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एक तरफ नरेंद्र मोदी चुनावी मोड में तो दूसरी तरफ चरमरा रही है विपक्षी एकता

मोदी ने हालिया रैलियों में चुनावी जोश दिखा दिया है लेकिन विपक्ष भीतरी अस्थिरता से डांवाडोल हो रहा है

Sanjay Singh

मोदी सरकार के चार साल पूरे होने पर बीजेपी का ऑडियो-वीडियो प्रेजेंटेशन एक नई पंचलाइन पर खत्म होता है- 'साफ नीयत, सही विकास, 2019 में फिर एक बार बार मोदी सरकार.' क्या लोकसभा चुनाव में पार्टी यही तकिया कलाम होगा या कोई नया लुभावना नारा पेश किया जाएगा? यह पार्टी के नारों में से एक तो होगा ही, लेकिन बीजेपी में कोई बताने को राजी नहीं है कि 2019 के चुनाव में यही मुख्य नारा होगा, जैसा कि 2014 में 'सबका साथ, सबका विकास, अबकी बार मोदी सरकार' था.

लेकिन एक बात साफ है कि सत्ता में अंतिम साल की शुरुआत पर '2019 में फिर एक बार मोदी सरकार' की पंचलाइन के साथ सोशल मीडिया में छोटी अवधि के कई वीडियो जारी कर मोदी सरकार और बीजेपी चुनावी मोड में आ चुके हैं.


विपक्ष के गठबंधन में भी अपनी ताकत ढूंढ रही है बीजेपी

बात सिर्फ प्रचार या नारे की नहीं है, अनौपचारिक बातचीत में सीनियर बीजेपी नेता भी यकीन दिलाते हैं कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी 2019 में सत्ता में वापसी करेगी. उन्हें देखकर कतई नहीं लगता कि विपक्ष की कथित एकता से उनकी नींदें उड़ी हुई हैं. निश्चित रूप से ये लोग ना सिर्फ समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी-कांग्रेस-राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन की ओर से उत्तर प्रदेश में खड़ी की जा रही चुनौती के अंकगणित से निपटने के लिए एक रणनीति पर काम कर रहे हैं, बल्कि इसके साथ ही बिना झिझक इसका श्रेय भी ले रहे हैं कि ऐसा आपाधापी का गठबंधन बीजेपी की बढ़ती ताकत का परिचायक है, ना कि उसकी कमजोरी का.

बीजेपी के आत्मविश्वास का कारण बहुत साफ है. यह स्थापित तथ्य है कि बीजेपी 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट मांगेगी, जिनकी लोकप्रियता चार साल सत्ता में रहने के बाद भी बहुत ऊंची है. उनकी रैलियां भारी जोश और बेजोड़ जन-समर्थन जगाती हैं. कर्नाटक के कुछ इलाकों में, और बीते दो दिनों में ओडिशा के कटक और उत्तर प्रदेश के बागपत में उनकी रैलियां इसकी साफ गवाही देती हैं. इसके अलावा, रक्षात्मक होने के बजाय बीजेपी ‘मोदी बनाम अन्य’ का मुद्दा बनाते हुए विपक्षी खेमे में उतावली का मजाक उड़ा रही है.

बागपत की रैली में दिखा जोश

कोई यह बात पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि 2019 में मई के मध्य में हालात क्या होंगे, जब अगले लोकसभा चुनाव के नतीजे का ऐलान होगा, लेकिन दूरदराज के गांवों में भी यह चर्चा का मुद्दा बन चुका है. उदाहरण के लिए देखिए कि रविवार को बागपत में 135 किलोमीटर लंबे ईस्टर्न पेरिफल रोड के उद्घाटन के लिए नरेंद्र मोदी के आने से पहले जमा भीड़ के मनोरंजन के लिए मंच से स्थानीय बैंड वाला कौन सा गाना बजा रहा था. विपक्ष की कथित एकता का मजाक बनाते हुए बज रहे गाने के बोल थे- 'ये बंधन तो नाश का बंधन है, चोरों का संगम है.' दूसरा गाना भी ऐसा ही था- 'कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने जैसा कुनबा जोड़ा.' एक और गाना देखिए- 'मजबूरी में यह गठबंधन बनाया है'… इसके बाद नुसरत फतेह अली खान की एक मशहूर कव्वाली 'मेरे रश्क-ए-कमर' की पैरोडी 'मेरे मोदी डियर, तूने अंग्रेजों पर ऐसा जादू चलाया, मजा आ गया.' एक और नारा देखिये- 'शेर को हराने के लिए गीदड़ एकजुट हो रहे हैं.'

बागपत में अपने भाषण में मोदी ने विपक्ष की कथित एकता पर यह कहते हुए हमला बोला कि, 'उनके (कांग्रेस और उसके सहयोगियों) के लिए उनका परिवार ही देश है, जबकि मेरे लिए मेरा देश ही परिवार है…एक परिवार की पूजा करने वाले लोकतंत्र की पूजा नहीं कर सकते.'

