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जन्मदिन विशेष: कुमार विश्वास आज भी हिट हैं, नींव में दबे पत्थर नहीं

10 फरवरी को 48 साल के हो गए कुमार विश्वास उस पार्टी में तो भले किनारे पर खड़े दिखाई देते हैं जिसके लिए उन्होंने जमकर मेहनत की लेकिन उनके फैन्स के लिए अब भी वो स्टार कवि हैं

Arun Tiwari

कुमार विश्वास 10 फरवरी को 48 साल के हो गए हैं. अपनी जिंदगी के चार दशक पूरे होने तक वो पूरे उत्तर भारत में कोई ‘दीवाना कहता है’ कविता के लिए जाने जाते थे. इसी एक कविता के पाठ और अपने वाक् चातुर्य की बदौलत वो युवाओं के बीच इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि लाखों रुपए सिर्फ कविता पाठ के लिए लिया करते थे. कवि सम्मेलनों में खूब वाहवाही मिला करती थी, लेकिन जिंदगी अपना रुख कैसे पलटती है इसे शायद कुमार विश्वास बखूबी समझते होंगे.

यूपीए-2 की सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई थी और एकदम से अन्ना हजारे इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले जनलोकपाल की डिमांड करते राष्ट्रीय फलक पर आ गए. अन्ना के आंदोलन में खूब भीड़ जुटने लगी. लेकिन इस भीड़ को रोकने का काम कौन करता था? घंटों-घंटों तक अन्ना के मंच से लोगों को बांधे रखने का काम कौन करता था? जिन लोगों ने उस आंदोलन के समय जंतर-मंतर के चक्कर काटे हैं वो जानते हैं कि ये कुमार विश्वास बखूबी किया करते थे.


आंदोलन की रीढ़ अरविंद केजरीवाल थे तो निश्चित ही कुमार विश्वास मुखड़ा थे

अगर पूरे अन्ना आंदोलन की रीढ़ अरविंद केजरीवाल थे तो निश्चित ही कुमार विश्वास मुखड़ा थे. अपनी बेहतरीन मंचीय शैली से उन्होंने युवाओं में वो जोश भर दिया था कि जो एक बार रैली में कुछ समय के लिए भी जाता था वो वहां घंटों रुका करता था. टेलीविजन पर कुमार विश्वास के भाषणों की क्लिपिंग दिल्ली से बाहर के भी युवाओं को जंतर-मंतर तक पहुंचने के लिए एक आह्वान हुआ करती थी. कुमार विश्वास लोगों को जोड़ने के लिए मंच से कैसे गीत गाया करते थे उसकी बानगी सुनिए...

पूरे आंदोलन के दौरान सांगठनिक बातों पर मजबूत पकड़ अरविंद केजरीवाल की थी तो मंच से अन्ना के लिए अधिक से अधिक सहानुभूति बटोरने का काम उस समय कुमार विश्वास से बेहतर शायद ही कोई अंजाम दे सकता था. एक कवि पूरी तरह से क्रांतिकारी भाषणों के लिए जाना जाने लगा. भीड़ जुटाने की कला हो तो आप किसी भी मूवमेंट का मुखड़ा बन सकते हैं. लेकिन इन सबके बावजूद कभी कुमार विश्वास सीधे तौर पर क्रेडिट लेने से बचते रहे. आंदोलन खत्म होने के साथ ही आम आदमी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू हुआ तो भी कुमार विश्वास शायद अरविंद केजरीवाल से कम भीड़ नहीं खींचते थे. उसी दौरान का एक और वीडियो देखिए. दिल्ली की जनता का आम आदमी पार्टी के प्रति जो प्रेम उपजा उसे जगाने में कुमार विश्वास ने किस कदर लगे हुए थे.

मंच पर अपने साथी कवियों से हमेशा ज्यादा ताली बटोरने वाले कुमार विश्वास जब-जब टीवी पर पार्टी की ओर से आए कांग्रेसी नेता बगले झांकते ही नजर आए. लगातार और बेबाक बोलने के बावजूद कभी भाषाई मर्यादा न गिरने देने का कारण उनकी भाषा पर पकड़ थी. एक कवि और साहित्यकार के तौर पर कुमार विश्वास के आलोचक भले ही उन पर ये आरोप लगाएं कि साहित्य में उनके योगदान की कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है, लेकिन देश इस बात का गवाह जरूर रहेगा कि जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन चला तो हिंदी के मूर्धन्य लोग किनारे बैठे हुए थे और कुमार विश्वास सरकार से सीधे लोहा लेने वालों में से थे.

