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चंडीगढ़ छेड़छाड़: लड़के की करतूत के लिए उनके परिजन जिम्मेदार क्यों नहीं?

भारत में IPC की कोई भी धारा किसी जुर्म के लिए किसी के रिश्तेदार को दोषी मानने की इजाजत नहीं देती

Prakash Nanda

चंडीगढ़ में एक आईएएस अफसर की बेटी को हरियाणा के बीजेपी अध्यक्ष के बेटे के पीछा करने और छेड़खानी करने की घटना पर इस वक्त पूरे देश में हंगामा मचा हुआ है. जैसा कि फ़र्स्टपोस्ट ने पहले भी बताया था कि किसी बड़े नेता या मंत्री के बेटों की ये पहली करतूत नहीं. ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब उन्होंने कानून अपने हाथ में लिया. ये पहली बार नहीं हुआ जब पुलिस भी उन लोगों पर हाथ डालने से हिचकी. इसकी सबसे बड़ी वजह उनके पिता के ताकतवर सियासी रसूख ही थे.

हमेशा ही नेता और मंत्रियों ने अपने बच्चों का बचाव किया


लेकिन यह भी सच है कि हर ऐसे मामले में हमेशा ही नेता और मंत्रियों ने अपने बच्चों का बचाव किया हो. उनको पहले ऐसी हरकतें करने के लिए बढ़ावा दिया हो और फिर उन्हें कानून के शिकंजे से बचाया हो. मिसाल के लिए इस वक्त जेल में बंद मनु शर्मा को ही लीजिए. वो हरियाणा के ही ताकतवर कांग्रेसी नेता और मंत्री का बेटा था. आज वो जेसिका लाल मर्डर केस में जेल की सजा काट रहा है.

हाल ही में गुजरात के मौजूदा उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल के बेटे को अधिकारियों ने उस वक्त रोका था, जब वो हवाई जहाज में बैठ रहा था. उस वक्त वो बुरी तरह नशे में धुत था और लोगों से बदसलूकी कर रहा था. मगर डिप्टी सीएम का बेटा होने के बावजूद अधिकारियों ने उसके खिलाफ कार्रवाई की.

क्या हरियाणा के बीजेपी अध्यक्ष ने बेटे को बचाने के लिए कानून से खिलवाड़ किया है? अगर ऐसा है तो बीजेपी के आला नेताओं को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए. यही नहीं उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी होनी चाहिए. लेकिन क्या उन्हें सिर्फ इसलिए हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि उनके खिलाफ एक आरोपी के पिता होने की वजह से शोर मचाया जा रहा है?

फिलहाल यह मांग सिर्फ विपक्षी दल कांग्रेस से नहीं उठ रही. बल्कि कई महिला संगठनों की तरफ से भी यह आवाज उठाई जा रही है. जबकि पीड़ित लड़की के आईएएस पिता वीरेंद्र कुंडू ने भी कहा है कि लड़के की करतूत के लिए पूरे बराला परिवार को विवाद में घसीटना ठीक नहीं.

'लड़के की करतूत के लिए उनके परिजन जिम्मेदार नहीं'

सोमवार को वीरेंद्र कुंडू ने मीडिया से कहा कि यह अफसोस की बात है कि आरोपियों के परिजनों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. कुंडू ने कहा कि उनकी नजर में लड़के की करतूत के लिए उनके परिजन जिम्मेदार नहीं हैं.

हर आरोपी की करतूत के लिए उसके परिवार को जिम्मेदार ठहराने का यह सिलसिला ठीक नहीं. मध्य युग में खून की खराबी का सिद्धांत चलता था. जब किसी जुर्म के लिए मुजरिम के साथ-साथ उसके परिजनों को भी सजा दी जाती थी. कई बार तो यह सजा अगली पीढ़ी तक को दी जाती थी.

पर क्या इक्कीसवीं सदी में ऐसे मध्यकालीन सिद्धांत की गुंजाइश है? अगर किसी समूह का एक सदस्य किसी की हत्या कर देता है तो क्या उसके सारे साथियों को इसकी सजा दी जानी चाहिए? अगर किसी का भाई या बहन कोई गैर-कानूनी काम करता है, तो क्या उस पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए?

पिछली पीढ़ी की करतूत को अगली पीढ़ी से जोड़ना कहां तक सही है?

