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इस्तीफे की माया: क्या अब होगी दलितों की देवी के भक्तों की 'घर वापसी'

राजनीतिक इस्तीफे का ऊंचा मानदंड पेश करने वाले दावे अक्सर राजनीतिक फर्जीवाड़े से कुछ ज्यादा साबित नहीं हुआ है

Vivek Anand

मायावती का इस्तीफा एक पॉलिटिकल ड्रामा है. लेकिन क्या ये ड्रामा पहली बार हुआ है? अपनी राजनीति बचाए रखने के लिए नाखून कटाकर राजनीतिक शहादत देने वाले ऐसे इस्तीफे पहले भी होते रहे हैं. इसलिए अगर मायावती के इस्तीफे के चालाकी भरे मूव पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं तो पुरानी राजनीतिक परंपरा भी देख लेनी चाहिए. इस्तीफे का ऊंचा मानदंड पेश करने वाले दावे अक्सर राजनीतिक फर्जीवाड़े से कुछ ज्यादा साबित नहीं हुआ है.

नीतीश कुमार का ही उदाहरण ले लेते हैं. 2013 में नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाए जाने के विरोध में एनडीए से अलग हो गए. 17 साल की दोस्ती तोड़कर एनडीए से अलग हो जाना नीतीश का बड़ा फैसला था, जिससे सीधे तौर पर उनकी राजनीतिक साख जुड़ी थी.


नीतीश कुमार को उम्मीद थी कि वो अपनी साफ-सुथरी छवि के बूते अकेले दम पर लोकसभा चुनावों में सम्मानजनक सीटें ला पाएंगे. ऐसी स्थिति में वो राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक भूमिका तलाशने के फेर में थे. लेकिन लोकसभा चुनावों में उनकी मिट्टी पलीद हो गई. जेडीयू सिर्फ 2 सीटें जीत पाई.

नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक साख बचाने के लिए मायावती की तरह ही एक चालाकी भरा फैसला लिया. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के एकाध महीने बाद उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. संदेश ये दिया गया कि चूंकि जनादेश उनके खिलाफ गया है इसलिए वो नैतिकता के ऊंचे मानदंड पेश करते हुए इस्तीफा देते हैं.

उन्होंने अपना सिंहासन जीतनराम मांझी को सौंप दिया. नए सीएम के चुनाव का आधार सिर्फ इतना था कि वो उनके इशारों पर नाचने वाला कोई नेता हो. ताकि पर्दे के पीछे रहकर भी वो बिहार का अपनी मनमर्जी से भला करते रहें.

हालांकि बाद में स्थितियां बदल गई और जिस कठपुतली को बिठाकर वो बिहार की सरकार चलाना चाह रहे थे, उसने इशारों पर नाचने से मना कर दिया. जीतनराम मांझी ने बगावत का बिगुल फूंक दिया. इसके बाद सारी नैतिकता को भूल भालकर नीतीश कुमार ने दिल्ली में राष्ट्रपति के सामने अपने समर्थक विधायकों की परेड तक कराई, तब जाकर उन्हें अपनी कुर्सी वापस मिली.

मायावती का इस्तीफा उनका चालाकी भरा पॉलिटिकल मूव है

नीतीश का बिहार के सीएम पद से इस्तीफा वैसा ही था जैसा आज मायावती का है. मायावती के सामने अपनी राजनीति को बचाए रखने का इससे अच्छा उपाय नहीं हो सकता था. 8 महीने में उनकी राज्यसभा सदस्यता खत्म होने वाली थी.

अपनी पार्टी के विधायकों की संख्या के दम पर उनके दोबारा चुनकर आने की संभावना नामुमकिन थी. ऐसे में उन्होंने लाइव टीवी कवरेज में राजनीतिक हंगामे के बीच ड्रमैटिक अंदाज में इस्तीफा देकर बीएसपी की भदेस राजनीति में रियलिटी शो वाला रंग भर दिया है. इसी तरह की राजनीति आज की डिमांड है.

मायावती 61 साल की हो चुकी हैं. अपने खिसकते जनाधार को समेटने की जल्दबाजी अगर उन्होंने नहीं दिखाई तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल की तर्ज पर राजनीति की रौनक दूर से देखकर मन मसोस कर रह जाने की नौबत आते देर नहीं लगेगी. हालांकि अभी उतनी भी देर नहीं हुई है.

मायावती ने 2007 में यूपी में अपने दम पर बहुमत की सरकार बनाई थी. उसके बाद से उन्हें लगातार तीन चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा है. 2012 में वो यूपी में वापसी नहीं कर पाई. 2014 के लोकसभा चुनाव में वो एक सीट के लिए भी तरस गईं. 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें लाने में पार्टी का दम फूलने लगा.

मायावती की दलित राजनीति में अभी देर नहीं हुई है

मायावती के दलित वोट में बीजेपी ने सेंध लगाई है. लेकिन ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि मायावती के कोर वोटर ने उनका साथ छोड़ दिया है. 2017 के चुनाव में पार्टी का 22.2 फीसदी वोट शेयर रहा है. जबकि 47 सीटें लाने वाली समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 21.8 फीसदी रहा है.

अगर बदली राजनीतिक परिस्थितियों में मायावती अखिलेश से हाथ मिला लेती हैं तो 2019 में यूपी की तस्वीर अलग भी हो सकती है. लेकिन इसके लिए मायावती को अपने वोटर्स को भरोसे में लेना होगा.

सहारनपुर दंगे की याद दिलाकर, दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे को उठाकर और संसद में दलितों के हितों की आवाज उठाने से रोकने की बात करके इस्तीफा देकर मायावती ने अपने वोटर्स को संदेश दे दिया है. अब उनके वोटर्स पर निर्भर करता है कि वो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर इस संदेश को ग्रहण करें या फिर बीजेपी की हवा में डूबते उतराते रहें.