साहित्य की दुनिया को तकरीबन किनारे कर वो राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय थे

ऐसा नहीं था वो ये सबकुछ अकेले दम पर निभा रहे थे लेकिन उन्होंने अग्रिम पंक्ति में खड़े होने का साहस दिखाया था. साहित्य की दुनिया को तकरीबन किनारे कर वो पूरी तरह से राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय थे. हां, ये सही है कि वो दिल्ली में किसी चुनाव में नहीं खड़े हुए लेकिन आम आदमी पार्टी की विजय वाले पहले और दूसरे दोनों चुनावों के कर्णधार तो वो थे ही.

2013 और 2015 में आम आदमी पार्टी की दिल्ली में जीत के बीच 2014 के लोकसभा चुनाव वो कड़ी थे जब कुमार विश्वास उसी आंदोलन से जरा सा मोहभंग में दिखाई दिए जिसे खड़ा करने में उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था. वो अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव में उतरे. दिल्ली से ये उद्घोष कर के निकले कि अमेठी जा रहे हैं और देश से वंशवाद की आखिरी बेल को समाप्त करके लौटेंगे, लेकिन उस दौरान अमेठी में मौजूद पत्रकारों के अनुसार उन्हें वहां का मैदान लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया गया था. ऐसा क्यों?

दरअसल जिस आम आदमी पार्टी को खड़ा करने में कुमार का भी खून पसीना लगा था उसकी पूरी ताकत अरविंद केजरीवाल के साथ बनारस में झोंक दी गई थी. कुमार सिर्फ अकेले ही नहीं पड़े बल्कि कसक भी भीतर आ गई. वो चुनाव हारे लेकिन जिन लोगों ने वहां का चुनाव देखा वो बताते हैं कि वो छाए हुए थे. कारण वही था उनकी वाक् पटुता और लोगों से संवाद की बेहतरीन शैली. कहते हैं अमेठी वाले कुमार विश्वास की मिलनसार अदाओं को आज भी याद करते हैं.

उसके बाद चुनाव 2015 के दिल्ली चुनाव अन्ना आंदोलन की परिणति थे. पार्टी जीती लेकिन फिर भी कुमार सत्ता से बाहर रहे. हां, लोकप्रियता वैसी ही बनी रही. लेकिन ये भी सत्य है कि पार्टी के बाहर ही लोकप्रियता बरकरार रही, अंदर नहीं.

हाल में सोशल मीडिया पर एक वीडियो खूब वायरल हुआ था. कहा जा रहा था कि उसमें जो आवाज थी वो कुमार विश्वास की ही थी. उसमें कुमार विश्वास कह रहे थे कि आंदोलन की शुरुआत में तीन ही लोग प्रमुख थे एक मुख्यमंत्री बन गया, दूसरा उपमुख्यमंत्री...मुझे क्या मिला?

जिस पार्टी को खड़ा करने में योगदान दिया अब वहां उनकी कोई सुनने वाला नहीं

उस आंदोलन वाली पार्टी जिसे कुमार ने सालों खर्च करके बनाने में अपना हाड़-मांस खपाया, अब वहां उनकी सुनने वाला कोई नहीं. लेकिन कुमार के लिए ये शायद सबसे ज्यादा सुकून देने वाली बात है कि वो अब भी आम लोगों के बीच उतने ही लोकप्रिय हैं...कह सकते हैं लोकप्रियता पहले से बढ़ी ही है. वो वैसे ही भीड़ ध्यान आकर्षित करते हैं जैसे 8-9 साल पहले किया करते थे.

पूरे विवाद के बीच कुमार के फैन्स के लिए कम से कम ये खुशी वाली बात है कि शायद वो राजनीति से थोड़ी फुर्सत पाएं तो उस मंच पर और सक्रिय हो पाएं जिसने उन्हें अन्ना आंदोलन के मंच तक पहुंचाने की आधारशिला रखी थी.

कुमार विश्वास को जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएं...