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जब 'दक्षिण' में मिले जयललिता और बीजेपी

हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी के लिए तब तक द्रविड़ राजनीति का किला अभेद था.

KN Govindacharya

15 साल पहले, बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) की बैठक में जयललिता ने एक भाषण दिया. इस भाषण में जयललिता ने जो कहा वह बीजेपी के साथ उनके संबंधों की नींव बना. यह अजीब संयोग है कि जयललिता की मौत का दिन भी 6 दिसंबर ही है जो बाबरी विध्वंस का था.

एनआईसी में मुख्यमंत्री जयललिता ने देश को अल्पसंख्यकों की राजनीति से आगाह किया था. इससे बचने के लिए जयललिता ने अयोध्या मुद्दे को हमेशा के लिए दफन करने की सलाह दी थी.


उनकी यह राय देश के बाकी राजनीतिक दलों से अलग थी. 6 दिसंबर, 1992 के बाद जयललिता को छोड़ बाकी सभी ने बीजेपी और संघ परिवार को  सांप्रदायिक घोषित कर दिया था.

जयललिता से बनाए अच्छे रिश्ते 

उस दौरान केएन गोविंदाचार्य बीजेपी के तमिलनाडु प्रभारी थे. तब के पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने उन्हें दक्षिण का यह किला भेदने की नामुमकिन जिम्मेदारी सौंपी थी. गोविंदाचार्य ने इसमें भी उम्मीद तलाश ली.

यह उम्मीद गोविंदाचार्य को जयललिता के एनआईसी के भाषण में दिखी. हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी के लिए तब तक द्रविड़ राजनीति का किला अभेद था. गोविंदाचार्य ने तब मौका देखकर जयललिता से अच्छे रिश्ते बनाए. इस रिश्ते की बदौलत बीजेपी नेतृत्व को तमिलनाडु में जर्रे से शुरुआत करने का मौका मिला.

फर्स्टपोस्ट के एक्जक्यूटिव एडिटर अजय सिंह से बातचीत में गोविंदाचार्य ने जयललिता के साथ अपने संबंधो को याद किया. पेश है इस बातचीत के आधार पर केएन गोविंदाचार्य का यह लेख.

‘मुझे अगस्त 1992 में चेन्नई भेजा गया था. इसके कुछ दिनों बाद ही 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ था. इसके बाद राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) की बैठक में जयललिता के भाषण ने हमारा दिल खुश कर दिया था. उन्होंने बैठक में मौजूद प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्री और देश के शीर्ष नौकरशाहों को अल्पसंख्यकों की राजनीति से आगाह किया था. उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि यदि अयोध्या मुद्दे को तुरंत दफ्न ना किया गया तो इससे देश को बड़ा नुकसान हो सकता है.

जयललिता का मत देश के बाकी राजनेताओं से अलग था. अयोध्या मुद्दे पर यह बीजेपी और संघ परिवार के नजरिए से मेल खाता था.

अन्नाद्रमुक और बीजेपी की नजदीकियों की शुरुआत यहीं से हुई. किस्मत से मेरे दो दोस्त जयललिता के करीबी थे. एक थे पत्रकार रामास्वामी और दूसरे हिंदू मुन्नानी पार्टी के  संस्थापक रामागोपालन. जयललिता के साथ संबंध बेहतर बनाने में इन दोनो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

जयललिता के साथ मेरी मुलाकात काफी दिलचस्प रही. हमने राजनीति छोड़ निजी विषयों पर बात की. जैसे खाना पकाना और सार्वजनिक जीवन में निजी जिंदगी को बचाए रखने की जद्दोजदह पर बात हुई. इस बातचीत ने उन्हें समझने का मौका दिया. उन्होंने भी खुलकर बात की. उनसे बात करके मैंने जाना कि वो बेहद संवेदनशीन और नरम दिल इंसान है.

