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मणिपुर चुनाव: यूएनसी पर बैन की मांग से चक्कर में फंसी बीजेपी

बीजेपी को डर है कि मणिपुर चुनाव में उसके हाथ से मेतेई वोटर छिटक सकते हैं

Kangkan Acharyya

प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को लिखे एक पत्र में मणिपुर के कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) ने मांग की है कि यूनाइटेड नागा काउंसिल (यूएनसी) पर बैन लगा दिया जाए. सीएलपी ने यूएनसी के आर्थिक पाबंदी जारी रखने के चलते यह मांग की है. सीएलपी की इस मांग से केंद्र की एनडीए सरकार मुश्किल में फंस गई है.

यह मांग ऐसे वक्त पर उठी है जब राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. अगर यह मांग मान ली जाती है तो बीजेपी को नागा इलाकों में हाल में मिलना शुरू हुए समर्थन से हाथ धोना पड़ सकता है. साथ ही इससे मेतेई वोटरों का भरोसा और कमजोर पड़ सकता है.


क्या है मांग ?

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक, मणिपुर में सीएलपी ने शनिवार को एक मीटिंग में फैसला किया कि वे प्रधानमंत्री से यूएनसी को अवैध घोषित करने की मांग करेंगे.

पीएमओ को भेजे गए पत्र की एक कॉपी फ़र्स्टपोस्ट के पास भी है. इसमें कहा गया है कि यूएनसी अवैध रूप से राज्य में पिछले तीन महीने से आर्थिक पाबंदी लागू किए हुए है, जिससे राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द पर बुरा असर पड़ा है.  इसके चलते मणिपुर के लोगों को बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में कांग्रेस की डिमांड है कि इसे अवैध संगठन घोषित कर दिया जाए.

मणिपुर में पिछले साल नवंबर से यूनाइटेड नागा काउंसिल ने आर्थिक प्रतिबंध लगा रखा है (फोटो: पीटीआई)

अगर संगठन पर बैन लगता है तो इससे राजनीति पर क्या असर होगा? पिछले साल 1 नवंबर को आर्थिक पाबंदियां लगने से पहले तक बीजेपी के लिए इन इलाकों में सपोर्ट धीरे-धीरे बढ़ रहा था.

माना जा रहा है कि बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार को इस पाबंदी के चलते नुकसान हो सकता है.

चूंकि, मेतेई मैदानी इलाकों में हैं, जिन्हें बीजेपी का कोर वोटर माना जाता है. ऐसे में इस पाबंदी से सबसे बुरा असर इन्हीं पर पड़ा है. उम्मीद की जा रही थी कि एनडीए सरकार इन्हें मुश्किलों से निजात दिलाने के लिए तत्काल कदम उठाएगी. इसके उलट, केंद्र ने इससे निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों को भेजने में देरी की.

मणिपुर के एक बुद्धिजीवी प्रदीप पहांजोबाम ने इंडियन एक्सप्रेस में केंद्र सरकार की इस देरी के बारे में लिखा है. उन्होंने कहा है, ‘यह काम कम से कम एक महीने पहले किया जाना चाहिए था. यूएनसी ने दो नए प्रशासनिक जिलों को बनाने की आशंका में राज्य पर आर्थिक बैन लगा दिया है. इससे जिन पर बुरा असर पड़ा है उन्होंने अब अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी है’.

राज्य की सत्ताधारी कांग्रेस केंद्र की इस नाकामी को भुनाना चाहती है. उसे लग रहा है कि वह मेतेई वोटरों का समर्थन हासिल कर सकती है. कांग्रेस यह तर्क आगे बढ़ा रही है कि यह नाकामी जानबूझकर की गई है और केंद्र इस मामले में यूएनसी के साथ है.

मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम ईबोबी सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि, ‘चूंकि केंद्र सरकार की एनएससीएन (आईएम) के साथ शांति वार्ता चल रही है. ऐसे में वे आसानी से यूएनसी पर इस आर्थिक प्रतिबंध को खत्म करने के लिए दवाब बना सकते थे. इस प्रतिबंध की वजह से राज्य को भारी मुश्किलों से गुजरना पड़ रहा है’.

