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BNP की हार का कारण है पाकिस्तानी समर्थक और एंटी लिबरेशन रुख: मेस्बाह कमाल

कहीं ऐसा तो नहीं है कि अवामी लीग की जीत के पीछे कुछ ऐसी सामाजिक प्रक्रियाएं ढकी-छुपी हैं जिसे किसी बाहर के व्यक्ति के लिए देख-समझ पाना मुश्किल है?

Ajaz Ashraf

बाग्लादेश में 11वीं लोकसभा के लिए विगत 30 दिसंबर को वोट पड़े लेकिन इसके बहुत पहले से विपक्ष इस मुल्क के चुनाव आयोग पर हमलावर हो रहा था. विपक्ष की दलील थी कि अवामी लीग की रहनुमाई में बने महागठबंधन के खिलाफ उसके लिए चुनावी लड़ाई मौके के एतबार से बराबरी की नहीं रह गई है, चुनाव आयोग आवामी लीग की तरफदारी कर रहा है.

यह भी कहा जा रहा है कि अवामी लीग की भारी भरकम जीत से विपक्ष के आरोपों की पुष्टी हुई है. तो क्या फिर दक्षिण एशिया में एक नया सियासी मॉडल अमल में आया है जहां राजनीतिक दल चुनाव के जरिए सत्ता में आते हैं और फिर राजसत्ता की ताकत से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को चुनावी दौड़ से बाहर कर देते हैं ताकि सिंहासन पर खुद जमे रहें? या फिर, कहीं ऐसा तो नहीं है कि अवामी लीग की जीत के पीछे कुछ ऐसी सामाजिक प्रक्रियाएं ढकी-छुपी हैं जिसे किसी बाहर के व्यक्ति के लिए देख-समझ पाना मुश्किल है?


इन सवालों के जवाब जानने के लिए फर्स्टपोस्ट ने ढाका विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर मेस्बाह कमाल से ग्याहरवीं लोकसभा के चुनावों की अहमियत का विश्लेषण करने को कहा. टेलीविजन पर चलने वाली बहसों में अक्सर शिरकत करने वाले प्रोफेसर मेस्बाह कमाल कई भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं.

वे रिसर्च एंड डेवलपमेंट कलेक्टिव के अध्यक्ष हैं. आदिवासी ओधिकार आंदोलन और नेशनल काउंसिल फॉर इंडिजीनस पीपल इन बांग्लादेश के महासचिव के पद पर भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं. साथ ही बांग्लादेश दलित फोरम के मुख्य सलाहकार भी हैं. प्रोफेसर कमाल ने फोन पर हुए साक्षात्कार में जो बातें साझा कीं उसका एक हिस्सा यहां नीचे दर्ज किया गया है:

शेख हसीना की अवामी लीग को भारी बहुमत से जीत मिली है, लेकिन क्या बांग्लादेश की विपक्षी पार्टियां का यह दावा सही है कि चुनाव निष्पक्ष और मुक्त तरीके से नहीं हुए?

अभी यह तो साफ नहीं हो पाया कि मतदान ठीक-ठीक कितना प्रतिशत हुआ लेकिन 60 प्रतिशत से ज्यादा की तादाद में मतदाताओं ने वोट डाले हैं. यह एक अच्छी-खासी तादाद है. बेशक, मतदाताओं को डराने-धमकाने के आरोप लगे हैं लेकिन ऐसे मामले छिटपुट ही हैं. डराने-धमकाने के वाकए ना पेश आए होते या फिर चुनाव 100 प्रतिशत निष्पक्ष तरीके से होता तब भी नतीजे यही रहते.

अवामी लीग को मिले भारी जन-समर्थन की वजह क्या है?

इसकी एक बड़ी वजह है लोगों का ‘मुक्ति-संग्राम’(यह शब्द बांग्लादेश की आजादी के लिए पाकिस्तान से चली जंग के लिए इस्तेमाल होता है) की पक्षधर पार्टी की तरफ खड़ा होना. अवामी लीग इस मुल्क की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक धारा की भी नुमाइंदगी करती है.

विकास की पहलकदमियां भी अवामी लीग की जीत का कारण बनीं. बांग्लादेशियों को लगा कि विकास के कामों में निरंतरता बनाए रखने के लिए उसी पार्टी की सरकार को भी चलाए रखना जरुरी है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को चुनावी मैदान में बराबरी का मौका नहीं मिला. वे खुद जेल में हैं और उनकी पार्टी के प्रत्याशियों की उम्मीदवारी 17 निर्वाचन-क्षेत्रों में रद्द कर दी गई.

दरअसल, विपक्ष की हार की असली वजह यह नहीं है. खालिदा जिया की साख पर बट्टा लग चुका था, वे जब सत्ता में थीं तो उनके ऊपर रिश्वतखोरी के आरोप लगे थे. दरअसल उनकी पार्टी को समर्थन कमाल हुसैन और अन्य बड़े नेताओं के साथ गठबंधन के कारण मिलना शुरु हुआ(कमाल हुसैन बांग्लादेश में बहुत प्रसिद्ध हैं).

हुसैन ने कहा था कि गठबंधन जमात-ए-इस्लामी से कोई रिश्ता नहीं रखेगा. जमात-ए-इस्लामी कट्टपरपंथियों का जमावड़ा है. लेकिन जल्दी ही साफ हो गया कि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी जमात से अपने रिश्ते नहीं तोड़ने जा रही.

क्या आप यह कह रहे हैं कि जमात से अपने रिश्तों के कारण बीएनपी(बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) को चुनावों में भारी धक्का लगा?

हां, बीएनपी को इसी कारण बहुत कम वोट मिले. दूसरी वजह रही चुनावों में तारिक रहमान(खालिदा जिया के बेटे) की भूमिका. मां(बेगम खालिदा जिया) जब सत्ता में थीं तो बेटे की साख पर बट्टा लगा था, तारिक रहमान रिश्वतखोरी में शामिल थे.

शेख हसीना पर 21 अगस्त 2004 को ग्रेनेड से हमला हुआ था. इस हमले का भी जिम्मेवार तारिक रहमान को पाया गया था. इस हमले में 24 लोगों की मौत हुई थी. तारिक रहमान को इस मामले में 20 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी.

तारिक रहमान पहले बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के उपाध्यक्ष थे. वे दस साल से देश से बाहर हैं. फिर भी, उन्होंने चुनावों में बड़ी भूमिका निभाई, उम्मीदवारों का चयन किया और यहां तक कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उनका इंटरव्यू भी लिया. मीडिया ने इस बात पर नजर रखी, सुर्खियां बनी और लोगों का मन बीएनपी से उचट गया.

इस तरह बीएनपी के लचर प्रदर्शन की दो वजहें रहीं. एक तो पार्टी जमात-ए-इस्लामी के साथ अपने रिश्ते कायम रखने पर अड़ी रही जबकि कमाल हुसैन ने ऐसा ना करने का वादा किया था. दूसरा, विपक्षी गठबंधन के लिए तारिक रहमान ने जो भूमिका निभाई वो भी नकारा साबित हुई.

मतलब, आप ये कह रहे हैं कि 2018 के संसदीय चुनाव में लोगों ने मुक्ति-संग्राम के विरोधियों और सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ वोट डाला?

हां, यही बात हुई. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात को यहां पाकिस्तान-समर्थक माना जाता है. लोग मानते हैं कि इन दोनों का पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से नाता है. दरअसल खबर तो यह भी आई थी कि आईएसआई ने बीएनपी को संभावित उम्मीदवारों की लिस्ट थमाई थी.

क्या ऐसी खबरें मनगढ़ंत हैं या फिर उनमें कोई सच्चाई है?

आईएसआई के दुबई स्थित एजेंट और मंत्री रह चुके बीएनपी के एक नेता के बीच टेलीफोन पर बातचीत हुई थी. रिपोर्ट इसी बातचीत के आधार पर छपी थी.

क्या चुनाव के नतीजों का संदेश यह है कि बीएनपी पाकिस्तान-समर्थक रवैया अख्तियार करके जीत की उम्मीद ना रखे? क्या हम ऐसा कह सकते हैं?

हां, बिल्कुल ठीक बात है. बीएनपी अगर खालिदा जिया और तारिक रहमान की रहनुमाई में चलती रही और उसने पाकिस्तान का पक्षधर होने का अपना रवैया बनाए रखा तो फिर इस मुल्क में उसका कोई भविष्य नहीं है. बीएनपी ने मुक्ति-संग्राम विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक होने की एक कीमत चुकाई है. जमात के नेताओं को एक लंबी सुनवाई के बाद सजा मिली.

