view all

उत्तराखंड चुनाव 2017: अनिल बलूनी, जिनके सिर पर सज सकता है ताज

बलूनी को बीजेपी के अलावा संघ के साथ भी काम करने का अच्छा अनुभव है

Rakesh Bedi

उत्तराखंड में बहुत से लोगों का कहना है कि अनिल बलूनी के सिर पर ताज सज सकता है और वह इसके लिए माकूल भी दिखते हैं. अनिल बलूनी का सियासी करियर कोई बहुत शानदार नहीं रहा है. वह ऐसे नेता नहीं हैं कि कहीं जाएं और बस छा जाएं. उनकी सियासी शख्सियत में ऐसा कोई तेज नहीं कि दूसरे नेताओं को उनसे रश्क होने लगे.

उनकी रगों में किसी बड़े नेता का खून नहीं, जैसा कि आज के बहुत से युवा नेता वंशवाद के सहारे सियासत की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि उनकी मां या पिता ने उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ सियासत की सख्त और रपटीली राहों पर धकेला हो.


अनिल बलूनी के पास लच्छेदार बातें बनाने का हुनर भी नहीं है, जो आम तौर पर गांव-देहात से उभरे नेताओं के पास होता है. भारतीय राजनीति में तो लंबी-लंबी छोड़ना और जरा-जरा सी बात पर चुटकुले मारना किसी नेता के लिए बड़ी खूबी समझी जाती है. इन चुटकुलों में किसी की बुराई, चुगली, निंदा या कोई अश्लील टिप्पणी, कुछ भी शामिल हो सकता है. हमारी राजनीति में मुंहफट होना कोई पाप नहीं है.

पूर्व से पश्चिम का मैराथन

अनिल बलूनी शांत हैं, विचारों में मग्न रहते हैं. वह हर शब्द को नाप-तौल कर बोलने वाले आदमी हैं, चाहे सार्वजनिक तौर पर बोलना हो या निजी रूप से.

दिखावा करना या फिर लंबी-चौड़ी बयानबाजी उनकी फितरत नहीं है. अपने सहयोगियों से बात करते हुए भी वह अपने शब्दों को ऐसे मापते हैं जैसे कोई नाश्ता करते हुए कैलोरी गिन रहा हो. वजन ज्यादा न बढ़ जाए, इसके लिए वह सुबह-सुबह और रात को टहलते हैं. लेकिन उस दौरान भी आप उनके मुंह से कोई भारी-भरकम या लंबी-चौड़ी बातें नहीं सुन पाएंगे.

अनिल बलूनी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के करीब माने जाते हैं.

बलूनी को टहलना बहुत पसंद है. असल में अपनी जवानी के दिनों में वह टहलते ही तो रहे हैं. कॉलेज से टहलते-टहलते पत्रकारिता में आ गए और पत्रकारिता से टहलते हुए राजनीति में जा पहुंचे, वह भी सिर्फ 26 साल की उम्र में. अब वह 44 साल के हैं और उन्होंने राजनीति में लंबा सफर तय किया है. वर्षों के हिसाब से नहीं, बल्कि दूरी के हिसाब से, जिसमें भारत का एक बड़ा हिस्सा शामिल है. दूरी को देखें तो उन्होंने मैराथन किया है.

पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान वह छात्र राजनीति में सक्रिय थे और दिल्ली में संघ परिवार के दफ्तरों के आसपास घूमते-रहते थे. वहीं संघ के जाने-माने नेता सुंदर सिंह भंडारी उन्हें पसंद करने लगे. जब सुंदर सिंह भंडारी को बिहार का राज्यपाल बनाया गया तो वह बलूनी को अपना ओएसडी (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) बनाकर अपने साथ पटना ले गए. यह वह दौर था जब लालू के कुख्यात गुंडाराज का शोर था.

बिहार के बाद वह गांधीनगर जा पहुंचे, भंडारी के पीछे-पीछे ही, जिन्हें गुजरात का राज्यपाल बनाया गया था. इसके दो साल बाद बतौर सीएम गुजरात में नरेंद्र मोदी का दौर शुरू हुआ. बलूनी कभी भंडारी के काम से तो कभी संघ के काम से, साबरमती शहर की सड़कों पर खूब घूमे. इतना कि उनका मन उचटने लगा और 2002 में वह देहरादून लौट गए. यानि उत्तराखंड राज्य बनने के दो साल बाद.

पहला झटका

पूर्व से पश्चिम और पश्चिम से उत्तर के सफर की थकान से बेपरवाह बलूनी चुनाव मैदान में जा कूदे. उस वक्त उनकी उम्र केवल 26 साल थी और उन्होंने उत्तराखंड की कोटद्वार सीट से चुनाव लड़ने के लिए पर्चा दाखिल कर दिया.

बलूनी गढ़वाल के पौड़ी जिले हैं और वहां से कोटद्वार पहुंचने में छह घंटे लगते हैं और सफर इतना मुश्किल कि आपकी कमर तौबा कर ले. उत्तराखंड के ज्यादातर नेताओं का संबंध गढ़वाल से ही है, भले वे बीजेपी के हों या फिर कांग्रेस के. पौड़ी का कुमायूंनी प्रतिद्वंद्वी है अल्मोड़ा, जो वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत का गृह नगर है.

चुनावी राजनीति में पहले कदम पर ही किस्मत ने बलूनी का साथ नहीं दिया और उनका नामांकन अवैध घोषित कर दिया गया. एक अजीब से आदेश के कारण उन्हें चुनावी अखाड़े से बाहर हो जाना पड़ा. बलूनी को धक्का तो बहुत लगा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

कहा जाता है कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बीसी खंडूरी ने बलूनी को विधायक बनने नहीं दिया.

कुछ लोगों का कहना है कि यह बीसी खंडूरी की साजिश थी जो अपने किसी आदमी को वहां से लड़ाना चाह रहे थे. उस वक्त उत्तराखंड में खंडूरी की तूती बोलती थी और वही मुख्यमंत्री थे. वहीं कुछ लोगों का कहना है कि भारतीय सियासत में इस तरह के दाव-पेंच नई बात नहीं है. लेकिन बलूनी ने इस तिरस्कार को भुला दिया और आगे बढ़ गए.

बलूनी गिले शिकवों को दिल से लगाए रखने वाले इंसान नहीं हैं और अगर लगाते भी हैं तो उन्हें सार्वजिक तौर पर कभी जाहिर नहीं होने देते.

आम तौर पर राजनेताओं को झटकों से उबरना अच्छी तरह आता है और उन्हें पता है कि चित्त कर देने वाले दांव से कैसे बचना है. जो जितने मुक्के खाता है, सियायत के लिए वह उतना दमदार बनता चला जाता है. बलूनी को भी अपने जीवन में जितनी शिकस्त मिलीं, उनकी राजनीतिक बुद्धि भी शायद उतनी ही तेज होती चली गई.

नामांकन अवैध घोषित होने पर वह इस मामले को अदालत में ले गए. यहां तक कि फॉरेंसिक लैब में भी ले गए और उन्होंने अपने ऊपर लगे दाग को साफ किया. अब इतने साल बाद वह मुस्कराते हुए कहते हैं कि राजनीति में बहुत से तिरस्कारों को अनदेखा करना पड़ता है. बहुत सी लड़ाइयों को भूलना पड़ता है. हालात का सामना करो और आगे बढ़ जाओ.

अपमानों को सीने के अंदर दबाकर रखना पड़ता है ताकि वे अंदर की गर्मी को बनाए रखें और पार्टी के भीतर और बाहर, दोनों जगह विरोधियों से निपटने के लिए आपकी राजनीतिक बुद्धि को तराशते रहें.

अनिल बलूनी शांत और गंभीर छवि वाले नेता हैं  (फोटो: फेसबुक से साभार)

राजनीतिक महत्वाकांक्षा

बलूनी के छरछरे शरीर पर अब हल्की सी तोंद उभर आई है, इसे लेकर वह जरा से शर्मिंदा भी हैं. अपना वजन घटाने के लिए वह टहलते हैं. उनकी सियासी चहलकदमी बढ़ने वाली है.

कैलोरी घटाने के लिए शाम को टहलते हैं. उन्होंने खाने में कैलोरी की मात्रा घटा दी है और चलने की रफ्तार बढ़ा दी है. देर रात खाना खाने के बाद अपने सहयोगियों के साथ या फिर अकेले भी वो उस होटल के चारों तरफ चक्कर लगाते हैं जिसमें वह ठहरे होते हैं. मुस्कराते हुए वह कहते हैं कि सियासी चहलकदमी से यह चहलकदमी आसान है.

राजनीति एक बियाबान है. लेकिन यहां बलूनी जैसे लोग भी हैं जो इसके रास्तों को बखूबी जानते हैं. खंडूरी ने जहां उन्हें हाशिए पर रखा, वहीं उनके बाद मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक ने बलूनी को वन और पर्यावरण कार्य बल का प्रभारी बना दिया. यहां बलूनी ने कमाल का काम किया और मीडिया में उनकी तारीफ होने लगी.

भारत के पर्यावरणविदों की नजर में भी अनिल बलूनी चढ़ने लगे. गढ़वाल और कुमाऊं के जंगलों ने उन्हें सुर्खियों में ला दिया और तभी से वह वहीं डटे हैं.

बहुत से पहाड़ी नेताओं से अलग, बलूनी के चेहरे पर झुर्रियां नजर नहीं आतीं. उनके सिर पर घने बाल हैं और 40 को पार करने के बावजूद एक भी सफेद बाल नहीं दिखाई देता. राजनीति में वह युवा हैं. वरिष्ठ राजनेता उन्हें कुछ साल और इंतजार करने की सलाह देते हैं कि कुछ दिन और घूमो-फिरो, तब जाकर कहीं अपनी महत्वाकांक्षाओं को पंख फैलाने देना.

नरेंद्र मोदी-अमित शाह के करीबी

बलूनी ने उत्तराखंड के जंगलों में सियासत के गुर सीखे हैं. वह अच्छी तरह जानते हैं कि अपने शिकार तक कैसे पहुंचना है. यह शिकार कुछ भी हो सकता है: कोई राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, कोई पार्टी के भीतर खेल बिगाड़ने वाला या फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी. इस बारे में वह खुल कर बात भी नहीं करेंगे. उनके नपे-तुले शब्द आपको कभी पता ही नहीं लगने देंगे कि सियासत के लिए धड़कने वाले उनके दिल में क्या छिपा है.

बलूनी सालों तक भाजपा और संघ नेताओं के साथ भटकने के बाद अपने गृह राज्य पहुंचे हैं.

उत्तराखंड में सार्वजनिक और निजी तौर पर बहुत से लोगों का कहना है कि बलूनी के सिर पर ताज सज सकता है. उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्रियों ने बिना चुनाव लड़े मुख्यमंत्री का ताज पहना है. इसलिए इस बार बलूनी का चुनाव न लड़ना भी उनके हक में बताया जा रहा है. सब चीजें बलूनी के हक में दिखाई देती हैं.

बलूनी ने संघ के कार्यालयों में बहुत समय बिताया है. वह युवा हैं और राजनीतिक रूप से सौम्य भी. सबसे अहम बात, हर कोई जानता है कि वह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के करीबी हैं.

अब 11 मार्च के दिन आने वाले नतीजे ही बताएंगे कि पहाड़ में किसकी तूती बोलेगी. लेकिन कम से कम देहरादून में गूंजने वाली आवाजें तो बलूनी के हक में ही सुनाई दे रही हैं.