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चंदा बना चुनौती: फंड से खाली 'हाथ' हुई कांग्रेस के सामने चुनाव जीतने के लिए 'करो या मरो' के हालात

सवाल उठता है कि कमजोर माली हालत बताना भी कहीं कांग्रेस की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? क्या ये जनता से भावनात्मक समर्थन लेने का राजनीतिक दांव है?

Kinshuk Praval

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कहलाने वाली कांग्रेस के लिए साल 2019 का चुनाव क्या 'करो या मरो' की स्थिति में आ चुका है?  ये सवाल इसलिए क्योंकि साल 1977 के बाद अब कांग्रेस के भीतर फंड को लेकर इमरजेंसी जैसे हालात हैं. दरअसल, कांग्रेस जिस गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रही है उसे देखते हुए साल 2019 का चुनाव उसके वजूद का सवाल भी बन गया है.

कांग्रेस के सत्ता से बेदखल होने के बाद उसे मिलने वाले पार्टी फंड में इस कदर गिरावट आई कि अब कांग्रेस के पास चुनाव लड़ने का पैसा नहीं बचा है. कांग्रेस को एक हजार करोड़ रुपये की जरूरत है. इसके लिये कांग्रेस ने 45 दिनों में 500 करोड़ रुपये इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा है. मिशन 500 करोड़ के लक्ष्य को हासिल करने के लिये कांग्रेस 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर देश भर में लोक संपर्क मूवमेंट की शुरुआत करने जा रही है. कांग्रेस के सांसद और विधायक भी अपनी एक महीने की तनख्वाह कांग्रेस पार्टी को समर्पित करेंगे. ऐसा पहली बार हो रहा है कि कांग्रेस फंड इकट्ठा करने के लिये सड़कों पर उतर रही है.


लेकिन सवाल उठता है कि कांग्रेस की ये हालत कैसे हो गई? तकरीबन छह दशक तक देश में सरकार चलाने वाली कांग्रेस सिर्फ साढ़े चार साल में ही इस हालत में कैसे आ गई? देश चलाने वाली कांग्रेस के लिये अपना खर्च उठाना ही इतना भारी कैसे पड़ गया?

दरअसल साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इस बात का अहसास हो चुका था कि उसका दोबारा सत्ता में आना संभव नहीं है. बीजेपी के लिये जहां समर्थन बढ़ता जा रहा था तो कांग्रेस अपने प्रचार में पिछड़ती जा रही थी. कांग्रेस के दस साल के शासन के खिलाफ उपजी सत्ता विरोधी लहर को देखकर कांग्रेस भी सरेंडर की मुद्रा में थी. लोकसभा चुनाव में कई उम्मीदवारों के चुनावी खर्च उठाने का भी पैसा पार्टी के पास नहीं था या उसने लगाया नहीं. ऐसे में ये समझ से परे था कि वाकई कांग्रेस के पास पैसा नहीं था या फिर उसने हाथ रोक रखा था क्योंकि उसे हार का अंदेशा था.

लोकसभा चुनाव में हार के बाद आर्थिक दुर्गति का दौर थमा नहीं. कांग्रेस को मिलने वाले डोनेशन,कॉर्पोरेट चंदे और सदस्यता में कमी आती चली गई. जहां बीजेपी राजनीतिक चंदा हासिल करने का रिकॉर्ड बनाती चली गई तो वहीं कांग्रेस चंदे में भी पिछड़ती चली गई. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी को साल 2016-17 में राजनीतिक चंदे में 81 फीसदी की ग्रोथ मिली जबकि कांग्रेस की कमाई में 14 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई. जहां बीजेपी को 1034 करोड़ रुपये मिले तो वहीं कांग्रेस को साल 2015-16 के मुकाबले 225.36 करोड़ रुपये मिले.

आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया की आदत भी कांग्रेस का खजाना खाली करने का काम करने लगी. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस ने अपने प्रचार और प्रशासनिक कामों में मिले चंदे से ज्यादा का इस्तेमाल किया. कांग्रेस ने करीब 96 करोड़ रुपये ज्यादा खर्च किये.