यह इस बात का साफ इशारा है कि आने वाले दिनों में वह लड़ाई को किस दिशा में ले जाने वाले हैं. उनके पास कोटा के अंदर कोटा का प्रस्ताव करके सबसे पिछड़ी जातियों (एमबीसी) के लिए आरक्षण का लाभ सुनिश्चित करके एसपी-बीएसपी-आरएलडी-कांग्रेस के सामाजिक आधार या जातीय अंकगणित का भी तोड़ है. अभी ओबीसी की चंद प्रभावशाली जातियां (जैसे कि यादव व कुर्मी) ही आरक्षण का लाभ झटक लेती हैं. इसके पीछे विचार एक गैर-यादव ओबीसी गठबंधन खड़ा करना है, कुछ उसी तरह का जैसा कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हुआ था. उन्होंने संसद ठप कर देने और ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक को मंजूरी देने में रुकावट डालने के लिए कांग्रेस और इसके साथियों को आड़े हाथों लिया. उनके पास इलाके के गन्ना किसानों के लिए भी साझा करने को कुछ अच्छी खबरें थीं.

कुमारस्वामी की सरकार अभी तक नहीं बनी

बेंगलुरु विधानसभा के सामने 23 मई की एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण कार्यक्रम की तस्वीर और उसके बाद की वास्तविक राजनीति को याद कीजिए. इसे सभी मोदी विरोधियों की एकजुटता के तौर पर पेश किया गया था. उस मंच पर जमा हुए ज्यादातर नेता वंशवाद की परंपरा से आए थे, जिन्होंने अपने पिता, दादा, दादी या ससुर से राजनीति की विरासत पाई है. इस तरह के लोगों में शामिल थे- सोनिया गांधी, राहुल गांधी, कुमारस्वामी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, अजित सिंह, हेमंत सोरेन और चंद्रबाबू नायडू.

कांग्रेस-जेडी(एस) के चुनाव बाद गठबंधन को 2019 में कर्नाटक में बीजेपी के बहुत खराब प्रदर्शन और मोदी की चौतरफा हार की शुरुआत के तौर पर पेश किया गया.

अब वास्तविक हालात पर नजर डालिए. कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद संभाले पांच दिन गुजर चुके हैं, लेकिन वह अभी तक अपनी सरकार नहीं बना सके हैं. सबसे पहले कांग्रेस के डीके शिवकुमार और परमेश्वर ने कुछ टिप्पणियां कीं, जिनसे कुमारस्वामी के नेतृत्व और गठबंधन सरकार चलने को लेकर निश्चित रूप से कुछ संदेह पैदा हुआ, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक टिप्पणी कुमारस्वामी की थी कि वह कांग्रेस की दया पर हैं, ना कि राज्य के 6.5 करोड़ लोगों की दया पर. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि चुनाव में लोगों ने उन्हें और उनकी पार्टी को खारिज कर दिया था.

कुमारस्वामी ने कहा, 'राज्य के लोगों ने मुझे और मेरी पार्टी को खारिज कर दिया. मैंने पूर्ण बहुमत मांगा था. मैंने किसान नेताओं का बयान सुना और यह भी सुना कि उन्होंने मुझे कितना समर्थन दिया…मेरी स्वतंत्र सरकार नहीं है. मैंने लोगों से ऐसा जनादेश मांगा था, जिससे कि मुझे आपके अलावा किसी और के दबाव में झुकना ना पड़े. लेकिन आज मैं कांग्रेस की दया पर हूं. मैं राज्य के 6.5 करोड़ लोगों के दबाव में नहीं हूं.'

उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्हें, कुछ भी करने से पहले 'कांग्रेस से इजाजत लेनी होती है.' मुझे नहीं याद पड़ता कि सत्ता में होकर भी (भले ही वह वास्तव में कठपुतली ही रहा हो) किसी नेता ने इस तरह खुलेआम ऐलान किया होगा कि वह एक कठपुतली मात्र है और उसे किसी अन्य द्वारा रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित किया जा रहा है.

अब राहुल गांधी फिर बाहर जा रहे हैं

यह ड्रामा चल ही रहा था कि राहुल गांधी ने ट्विटर पर ऐलान कर दिया कि वह अपनी मां सोनिया गांधी की अघोषित बीमारी के सालाना चेकअप के लिए विदेश में एक अघोषित स्थान पर जा रहे हैं.

बीजेपी ने भी जवाब देने में देरी नहीं लगाई.

अब हर कोई अंदाजा लगाता रहे कि राहुल की गैरमौजूदगी में कुमारस्वामी या फिर किसी अन्य भावी सहयोगी के साथ गठबंधन की व्यवस्थाओं पर अंतिम फैसला कौन लेगा.

बीते बुधवार की विपक्षी एकता का सबसे चर्चित हिस्सा वह फोटो था, जिसमें मायावती व सोनिया गांधी और मायावती व अखिलेश के बीच गहरी मित्रता दिख रही है. लेकिन शनिवार तक मायावती ने, जिनकी पार्टी का लोकसभा में एक भी सदस्य नहीं है और 403 सदस्यों वाली यूपी विधानसभा में सिर्फ 19 एमएलए हैं, एसपी और कांग्रेस के सामने मोलभाव की शर्तें रख दीं.

बीएसपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने साफ कर दिया कि वह अन्य दलों (कांग्रेस-एसपी) के साथ सिर्फ तभी गठबंधन करेंगी जब उन्हें सम्मानजनक संख्या में सीटें दी जाएंगी, वर्ना वह लोकसभा चुनाव अकेले ही लड़ेंगी. उनके समर्थक निजी बातचीत में यहां तक दावा कर रहे हैं कि विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री पद (अगर हालात बनते हैं तो) के लिए सिर्फ बहनजी ही असली दावेदार हैं.