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जन्मदिन विशेष राजीव गांधी: क्या राहुल गांधी की अपने पिता से तुलना हो सकती है?

राजीव गांधी और राहुल गांधी लगभग एक ही तरह के हालात में राजनीति में आए फिर भी दोनों की कहानियां अलग-अलग हैं

Rakesh Kayasth

राजनीति के आकाश पर एक सितारा बड़ी तेजी से चमका. लेकिन कुछ समय बाद वो बादलों में घिर गया. अंधियारे से निकलकर वो दोबारा चमकने को ही था कि अचानक बुझ गया. वाकई किसी ग्रीक ट्रेजेडी के महानायक जैसे थे राजीव गांधी. 47 साल के सफर में राजनीतिक जीवन 10 साल का रहा, जिसमें 5 साल वो देश के प्रधानमंत्री रहे. भारत क्या विश्व राजनीति में ऐसे किरदार आसानी से नहीं मिलेंगे जिनकी जिंदगी राजीव गांधी सरीखी हो.

राजीव के पूरे राजनीतिक जीवन को हम बिना किसी खास जटिलता के समझ सकते हैं. छोटे भाई संजय गांधी के असामयिक निधन के बाद राजीव 1981 में पत्नी सोनिया गांधी के मना करने के बावजूद राजनीति में आए. हालात कुछ ऐसे बने कि 1984 में वो प्रधानमंत्री बन गए. उसके बाद हुए चुनाव में `सहानुभूति लहर’ की बदौलत राजीव की कांग्रेस पार्टी को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं जो आज भी एक रिकॉर्ड है.


राजीव गांधी वो प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने 21वीं सदी का सपना देश के सामने रखा था. टेलीकॉम और आईटी क्रांति की शुरुआत उनके जमाने में हुई. स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने वाली पंचायती राज व्यवस्था पर काम शुरू हुआ. पंजाब और असम जैसी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए समझौते हुए. कुल मिलाकर वो भारतीय राजनीति में एक नई ऊर्जा का दौर था. लेकिन बोफोर्स रक्षा सौदे से उठे विवाद ने लोकप्रियता पर ऐसा ग्रहण लगाया कि उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा.

इसके अलावा राजनीतिक अदूरदर्शिता की 2 ऐसी बड़ी मिसालें भी राजीव गांधी ने रखीं, जिनका असर आज तक भारतीय राजनीति पर है.

मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए उन्होंने शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संविधान संशोधन के जरिए बदलवा दिया. ऐसी ही गलती उन्होंने हिंदुओ को खुश करने के लिए राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर की. हालांकि राजनीति के कई जानकारों का कहना है कि इस तरह के फैसलों के लिए राजीव गांधी को ज्यादा दोष देना ठीक नहीं है. वो पॉलिटिक्स में नए थे और लगातार सीखने की कोशिश कर रहे थे.

80 के दशक में राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तब देश में टेलीकॉम और आईटी क्रांति की शुरुआत हुई थी

अगर सत्ता में उनकी वापसी होती तो निश्चय ही वो एक परिपक्व राजनेता के रूप में उभरते. लेकिन तकदीर ने उन्हें यह मौका नहीं दिया. राजीव गांधी की विदाई के बाद राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस के विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई जो अब तक थमी नहीं है. राजीव के निधन को ढाई दशक बीत चुके हैं. यह दौर एक और गांधी का है. राजीव के बेटे राहुल गांधी भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय लिखने की कोशिशों में जुटे हैं. ऐसे में पिता और पुत्र के बीच तुलना लाजिमी है.

आवाम से जुड़ा शालीन व्यक्तित्व

राजीव गांधी शालीन स्वभाव के मालिक थे. वो धीरे-धीरे आराम से बात करते थे. विरोधियों का सम्मान करते थे. घर से प्रधानमंत्री कार्यालय तक जाने के लिए अपनी गाड़ी खुद ड्राइव करते थे. कई राजनीतिक टीकाकारों ने लिखा है कि चुनाव हारने के बाद सरकारी आवास खाली करते वक्त अपना सामान तक उन्होंने खुद अपने हाथों से पैक किया था. उनका गरिमापूर्ण विदाई भाषण अब भी पुराने लोगों को याद है.

इस मामले में राहुल की तुलना एक हद तक अपने पिता से की जा सकती है. वो भी कभी अभद्र भाषा का इस्तेमाल नहीं करते हैं. विरोधियों के प्रति सम्मान दर्शाते हैं. लेकिन व्यक्तित्वों का अंतर यहां दिखाई देता है. 40 साल में प्रधानमंत्री बनने वाले राजीव गांधी की बॉडी लैंग्वेज राहुल के मुकाबले गंभीर थी. राजीव गांधी को कोई बच्चा पॉलीटिशियन नहीं कह पाता था, जबकि राहुल गांधी पर चिपकाया गया `पप्पू‘ टैग अब भी चस्पा है.

इसके बावजूद आम आदमी से सीधा संवाद कायम करने के मामले में राहुल अपने पिता के नक्श-ए-कदम पर चल रहे हैं. राजीव गांधी अक्सर भीड़ से हाथ मिलाने के लिए अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकल आते थे. किसी भी गांव में जाकर किसानों से मिलना, बातें करना, उनके घर का बना कुछ भी खा लेना, यह सब राजीव की लोक संपर्क शैली का हिस्सा थे. राहुल भी यही सब करते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. दूसरी तरफ राहुल गांधी सर्व स्वीकार्य नेता की छवि बनाने के लिए जूझ रहे हैं और उनका सामना नरेंद्र मोदी जैसे एक ऐसे पॉलीटिशियन से है, जिसका भीड़ बटोरने में कोई सानी नहीं है.

भाषण के जरिए देश की जनता से संवाद करने के मामले में नरेंद्र मोदी राहुल गांधी पर भारी पड़ते हैं

एक जैसी कमजोर भाषण शैली

वक्ता के रूप में राजीव गांधी जितने औसत थे, वैसे ही राहुल भी हैं. राजीव एक ऐसे दौर के नेता थे, जहां लोक संवाद का स्तर ऊंचा था. अपने पूर्ववर्तियों इंदिरा गांधी और पंडित नेहरू के मुकाबले राजीव काफी कमजोर वक्ता थे. इतना ही नहीं समकालीन राजनीति में भी उनका सामना अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीज और चंद्रशेखर जैसे कई दिग्गजों से था. राजीव भी अपने भाषणों के लिए मणिशंकर अय्यर जैसे अलग-अलग स्पीच राइटर्स की मदद लेते थे. यही वजह थी कि उनकी संवाद शैली में एकरूपता नहीं थी. अमेरिका को धमकी देने वाला `नानी याद दिला देंगे’ भाषण भला कौन भूल सकता है. `हम देखेंगे’ और `हमने करी है’ दो ऐसे ताकिया कलाम थे, जिनका उस दौर में काफी मजाक उड़ता था. इसके बावजूद अगर तुलना की जाए तो राजीव गांधी की हिंदी राहुल गांधी के मुकाबले कहीं बेहतर थी.

राहुल उस दौर के नेता हैं, जहां लोक संवाद का स्तर बहुत अच्छा नही है. भाषण से वोटरों का दिल जीतने वाले एकमात्र बड़े नेता नरेंद्र मोदी हैं. राहुल की सीधी तुलना नाटकीय उतार-चढ़ाव वाली भाषण शैली के धनी मोदी से की जाती है. राहुल पर बहुत समय तक रटा-रटाया भाषण देने का इल्जाम लगता रहा है. पिछले एक साल से राहुल की लोक संवाद शैली में काफी सुधार आया है. वो आवाम से ज्यादा बेहतर तरीके से कनेक्ट कर पा रहे हैं. इसके बावजूद भाषणों के मामले में राहुल मोदी से काफी पीछे हैं, हां अपने पिता से उनकी तुलना जरूर की जा सकती है.

एक और तथ्य है, जहां राहुल अपने पिता के करीब लगते हैं. राजीव गांधी अपनी लोकप्रियता को संभाल नहीं पाए थे. राहुल गांधी के साथ भी यही हुआ. राजीव आए ही थे लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर. दूसरी तरफ राहुल गांधी की लोकप्रियता का चरम राजनीति में कदम रखने के करीब 6 साल बाद यानी 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आया. लेकिन उसके बाद से राहुल लगातार फिसलते चले गए.

यह सिलसिला 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद शुरू हुआ. उसके बाद उनकी छवि एक ऐसे राजनेता की बनी जो अपनी राजनीति को लेकर गंभीर नहीं है. वो रहस्यमय तरीके से छुट्टी पर चला जाता है और लाख कोशिशों के बावजूद अपनी पार्टी को चुनाव नहीं जिता पाता है. हाल के बरसों में राहुल ने इस छवि को बदलने की भरपूर कोशिश की है लेकिन उन्हें कामयाबी अभी तक मिली नहीं है.

सोनिया गांधी से कांग्रेस की बागडोर लेने के बाद राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी में परिवर्तन लाने के लिए प्रयासरत हैं

सत्ता का संयोग और सत्ता के लिए संघर्ष

राजीव गांधी और राहुल गांधी में सबसे बड़ा बुनियादी अंतर परिस्थितियों का है. पिता के साथ सत्ता का संयोग जुड़ा तो पुत्र लगातार सत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. यह कहना चाहिए कि राहुल पर हालात उस तरह मेहरबान नहीं रहे जिस तरह उनके पिता पर रहे थे. बोफोर्स के बावजूद राजीव गांधी की लोकप्रियता एक सीमा से ज्यादा नहीं गिरी थी और वो तेजी से अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करते दिखाई दे रहे थे.

राहुल गांधी के साथ ऐसा नहीं है. लगातार दो टर्म में यूपीए सरकार का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी राहुल के नेतृत्व में इतनी कमजोर हो गई है जितनी अपने इतिहास में पहले कभी नहीं हुई थी. लोकसभा में सीटों की तादाद घटकर 50 से भी नीचे आ गई, वहीं ज्यादातर राज्य भी एक-एक कर के कांग्रेस के हाथ से निकलते चले गए. जगन मोहन रेड्डी और अजित जोगी जैसे नेताओं ने अपनी पार्टियां बना लीं, जिससे कांग्रेस और कमजोर हुई.

राहुल के नेतृत्व क्षमता को लेकर पार्टी के भीतर भी दबे स्वर में आवाजें उठीं. हालात ने लगातार राहुल को इस बात का एहसास कराया कि दुनिया हमेशा जीतने वाले के साथ होती है. विजेता में अच्छाइयां ढूंढ ली जाती हैं और पराजित व्यक्ति हमेशा दयनीय होता है. 2009 में यूपीए की जीत भले ही आर्थिक सुधार और नरेगा जैसी स्कीमों की जीत हो लेकिन क्रेडिट मनमोहन नहीं बल्कि राहुल को मिला था. ऐसे में अगर कांग्रेस पार्टी फिसलनी शुरू हुई तो फिर भला ठीकरा राहुल गांधी के सिर पर कैसे नहीं फूटता?

राजीव गांधी इतिहास के पन्नों में एक स्वप्नदर्शी युवा नेता के रूप में दर्ज हैं, लेकिन राहुल गांधी? विरोधी उन्हें हमेशा एक भ्रमित नौजवान नेता के रूप में ब्रांड करते आए हैं और इस ब्रांडिंग के खिलाफ उनका संघर्ष जारी है. इतिहास ने राजीव गांधी के साथ न्याय किया. बोफोर्स मामले में कुछ ऐसा साबित नहीं हुआ, जिससे उन्हें गुनहगार माना जाए. भारत में आईटी क्रांति के जनक के रूप में उन्हे अब भी याद किया जाता है.

बोफोर्स तोप सौदे में कथित दलाली के आरोपों ने राजीव गांधी की छवि को काफी धक्का पहुंचाया

कई मायनों में पिता से अलग हैं राहुल

लेकिन वर्तमान राहुल गांधी पर मेहरबान नहीं है. अगर ठीक से देखें तो राहुल में कई ऐसी बाते हैं, जो उनके पिता में नहीं थी. सिपहसलारों और चमचों ने राजीव की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया. लेकिन राहुल ने कई बार खुलेआम यह कहा कि चमचागीरी से पार्टी को नुकसान होगा. प्रधानमंत्री के खिलाफ अभद्र भाषा के इस्तेमाल पर कार्रवाई करते हुए राहुल ने मणिशंकर अय्यर जैसे नेता को 6 महीने से ज्यादा वक्त के लिए सस्पेंड किया. जबकि उनके पिता `हल्ला ब्रिगेड’ के किसी नेता के खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई कहां कर पाए थे!

एक और बात राहुल गांधी को अपने पिता से अलग बनाती है. राहुल ने कई बार स्थापित मान्यताओं और यथास्थिति के खिलाफ खड़े होने का साहस दिखाया है. आपराधिक रिकॉर्ड वाले नेताओं को बचाने के लिए लाए जा रहे अपनी ही सरकार के अध्यादेश को सार्वजनिक तौर पर फाड़ने के उनके कदम की आलोचना हुई थी. लेकिन राहुल ने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वो पाक साफ राजनीति चाहते हैं.

मोटा चंदा देने वाले कॉरपोरेट समूहों से टकराने का जोखिम भी राहुल ने उठाया है. यूपीए 2 के दौरान उन्होंने ओडिशा में एक कंपनी का विवादास्पद प्रोजेक्ट बंद करवाया जिसमें बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन का अधिग्रहण होना था. राहुल से पहले न तो किसी कांग्रेस नेता ने जनसरोकारों की इतनी खुलकर वकालत की और ना ही आरएसएस को लेकर इस कदर मुखर हुआ. लेकिन राहुल अब तक जीतना सीख नहीं पाए हैं.

उन्हें अब भी एक ऐसे मोमेंटम की तलाश है, जो उनके करियर को बदल दे. यह मोमेंटम गुजरात के चुनाव में आ सकता था लेकिन राहुल के जबरदस्त कैंपेन के बावजूद बीजेपी को कड़ी टक्कर देनेवाली कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. कर्नाटक में सरकार भले ही बन गई लेकिन राहुल विजेता की तरह नहीं उभर पाए. इतिहास हमेशा विजेता को याद रखता है और राहुल गांधी का विजेता बनना अभी बाकी है.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)