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बिलावल की दिवाली से रोशन होगा 2018 का चुनाव

बिलावल भुट्टो ने नई सोच के साथ राजनीति का तरीका भी नया अपनाया है.

Pratima Sharma

बिलावल ने करांची के शिव मंदिर में दिवाली पूजा की. दिवाली पर दिए जलाना और मिठाइयां बांटना आम है.


अमेरिका के व्हाइट हाउस में बराक ओबामा ने भी दिए जलाए थे. फिर बिलाल की दिवाली पूजा में क्या खास है जो यह वीडियो वायरल हो रहा है.

बिलावल भुट्टो पाकिस्तान के उभरते हुए नेता है. नया जोश, नई सोच के साथ उन्होंने राजनीति का तरीका भी नया अपनाया है.

अभी तक पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को तवज्जो नहीं दी जा रही थी, लेकिन अब लगता है कि वो भी पाकिस्तान की राजनीति का अहम हिस्सा बन गए हैं.

बिलावल भुट्टो ने शिव मंदिर में बाकायदा आरती की. इस्लाम में बुतपरस्ती की सख्त मनाही है, इसके बावजूद बिलावल भुट्टो ने इतना बड़ा जोखिम क्यों लिया?

इस बात को समझने के लिए हमें पाकिस्तान की आबादी की संरचना को समझना होगा.

विभाजन के बाद पाकिस्तान पर सुन्नी समुदाय का दबदबा ज्यादा रहा है. आर्थिक तौर पर पंजाब का इलाका पाकिस्तान के लिए शुरू से काफी अहम है.

पंजाब में सुन्नी समुदाय से लोगों की संख्या ज्यादा है, लिहाजा कारोबार से लेकर राजनीति तक सुन्नियों का ही प्रभुत्व रहा है.

अकेले जुल्फीकारअली भुट्टो का राजनीतिक कार्यक्षेत्र सिंध था. सिंध पाकिस्तान का तटीय इलाका था जो गुजरात और मुंबई से जुड़ता है. तटीय इलाका होने के कारण पंजाब के बाद आर्थिक तौर पर सिंध मजबूत इलाका था.

भारत से गए मुहाजिर सिंध में बसने लगे, जिससे वहां मुहाजिरों की संख्या ज्यादा हो गई है. अब बिलावल इन्हीं मुहाजिरों (जो कट्टर नहीं हैं) को अपने पाले में करने की कोशिश कर रहे हैं.

यानी वो एक तीर से दो निशाना लगाना चाहते हैं. एक तरफ अल्पसंख्यक और दूसरी तरफ मुहाजिरों को अपने पाले में कर के अगला चुनाव जीतना चाहते हैं.

पाकिस्तान में 2018 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में इस बार पाकिस्तान पीपल्स पार्टी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.

1998 की जनगणना के मुताबिक पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी करीब 2 फीसदी है.

दिलचस्प है कि करांची सिंध प्रांत में है, जो मुहाजिरों की पहली पसंद है. यही वजह है कि बिलावल भुट्टो जरदारी ने शिव पूजा के लिए कराची को चुना है.

बिलावल की इस पहल के बारे में पाकिस्तानी पत्रकार हफीज चाचड़ ने फर्स्ट पोस्ट हिंदी से बातचीत में कहा, 'यह एक सकारात्मक कदम है. अल्पसंख्यकों को यह एहसास होगा कि उनकी खैर-खबर लेने वाला कोई है.'

इससे निश्चित तौर पर बिलावल को अल्पसंख्यकों का वोट मिलेगा, लेकिन दूसरी तरफ उन्हें इसका नुकसान भी उठाना पड़ सकता है.

बिलावल के इस कदम के विरोध में भी कई वीडियो वायरल हुए हैं. उनका पक्ष है कि पाकिस्तान में हिंदु-मुसलमान दोनों बेहाल है. ऐसे में किसी एक समुदाय को खुश करने के लिए बुतपरस्ती का सहारा लेना कतई सही नहीं है.

चाचड़ कहते हैं, 'निश्चित तौर पर पीपीपी को कट्टर मुसलमानों का वोट गंवाना पड़ सकता है.' पीपीपी राजनीति की इतनी कच्ची खिलाड़ी तो है नहीं कि यह बात उन्हें समझ न आए.

लेकिन अल्पसंख्यकों के भरोसे पीपीपी की नाव अगले लोकसभा चुनाव में पार लगती है या नहीं यह तो दो साल बाद ही पता चल पाएगा.