यूएनसी पर बैन लगाने के लिए लिखा गया पत्र बीजेपी पर एक राजनीतिक दवाब बनाने की मुहिम के तौर देखा जा रहा है. अगर यह मांग नहीं मानी जाती है तो राज्य में यह संदेश जा सकता है कि बीजेपी यूएनसी के साथ खड़ी है. इससे बीजेपी का कोर वोटर पार्टी का साथ छोड़ सकता है.

पहाड़ों पर असर

हालांकि, जातीय तनाव की वजह से बीजेपी का मेतेई बहुलता वाले मैदानी इलाकों में समर्थन घटा है, लेकिन मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में नागा भावनाएं बीजेपी या इसके एनडीए में सहयोगी नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के साथ हैं.

हाल के वक्त में, नागा दबदबे वाले इलाकों में कई कांग्रेस नेता बीजेपी में शामिल हुए हैं. इससे आने वाले चुनावों में बीजेपी के लिए उम्मीदें बढ़ गई हैं.

जेएनयू में टीचर बिमल अकोईजाम ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, ‘अगर बीजेपी मैदानी इलाकों में 22 सीटें अपने बूते जीत जाती है तो यह मणिपुर में एनपीएफ के साथ चुनाव बाद गठबंधन से सरकार बना सकती है. एनपीएफ को पहले के चुनावों के मुकाबले इस बार ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद है’.

आर्थिक प्रतिबंध ने मणिपुर समेत पूर्वोत्तर के राज्यों में मुश्किल हालात पैदा कर दी है (फोटो: पीटीआई)

उन्होंने यह भी कहा कि राज्य में आदिवासियों के लिए सुरक्षित 19 सीटों में से करीब 12 सीटों पर बड़ी तादाद में नागा वोटर्स हैं. ये वोटर उम्मीदवारों की जीत में अहम भूमिका निभाएंगे.

पिछले असेंबली इलेक्शन में एनपीएफ ने 11 उम्मीदवार उतारे थे और इनमें से केवल चार ही जीत पाए थे. लेकिन, हालिया जातीय तनाव के चलते नागा राष्ट्रीयता की भावना मजबूत हुई है. ऐसे में क्षेत्रीय पार्टी एनपीएफ को फायदा होता दिख रहा है. यह पार्टी राज्य में नागा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स कर रही है.

राजनीतिक माहौल में हुए बदलाव को देखते हुए एनपीएफ ने इस बार अपने 15 कैंडिडेट्स चुनावी मैदान में उतारे हैं.

सीएलपी की यूएनसी को बैन करने की मांग मानना न सिर्फ बीजेपी की नागा दबदबे वाले इलाकों में पार्टी के सपोर्ट को कम करेगा, बल्कि इससे पार्टी के एनपीएफ के साथ रिश्ते भी खतरे में पड़ जाएंगे.

जातीय तनाव से पहले का राजनीतिक समीकरण

मणिपुर बीजेपी के लिए अच्छे दिनों की शुरुआत पिछले साल असम विधानसभा चुनाव के नतीजों के साथ ही हुई है.

उस वक्त के मणिपुर के अध्यक्ष भाबनंदा सिंह ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, ‘मणिपुर में राजनीतिक हालात कुछ हद तक असम जैसे ही हैं. असम में जिस तरह से बड़ी तादाद में हिंदू आबादी है, उसी तरह से मणिपुर में मेतेई आबादी है, जो कि ज्यादातर हिंदू हैं’.

उन्होंने यह भी कहा कि पहाड़ों पर रहने वाले नागा और कुकी ज्यादातर ईसाई हैं. हिंदुत्व एजेंडे वाली पार्टी के दौर पर मानी जाने वाली बीजेपी का फोकस मेतेई हिंदू प्रभाव वाले मैदानों में 27 सीटें जीतने पर था और चुनाव बाद गठबंधन के जरिए यह आंकड़ा 31 पर पहुंचाने का था, जो कि बहुमत का आंकड़ा है. राज्य में विधानसभा की 60 सीटें हैं.

जातीय तनाव से मेतेई प्रभाव वाले इलाकों में बीजेपी की संभावनाओं को चोट लग सकती है. अब नागा बहुल इलाकों में एनपीएफ और खुद को मिलने वाले ध्रुवीकरण के फायदे पर ही बीजेपी उम्मीद लगा सकती है.

यह देखना होगा कि क्या बीजेपी को यूएनसी पर बैन लगाने से कोई फायदा होगा.