मुकदमा इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल में चला था और सुनवाई में जमात के नेताओं को जनसंहार, अत्याचार और महिलाओं के बलात्कार का दोषी करार दिया गया. उन पर लगे आरोप हर कोण से सही साबित हुए.

खालिदा जिया

इसके साथ 1971 की यादें जुड़ी हैं. वो लोग अभी जिंदा हैं जिन्होंने 1971 का कत्ल-ए-आम देखा था. फिर, यह याद कोई ठहरी हुई चीज नहीं, यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहती है. मतदाताओं में बहुतों ने 1971 का वाकया नहीं देखा- खासकर उन लोगों ने जो इस दफे पहली बार वोट डालने आए. ऐसे लोगों की तादाद 2 करोड़ है. पहली दफे वोट डाल रहे इन लोगों ने मुक्ति-संग्राम के विरोधियों के खिलाफ वोट डाला.

मुक्ति-संग्राम का वाकया मीडिया में छाया रहता है. बांग्लादेश में टेलीविजन पर चलने वाली बहसें खूब लोकप्रिय हैं और ये बहसें राजनीतिक शिक्षा का एक बड़ा जरिया साबित हो रही हैं. टेलीविजन पर चलने वाली बहसों के कारण ही मुक्ति संग्राम से जुड़ी बातें नई पीढ़ी तक पहुंची हैं.

क्या हम मुक्ति-संग्राम के वारिस हैं? क्या आजादी के लड़ाई में शरीक हुए लोगों के हम वारिस हैं? क्या इतिहास हमारी विरासत है? सही इतिहास कैसे लिखा जाए? ये सारे ही मामले कट्टरपंथियों के खिलाफ गए. बीएनपी दरअसल मुस्लिम लीग का ही बदला हुआ या कह लें नया नाम है.

मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग?

हां, जिन्ना की मुस्लिम लीग. उन लोगों ने बीएनपी का मुखौटा लगा रखा है लेकिन बीएनपी दरअसल मुस्लिम लीग का ही नया अवतार है. और, इस पार्टी का असली चेहरा सामने आ चुका है.

हमने देखा कि छात्र सड़कों पर उतर आए हैं. माना गया कि लोग सरकार से नाराज हैं?

कुछ मुद्दों को नौजवानों का समर्थन हासिल था. सरकारी नौकरियों में आरक्षण(कुल 56 फीसद नौकरियां आरक्षित हैं, जिसमें 30 फीसद आरक्षण मुक्ति-संग्राम में भाग लेने वाले परिवार के सदस्यों के लिए है) के खिलाफ अभियान चल रहा था और ‘रोड-सेफ्टी’ के मसले को भी नौजवानों का व्यापक समर्थन था.

मुझे कहना होगा कि सरकार का इन विरोध-प्रदर्शनों से बरताव अच्छा नहीं रहा. अवामी लीग के खाते में कई कामयाबियां हैं लेकिन कुछ मोर्चों पर वे नाकाम भी रहे हैं. लेकिन, इसका मतलब ये नहीं होता- जैसा कि कुछ लोग सोच सकते हैं, कि छात्रों ने बीएनपी को वोट डाला.

जो पार्टी सरकार में होती है उसके खिलाफ एक सत्ताविरोधी माहौल तो रहता ही है. लेकिन सत्ता-विरोधी माहौल इतना जोरदार नहीं था कि लोग सरकार के खिलाफ वोट डालें. आखिर को बात यही निकलकर सामने आती है कि लोग मुक्ति-संग्राम की पक्षधर, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष पार्टी को सत्ता में देखना चाहते हैं. लोग मुक्ति-संग्राम के विरोधी और सांप्रदायिक ताकतों को मौका नहीं देना चाहते.

क्या आपको लगता है कि कमाल हुसैन ने विपक्षी गठबंधन का साथ यह सोचकर दिया कि उदारवादी लोकतंत्र में विपक्ष को कारगर भूमिका में होना चाहिए?

शायद कमाल हुसैन ने सोचा कि लोगों के लिए अपनी जनतांत्रिक चाहतों के इजहार के मौके कम होते जा रहे हैं. उनका सोचना एक हद तक सही भी था. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वे जाकर मुक्ति-संग्राम के विरोधियों और सांप्रदायिक ताकतों से हाथ मिला लें. ऐसा करना उनकी सियासी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित हुई. हुसैन के लिए अपनी गलती से उबर पाना बहुत मुश्किल होगा.

