों से बाहर नहीं निकलते थे. लेकिन पांच साल में उनका डर और दूर हुआ. धीरे-धीरे ये वोटर भी मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं. ये भी चाहते हैं कि सूबे की सरकार बनाने में इनके वोटों और मंजूरी का हिस्सा शामिल हो. तभी नक्सलियों की धमकी को दरकिनार कर इन्होंने पोलिंग बूथ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. वोट डाला और बदलाव कर डाला. एक एक वोट की ताकत हिंदुस्तान की सियासत और लोकतंत्र देखता आया है.

भारतीय लोकतंत्र पर मजबूत आस्था ही बंदूक, बम और बुलेट का जवाब है और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के इलाकों में वो दौर आ चुका है. पीएम मोदी ने सोमवार को बिलासपुर की चुनावी रैली में कहा कि किस तरह से विकास के चलते नक्सलियों को जवाब मिल रहा है. छत्तीसगढ़ में विकास बढ़ रहा है और नक्सलवाद सिमट रहा है.

हालांकि हर बार की तरह इस बार भी नक्सलियों ने चुनाव का बहिष्कार करने की खुलेआम धमकी दी थी. जगह जगह नक्सलियों की धमकी के चिपके पोस्टर  गवाही दे रहे थे. लेकिन इसके बावजूद ग्रामीणों ने जमकर उत्साह दिखाया तो सुरक्षा बलों पर सुरक्षा को लेकर भरोसा भी जताया. इस बार भी साठ प्रतिशत से ज्यादा वोटिंग संकेत दे रही है कि नक्सलियों की दहशत पर लोकतंत्र की आस्था भारी पड़ रही है.

लेकिन नक्सल प्रभावित इलाकों का एक सच ये भी है कि नक्सलियों के खुफिया तंत्र से उन लोगों का बच पाना मुश्किल हो जाता है जो कि किसी न किसी रूप में सुरक्षा बलों से जुड़े होते हैं. इन लोगों पर मुखबिरी के नाम पर कभी भी और कहीं भी हमला हो जाता है. नक्सली ऐसे लोगों को मौत की सजा दे कर आम लोगों में अपनी दहशत को जिंदा रखते हैं ताकि सुरक्षा बलों को किसी भी प्रकार की खुफिया जानकारी या फिर सहायता मुहैया न हो सके. लेकिन अब ऐसे ही नक्सल प्रभावित गांवों में लोगों की सोच बदल रही है.

कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की नक्सलियों ने एक हमले में जान ले ली थी. इसके बाद उनकी पत्नी देवती कर्मा ने राजनीति में एन्ट्री की और दंतेवाड़ा से चुनाव लड़ा. चुनाव में उन्हें जबर्दस्त जीत मिली. आज छत्तीसगढ़ के सदन में वो दमदार वक्ता मानी जाती हैं. नक्सलियों ने भले ही उनके पति को खामोश कर दिया लेकिन नक्सलियों के खिलाफ आवाज नहीं दबा सके. देवती कर्मा अगर पति के मारे जाने पर चुनाव लड़ सकती हैं तो ग्रामीण अपने इलाकों में वोट भी डाल सकते हैं.

साल 2013 के विधानसभा चुनाव में भेज्जी भी एक ऐसा ही इलाका था. यहां आधिकारिक वोटर भी गिनती के थे लेकिन वोट डालने वाला कोई न था. दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर के कुल 53 बूथों ने वोट नहीं डाला था. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भेज्जी से केवल 3 लोगों ने वोट दिया था. लेकिन इस बार भेज्जी से नक्सलियों को वोट से करारा जवाब मिला है. हालांकि इन इलाकों में वोटरों की कमी के चलते और नक्सली हमले के डर से नेताओं और पार्टियों ने अपना चुनाव प्रचार नहीं किया लेकिन भेज्जी के वोटरों को ईवीएम देखने की लालसा भी पोलिंग बूथ तक खींच कर ले गई.

साल 2013 में नक्सल प्रभावित इलाकों में चुनाव के दौरान जमकर हिंसा हुई थी. 8 आईइडी धमाके हुए तो पोलिंग पार्टियों पर नक्सलियों की गोलीबारी की तकरीबन 20 घटनाएं हुई थीं. लेकिन इस बार बस्तर संभाग में उड़ते हुए 50 ड्रोन और सुरक्षा बलों की एजेंसियों के जांबाज जवानों की वजह से नक्सलियों की गतिविधियों पर नजर बनी रही तो लगाम भी कसी रही.

नक्सल प्रभावित इलाकों में शांतिपूर्ण मतदान के बाद अब रमन सरकार की चिंता ये है कि यहां के मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल न किया हो. दरअसल, साल 2013 के विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में राजनांदगांव के मतदाताओं ने नोटा दबाकर बीजेपी का काम तमाम किया था.

खैरागढ़, मोहला-मानपुर और डोंगरगांव की सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. लेकिन कांग्रेस के जीते हुए उम्मीदवारों के मार्जिन से ज्यादा नोटा वोटों की संख्या थी. ऐसे में एक तरफ मतदाता अपने वोट के अधिकार को लेकर जागरुक हुआ है तो साथ ही वो पार्टियों और उम्मीदवार के चयन के लिए जागने भी लगा है.