रही सही कसर कांग्रेस के 'हाथ' से निकलते राज्यों ने कर दी. महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और हरियाणा जैसे राज्य 'हाथ' से निकल गए. देश के तीन राज्यों में सिमटी कांग्रेस के पास औद्योगिक राज्यों की सत्ता का भी आधार नहीं रहा कि वो अपनी आर्थिक हालत सुधार सके. वहीं नोटबंदी ने कांग्रेस को कैश के गंभीर संकट में डाल दिया.

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस नेतृत्व को कई राज्यों में पार्टी कार्यालयों को संचालित करने के लिये पैसा तक रोकना पड़ गया. कांग्रेस नेतृत्व ने पार्टी के सदस्यों से खर्चों में कटौती के साथ ही पार्टी के प्रति योगदान करने के लिये कहा. अब नौबत ये है कि कांग्रेस को धीरे-धीरे देश भर में पार्टी दफ्तरों और कार्यकर्ताओं को लेकर तमाम खर्चों में कटौती करनी पड़ रही है. कहीं पर कार्यालय बंद करने पड़े तो कहीं पर पार्टी पदाधिकारियों को दिये गए वाहन भी वापस कर लिये गए. यहां तक कि पार्टी महासचिव और सांसदों को दिया जाने वाला ईंधन भत्ता तक रोकना पड़ा. हाल ही में पार्टी के पदाधिकारियों को हवाई यात्रा की बजाए ट्रेन यात्रा का भी निर्देश जारी हुआ है. खर्चों में कटौती की कवायद से कांग्रेस को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं में संदेश भी उत्साहजनक नहीं गए.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं. राजस्थान को लेकर कांग्रेस बहुत आशान्वित है. लेकिन यहां भी चुनाव लड़ने के लिये फंड की कमी उसके जोश पर असर डाल रही है. राजस्थान के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने वीडियो जारी कर क्राउड फंडिंग के जरिये पार्टी को पैसा देने की अपील की है. यहां तक कि कांग्रेस ने वीडियो के जरिये लोगों को कांग्रेस को पैसा देने का तरीका भी सिखाया है.

कांग्रेस जब भी सत्ता से बाहर हुई है तो उसके सामने वित्तीय संकट गहराया है. 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस के भीतर आर्थिक संकट बढ़ा था लेकिन इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी से कांग्रेस उबर गई थी. इसके बाद एनडीए के सत्ता में रहने से भी कांग्रेस की आर्थिक सेहत पर असर पड़ा था. लेकिन साल 2004 में सत्ता में वापसी के बाद कांग्रेस ने मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में ही पार्टी फंड इकट्ठा करने के लिये कमेटी बनाई गई थी. जिसके बाद हर सदस्य को हर साल पार्टी के प्रति 100 रुपये का योगदान करने का निर्देश दिया गया था. अब कांग्रेस को क्राउड फंडिंग का आसरा है.

सवाल उठता है कि कमजोर माली हालत बताना भी कहीं कांग्रेस की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? क्या ये जनता से भावनात्मक समर्थन लेने का राजनीतिक दांव है?

हाल ही में पार्टी ने संगठनात्मक स्तर पर एक बड़ा फेरबदल करते हुए वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा की जगह अहमद पटेल को कोषाध्यक्ष बनाया. अहमद पटेल 1996 से 2000 तक भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं. वैसे भी यूपीए में सोनिया गांधी के बाद अहमद पटेल को ही सबसे पावरफुल नेता माना जाता था. अब पटेल के ऊपर इलेक्शन फंड जुटाने की बड़ी जिम्मेदारी है.

कांग्रेस लगातार बीजेपी पर उद्योगपतियों की पार्टी होने का आरोप लगा कर हमला करती रही है. ऐसे में कांग्रेस लोक संपर्क मूवमेंट के जरिये ये संदेश भी देना चाह रही है कि कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ है और वो आम आदमी की मदद से ही चुनाव लड़ने जा रही है क्योंकि उसके पास उद्योगपतियों का पैसा नहीं है. बहरहाल, कांग्रेस जहां एक तरफ अस्तित्व के संकट से जूझ रही है तो दूसरी तरफ वित्तीय संकट की वजह से भी कार्यकर्ताओं में निराशा फैल सकती है. ऐसे में ये यक्ष प्रश्न है कि खाली खजाने और खाली हाथ कांग्रेस आखिर किस तरह साल 2019 में मोदी सरकार को चुनौती दे पाएगी?