क्या आपको लगता है कि शेख हसीना लगातार निरंकुश होते जा रही हैं?

जहां तक इस समय का सवाल है, मैं कहूंगा कि नहीं- उनका बरताव निरंकुश नहीं है. जब किसी पार्टी को भारी बहुमत हासिल होता है तो यह लोकतंत्र के एतबार से एक बड़ी चुनौती साबित होता है. शेख हसीना को भारी बहुमत मिला है, लेकिन वे सचेत ना रहे तो हवा का रुख उनके खिलाफ भी जा सकता है.

क्या हम दक्षिण एशिया में एक नया सियासी मॉडल अमल में आता देख रहे हैं जहां राजनीतिक दल चुनाव के जरिए सत्ता में आते हैं और फिर राजसत्ता की ताकत से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को चुनावी दौड़ से बाहर कर देते हैं ताकि सिंहासन पर खुद जमे रहें?

अवामी लीग का इतिहास बहुत अलग है. मिसाल के लिए, अवामी लीग ने कभी कानून के दायरे से बाहर जाकर लोगों की हत्या करवाने जैसे जघन्य तरीके का सहारा नहीं लिया. दरअसल, शेख हसीना कानून का राज कायम करने की कोशिश कर रही हैं.

वो कत्ल-ए-आम और जोर-जुल्म करने वालों को सजा दिलाने में जुटी हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल कानून के दायरे में रहकर किया जा रहा है. बांग्लादेश में न्यायिक प्रक्रिया को पूरा होने में बड़ा लंबा वक्त लगता है. लेकिन अच्छा है कि शेख हसीना और अवामी लीग ने भारी धीरज का परिचय दिया है.

अब शेख मुजीबुर्रहमान के हत्यारों के बाबत चली सुनवाई को ही लीजिए. हत्यारों को सजा दिलाने में कई साल लग गए लेकिन प्रक्रिया कानून के दायरे में चलती रही. या, फिर उन चार कौमी नेताओं के मामले पर ही गौर करें जिन्हें 1975 में जेल में मार दिया गया था. इस मामले में सुनवाई को पूरा होने में बहुत लंबा वक्त लगा.

इसी तरह पाकिस्तानी सेना का साथ(1975 के वक्त) देने वालों पर चले मुकदमे में भी बहुत लंबा समय लगा. फांसी पर चढ़ाए जाने से पहले दोषियों को भरपूर मौका दिया गया कि वे चाहें तो फैसले के खिलाफ अपील करें. यहां सोच यह काम करती है कि लोगों को मुक्ति-संग्राम की ताकतों के मूल्यों से आगाह करना है. अवामी लीग ऐसी ताकतों को राजनीतिक और विचारधारा की जमीन पर चुनौती देने की कोशिश करती है.

क्या आपको लगता है कि 2018 के जनादेश के बाद इस्लामी कट्टरपंथी भूमिगत होकर अपनी लड़ाई चलाएंगे? या आपको लग रहा है कि ये ताकतें अपनी गलती महसूस करेंगी और उनके कट्टरपंथी रुझान में ढील आएगी?

दरअसल मेरा ख्याल है कि ऐसा सोचना या मानना एक भूल होगी. वे अपने को नहीं बदलने वाले. आज 48 साल बीत गए लेकिन 1975 में उन लोगों ने जो अत्याचार किए थे उसे आज तक स्वीकार नहीं किया, ना ही इन लोगों ने अपने लिए दया की अपील की.

क्या वे लोग और ज्यादा हिंसक रुख अपनाएंगे?

इन ताकतों के हमेशा से भूमिगत संगठन रहे हैं. 1960 के दशक में भी ऐसा ही था. इन ताकतों का भूमिगत होना ना तो इनके लिए नया है और ना ही बांग्लादेश के लिए. देश और जनता के हित के खिलाफ वे किसी हद तक जा सकते हैं. उनकी ताकत घट रही है और आगे के वक्त में वे सियासी जमीन पर एकदम सिफर हो जाएंगे. इससे अन्य धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक ताकतों के लिए गुंजाइश पैदा होगी जो अभी हाशिए पर हैं.