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विधानसभा चुनाव नतीजे 2018: BJP ने सरेंडर नहीं किया लेकिन गलतियों से सीखा भी नहीं

कांग्रेस के धैर्य और आक्रमकता से सबक सीखते हुए बीजेपी इन राज्यों में साल 2019 की रणनीति पर जोर दे क्योंकि इन विधानसभा चुनावों में उसका मुकाबला कांग्रेस से नहीं बल्कि जनता से था.

Kinshuk Praval

साल 2014 में मोदी लहर के वक्त मिली तूफानी जीत के बाद पहली बार बीजेपी को इतना बड़ा झटका लगा है. हाथ के पंजे ने राजनीति का ऐसा दांव चला कि महारानी का सिंहासन डोल गया तो शिवराज का राजपाट छिन गया. इन सबके बीच छत्तीसगढ़ की जनता ने जोगी की ‘माया’ से बचते हुए कांग्रेस का हाथ थाम लिया. डॉक्टर रमन सिंह के काम योगी का आशीर्वाद नहीं आया.

चुनावी नतीजों को बदलती राजनीति का संकेत नहीं माना जाना चाहिए. वोटरों ने उसी परंपरा को निभाया जो पहले से चली आ रही है. अगर शासन-प्रशासन में कोई खोट नहीं और योजनाओं का ईमानदारी से क्रियान्वयन रहा है तो जनता पांच-पांच साल के तीन-तीन कार्यकाल भी दे देती है और अगर जनता में असंतोष उपजता है तो फिर चाहे वो पंद्रह साल हो या फिर पांच साल, तवे पर चढ़ी रोटी को बदल दिया जाता है.


अब वक्त कांग्रेस के जश्न का, जो कि जोश से लबरेज है तो बीजेपी के लिए हार पर गहरे मंथन का है क्योंकि साल 2019 के लोकसभा चुनाव को हिंदी पट्टी से तीन राज्य कांग्रेस के हाथ में जा फंसे हैं. बीजेपी का ये गुमान टूट गया कि वो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अजेय और अपराजित है.

पंद्रह साल के शासन में किसी भी देश और किसी भी राज्य में सत्ता विरोधी लहर का पैदा होना स्वाभाविक है. कांग्रेस को उसी सत्ता विरोधी लहर में अपनी संभावना तो बीजेपी को हार की आशंका दिख रही थी. जहां कांग्रेस पूरा चुनाव एकजुट हो कर पारंपरिक तरीके से लड़ी तो वहीं बीजेपी अपने राज्यों में उठे असंतोष की पूरी तरह भरपाई नहीं कर सकी.

हालांकि खतरे की घंटी उपचुनावों से ही बज गई थी लेकिन बीजेपी उपचुनावों के नतीजों को लेकर चिंतित नहीं थी. शायद इसकी वजह अतिआत्मविश्वास ही माना जाएगा. बीजेपी को ये भ्रम था कि जनता उससे कितना भी नाराज क्यों न हो लेकिन उस गुस्से में कांग्रेस का हाथ नहीं थामेगी. शायद बीजेपी इस आत्मुग्धता का शिकार हो गई कि जनता के पास बीजेपी का विकल्प नहीं है.

अगर बीजेपी ने सत्ता विरोधी लहर की वजहों को दूर करने की ईमानदार कोशिश की होती तो शायद नतीजे ऐसे भी न होते. जो नतीजे भले ही कांग्रेस को विजेता दिखा रहे हैं लेकिन बीजेपी को भी आखिरी दम तक बराबरी से मुकाबला करते भी दिखा रहे हैं.

अतिआत्मविश्वास के बावजूद बीजेपी को हराने में कांग्रेस का दम जरूर फूला. राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. साल 2013 में जब गहलोत सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर चली तो बीजेपी को 165 और कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं. लेकिन साल 2018 में कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर के बावजूद बीजेपी को ऐसी शिकस्त नहीं दे सकी. बीजेपी ने राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत का आंकड़ा छूने के लिए दिनभर तरसाया. राजस्थान में बहुमत के लिए जरूरी 100 के जादुई आंकड़े से कभी कांग्रेस थोड़ी ऊपर तो कभी पीछे चलती रही. बीजेपी जबकि 70 से ज्यादा सीटों पर बढ़त बना कर चलती रही. एक बार तो ये बीजेपी की ये बढ़त 85 के पार भी पहुंची थी. यानी साफ है कि राजस्थान के रण में बीजेपी ने पांच साल होने के बावजूद आसानी से रणक्षेत्र नहीं छोड़ा.

इसी तरह मध्यप्रदेश में तमाम रूझान हर मिनट पलटते रहे. कभी बीजेपी की सरकार बनती दिखी तो कभी कांग्रेस की. कभी बीजेपी बहुमत के आंकड़ो के छूती नज़र आई तो कभी कांग्रेस. दोनों को बीच सत्ता के बहुमत को लेकर जोर-आजमाइश चलती रही और बहुमत दिनभर आंख-मिचौली करता रहा.

नतीजों से ये साफ होता है कि मध्यप्रदेश में शिवराज को हराने में सिर्फ कांग्रेस के युवराज का कमाल नहीं है. अगर ऐसा होता तो चुनावी नतीजे इतने सस्पेंस, एक्शन और थ्रिल से भरे नहीं होते. एमपी ने दिखा दिया कि वो वाकई गजब है. कहीं जनता में नाराजगी थी तो कहीं जनता ये नहीं चाहती थी कि बीजेपी की सरकार सत्ता से हटे. इसकी वजह साफ है कि बीजेपी ने मध्यप्रदेश को बीमारू राज्य से निकाल कर विकसित राज्य बनाया और इस बार सत्ता में आने पर समृद्ध बनाने का वादा किया था. बीमारू राज्य राजस्थान भी था जिसे बीजेपी ने विकसित बनाने का दावा किया. इसके बावजूद राजस्थान में सत्ता में बीजेपी दोबारा नहीं आ सकी. लेकिन राजस्थान में भी बीजेपी ने सत्ता विरोधी लहर के बावजूद कांग्रेस को जमकर टक्कर दी.

लेकिन छत्तीसगढ़ ने बीजेपी को सबसे बड़ा झटका दिया. छत्तीसगढ़ में डॉ रमन सिंह की सरकार को लेकर छवि खराब नहीं थी. विकास की तमाम योजनाओं की वजह से रमन सिंह निर्विवाद रूप से राज्य में एकमात्र बड़ा सियासी चेहरा थे. जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पास कोई चेहरा नहीं था तो वहीं अजित जोगी और मायावती के गठबंधन से भी ऐसा अंदेशा नहीं था कि सरकार ही चली जाएगी. इसके बावजूद जो हालत हुई उसे देखकर लगता है जैसे कि कांग्रेस ने पंद्रह साल का हिसाब एक बार में पूरा कर दिया.

अब तीन राज्यों की हार को साल 2019 से जोड़ कर देखा जाएगा. तो वहीं बीजेपी के मुख्यमंत्री इसे राज्य सरकार की हार बताकर केंद्र को विरोधी दलों के हमले से बचाने की कोशिश करेंगे. बेहतर है कि कांग्रेस के धैर्य और आक्रामकता से सबक सीखते हुए बीजेपी इन राज्यों में साल 2019 की रणनीति पर जोर दे क्योंकि इन विधानसभा चुनावों में उसका मुकाबला कांग्रेस से नहीं बल्कि जनता से था.