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कांग्रेस बनती जा रही बीजेपी? क्षेत्रीय चेहरों की कमी से एक जैसा हाल

बीजेपी को भी आखिरकार उसी भंवर में फंसना है जिसमें कांग्रेस धंसती चली गई.

Ajay Singh

वह 30 नवंबर 1975 का दिन था. इंदिरा गांधी के कहने पर हेमवती नंदन बहुगुणा को यूपी के मुख्यमंत्री पद से मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा. इस्तीफे के एक दिन बाद गढ़वाल के इस आजाद-ख्याल नेता ने शायराना अंदाज में कहा- 'हम बावफा थे इसलिए नजरों से गिर गये, शायद तुम्हें तलाश किसी बेवफा की थी .'

गुस्से और हताशा के इजहार के लिए हिन्दी-पट्टी की सियासत में अक्सर कविताई का सहारा लिया जाता है. वह इंदिरा गांधी के दबदबे का दौर था और अपने ताकत के जोर में उन्होंने अभी-अभी देश में इमर्जेंसी लगायी थी.


ऐसे वक्त में हेमवती नंदन बहुगुणा उनकी राह के आड़े आ गये. इस्तीफे का दर्द दिल में दबा बहुगुणा 1977 के चुनावों से तुरंत पहले बाबू जगजीवन राम के साथ जनता पार्टी में शामिल हो गये. बहुगुणा की इस पगड़ी-उछाल विदाई के साथ कांग्रेस में एक नई रीत की शुरुआत हुई, हाईकमान सूबाई क्षत्रपों को किनारे करने लगा.

पुराने नेताओं को अब भी याद है वो वक्त जब संजय गांधी, यशपाल कपूर (इंदिरा गांधी के पीए) या इंदिरा गांधी के घर के किसी अदने से कर्मचारी का एक फोन ताकतवर नेताओं की किस्मत का फैसला कर देता था.

एनडी तिवारी, बीरबहादुर सिंह और श्रीपत मिश्र ऐसे ही मुख्यमंत्रियों की कतार में शामिल हैं. और, दरअसल कांग्रेस के गर्त में समाने की शुरुआत भी इसी से हुई.

धीरे-धीरे उसे यूपी और बिहार में क्षेत्रीय पार्टियों के आगे घुटने टेकने पड़े और 1990 के दशक के आखिर के सालों में बीजेपी के आगे वह औंधे मुंह गिरी.

बीजेपी के सामने क्षेत्रीय विस्तार की चुनौती

राष्ट्रीय पार्टियों में यूपी के कद्दावर नेताओं के किनारे होते जाने का यह छोटा सा इतिहास और उसका असर आज के सियासी माहौल के लिहाज से महत्वपूर्ण है.

2014 में बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में पूर्ण बहुमत हासिल किया. बीजेपी की जीत के साथ तीन दशक तक चली उस गठबंधनी सियासत का खात्मा हुआ जिसने देश की सियासत में अनिश्चय का माहौल पैदा कर रखा था. सही मायनों में देखें तो बीजेपी कांग्रेस को किनारे कर देश की सियासत की केंद्रीय धुरी बन चली है भले ही बीजेपी का विस्तार कांग्रेस जैसा बड़ा नहीं है.

2014 के चुनावों में बीजेपी को यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में तकरीबन सुनामी सरीखी जीत हासिल हुई जिससे पता चलता है कि कुछेक सूबों में उसका जोर बाकी की तुलना में बहुत ज्यादा है.

कांग्रेस के उलट बीजेपी की बड़ी जरुरत हिन्दी-पट्टी के राज्यों में अपने क्षत्रप खड़ा करने की है जो क्षेत्रीय पार्टियों के नेता मसलन मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, मायावती, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के असर की काट कर सकें. लेकिन इसके उलट पार्टी का नेतृत्व, अपने दम पर सियासी नेता के तौर पर उभरने वाले लोगों को मटियामेट करने पर तुली दिखायी देती है.

मिसाल के लिए बीजेपी की बिहार यूनिट में शायद ही कोई नेता है जो चतुराई और समझदारी में नीतीश कुमार और लालू यादव की बराबरी कर सके. इसी तरह उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह के पर कतरने के बाद पार्टी किसी और क्षेत्रीय नेता को खड़ा करने को लेकर कभी संजीदा नहीं रही. बीजेपी के अध्यक्ष की भूमिका में राजनाथ सिंह अपने को यूपी का नेता कहलवाने से बचते रहे हैं. उनको लगता है कि ऐसी छवि राष्ट्रीय रंगमंच पर बड़ी भूमिका निभाने की उनकी महत्वाकांक्षा की राह का रोड़ा साबित होगी.

यूपी में बीजेपी का नंबर एक नेता कौन

फिलहाल यूपी में बीजेपी के पास कोई भी असरदार क्षत्रप नहीं है. बेशक अमित शाह ने यूपी की सियासत में असर पैदा करने करने के लिए पूरी मुस्तैदी से कदम उठाए हैं, कई शहरों का दौरा किया है और लोगों से भेंट की है. फिर भी, उनकी ये कोशिशें बीजेपी के किसी ऐसे क्षत्रप की भरपाई नहीं कर सकती जो यूपी में पैर टिकाकर सियासत करता हो और लोगों के लिए जाना-पहचाना हो. सियासी दंगल के महीन दांव-पेंच में ऐसा क्षत्रप मायावती और अखिलेश की बड़े असरदार ढंग से काट कर सकता है.

बीजेपी के लिए उत्तरप्रदेश का चुनाव बेहद महत्वपूर्ण है

उत्तरप्रदेश में, गांव और शहर का अन्तर अक्सर धुंधला जान पड़ता है क्योंकि गांव और शहर में रहने वालों के बीच रिश्ते के तार बड़ी मजबूती से जुड़े हैं. गांवों की तरह यूपी के शहरों में भी लोगों के सियासती बरताव पर जाति और धर्म का असर है.

इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी ने अपने संगठन के ढांचे में भारी बदलाव किए हैं. संगठन में बड़ी तादाद में नौजवानों को जगह दी गई है और उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर रखा गया है. इससे संगठन में एक नई उर्जा पैदा हुई है. हर विधान-सभा क्षेत्र में पार्टी ने मुद्दों की पहचान और लोगों से राब्ता कायम करने के लिए खूब जतन किए हैं. फिर भी, यूपी में पार्टी का कोई ताकतवर क्षेत्रीय चेहरा नहीं है. इस वजह से पार्टी से लोगों का खास जुड़ाव नहीं हो पा रहा.

चूंकि पार्टी ने सोच-समझ और रणनीतिक तैयारी के साथ इस राह को चुना है इसलिए ऐसा कोई भी नजर नहीं आ रहा जो अपनी दुर्दशा का इजहार कुछ उसी अंदाज में करे जैसा बहुगुणा ने 1975 में किया था. इस दुविधा की कायम रहते बीजेपी को भी आखिरकार उसी भंवर में फंसना है जिसमें कांग्रेस धंसती चली गई.