जयललिता को समझने के लिए तमिलनाडु के सामाजिक और सांस्कृतक परिवेश को समझना जरुरी है. वो महान अभिनेता और राजनेता एमजी रामचंद्रन की शिष्या थीं. असल जिंदगी में भले ही जानकी एमजीआर की पत्नी रही हों लेकिन पर्दे पर जयललिता ही एमजीआर की पत्नी थीं. तमिलनाडु की संस्कृति, समाज और राजनीति में उनका कद बहुत बड़ा था. केरल के होने के बावजूद एमजीआर ऐसा करने में कैसे कामयाब हुए इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

तमिल सिनेमा और राजनीति

पर्दे पर एमजीआर ने कभी किसी शराबी का किरदार नहीं निभाया. उनके किरदार हमेशा समाज में फैली बुराइयों को खत्म करते नजर आए. पर्दे पर एमजीआर गरीबों, पिछड़ो और महिलाओं के लिए हमेशा लड़ते दिखे.

जयललिता ने एक हिंदी फिल्म 'इज्जत' में भी काम किया है. इसमें उनके साथ धर्मेन्द्र थे.

तमिलनाडु के समाज और राजनीति पर सिनेमा का गहरा असर है. एमजीआर से पहले उनके गुरी सीएन अन्नादुराई ने भी द्रविड़ राजनीति को बढ़ाने के लिए सिनेमा का भरपूर इस्तेमाल किया.

अन्नादुराई के समकालीन रहे उनके व्यक्तिगत मित्र और राजनीतिक प्रतिद्वंदी डीएमके के एम करणानिधि  ने भी यही फार्मूला अपनाया. अन्नादुराई के गुरु पेरियार ने भी सिनेमा और रंगमंच को राजनीतिक संदेश फैलाने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया.

हिंदी सिनेमा और तमिल सिनेमा में जमीन आसमान का फर्क है. दक्षिण के सिनेमा में हीरो समाज के नियम और उसकी नैतिकता बनाए रखने और बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं. जबकि हिंदी सिनेमा में ऐसा होना जरुरी नहीं. तमिल कलाकारों को न केवल आदर्श माना जाता है बल्कि उन्हें भगवान की तरह पूजा भी जाता है.

असल जिंदगी जैसा ही पर्दे पर भी नजर आना अमिताभ बच्चन की मजबूरी हो सकती है लेकिन रजनीकांत की नहीं. गंजे हो चुके रजनीकांत  असल जिंदगी में और पर्दे पर अलग नजर आ सकते हैं. इससे उनकी छवि पर कोई असर नहीं पड़ता.

तमिल फिल्मों, वहां की संस्कृति और राजनीति के गहरे संबंध की एक और वजह है. यहां के मंदिर और सिनेमाघर. तमिलनाडु में मंदिर और सिनेमाघर इतने जाने माने हैं कि लोग इनका इस्तेमाल जगहों को पहचानने में करते हैं. आप समझ सकते हैं कि क्यों पर्दे के सितारों के बिना तमिलनाडु की कल्पना नहीं की जा सकती.

एमजीआर की विरासत

अब आप तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता की अहमियत को समझ सकते हैं. एमजीआर के मौत के बाद उन्हें बेइज्जत होना पड़ा था.  जयललिता को अंतिम संस्कार से दूर रखने के लिए एमजीआर के परिवार ने भरसक कोशिश की लेकिन वो टस से मस नहीं हुईं.

तस्वीर सौजन्य: शशिधरण-एमजीआर ब्लॉग्स्पॉट

जयललिता के एक करीबी मित्र मे मुझे बताया कि एमजीआर के परिवार वालों के रवैये से वो बेहद दुखी थीं. जयललिता एमजीआर की असल उत्तराधिकारी थीं.

अपने साथ हुए इस व्यवहार ने जयललिता के इरादों को और मजबूत कर दिया. तमिलनाडु की जनता ने भी उन्हें एमजीआर की विरासत सौंपी. वो भी एमजीआर की तरह तमिल नहीं थीं और ना ही द्रविड़ थीं. जयललिता का जन्म कर्नाटक के एक वैष्णव अयंगर ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इसके बावजूद उन्हें तमिलों ने स्वीकारा ठीक एमजीआर की तरह.

डॉ. जे जयललिता को एक असाधारण नेता ऐसे ही नहीं माना जाता था.'