अगर हम यही तर्क आज लागू करें तो जब तक रॉबर्ट वाड्रा अपने ऊपर लगे सारे आरोपों से बरी नहीं हो जाते, तब तक राहुल गांधी और सोनिया गांधी को भी राजनीति से निलंबित कर दिया जाना चाहिए. इसका यह मतलब होगा कि तमाम राजनीतिक परिवारों पर सियासत करने की रोक लगानी पड़ेगी. क्योंकि हर परिवार पर कोई न कोई आरोप है. इसका यह मतलब हुआ कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम को अपनी संसदीय सीट इसलिए छोड़ देनी चाहिए क्योंकि उनके बेटे कई आर्थिक अपराधों के आरोपी हैं. ये कोई तर्क नहीं, बल्कि जबरदस्ती है. इंसाफ के तराजू पर वही तौला जाना चाहिए, जो मुल्जिम है.

अमेरिका में किसी के अपराध के लिए उसके परिजनों को जिम्मेदार ठहराने का सिद्धांत बिल्कुल ही प्रतिबंधित है. वहां पर किसी के जुर्म के लिए उसके परिवार को आरोपी नहीं बनाया जा सकता. फ्लोरिडा राज्य में तो बाकायदा कानून है जो किसी आरोपी के जीवनसाथी, मां-बाप और बच्चों के खिलाफ कार्रवाई से रोक लगाता है. इस कानून से उसी सूरत में रियायत मिलती है अगर कोई आरोपी नाबालिग है और वो घरेलू हिंसा का शिकार हुआ था.

जुर्म के लिए किसी के रिश्तेदार को दोषी मानने की इजाजत नहीं 

भारत में भी आईपीसी की कोई भी धारा किसी जुर्म के लिए किसी के रिश्तेदार को दोषी मानने की इजाजत नहीं देती. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न रोकने वाली आईपीसी की धारा 498-A के तहत किसी के परिजनों को परेशान करने के चलन पर चिंता जताई थी. अदालत ने कहा था कि किसी आपराधिक मुकदमे में जब तक परिजनों पर आरोप न हों तब तक उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए.

आईपीसी की धारा 34 किसी अपराध की साझा जिम्मेदारी की व्याख्या करता है. यानी अगर कोई अपराध कई लोगों ने मिलकर किया है, तो उन सब के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. जब 1860 में आईपीसी लागू हुआ था, तब इसकी धारा 34 में एक इरादे से अपराध करने की बात शामिल नहीं थी. 1870 में इसमें बदलाव कर के यह शब्द जोड़े गए.

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लेकिन तमाम मामलों में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि साझा इरादा अगर है तो यह साबित करना होगा कि यह अपराध से पहले का था. यानी सबने पहले साजिश कर के तब मिलकर कोई अपराध किया. अगर जांच एजेंसियां यह साबित नहीं कर पाती हैं, तो आरोपी को रिहा कर दिया जाता है. कई बार कानून के जानकार यह तर्क देते हैं कि आईपीसी की धारा 34 पर फिर से गौर किए जाने की जरूरत है. इसे अलग से किसी पर लागू नहीं किया जा सकता. इस धारा को आईपीसी की बाकी धाराओं से जोड़कर देखना होगा.

बेटे के अपराध के लिए सुभाष बराला को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं

इन बातों के हिसाब से बेटे के अपराध के लिए सुभाष बराला को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं लगता. क्या सुभाष बराला ने अपने बेटे को वो करतूत करने के लिए उकसाया? उस लड़की को अगवा करने के लिए उकसाया? क्या सुभाष बराला ने जांच में बाधा डालने की कोशिश की? फिलहाल इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते कि सुभाष बराला ने ऐसा किया.

अब ऐसा नहीं है तो सुभाष बराला से इस्तीफा मांगना जायज नहीं लगता. न सियासी तौर पर, और न ही कानूनी तौर पर.

इन बातों का यह मतलब नहीं है कि अपराधी को पनाह देने वाले या उसकी मदद करने वाले परिजनों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. मुजरिमों के परिजनों को इस बात को समझना होगा कि अगर वह किसी आरोपी की मदद करते हैं, तो उन्हें कानूनी कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. यह इंसाफ की भी मांग है और समाज की भी.