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बांग्लादेश में बिहारी मुस्लिम: न खुदा मिला न विसाल-ए-सनम (पार्ट 2)

विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) गए बिहार और पूर्वी यूपी के मुसलमालों के हालात पर ग्राउंड रिपोर्ट

Abhishek Ranjan Singh

1971 की जंग में पाकिस्तान की हार और बांग्लादेश बनने के बाद बंगालियों का आक्रोश बिहारी मुसलमानों पर टूटा. लाखों बिहारी मुसलमानों को अपने घरों और नौकरी से बेदखल होना पड़ा.

उस बर्बर घटना को याद करते हुए उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैबिलिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) के महासचिव शाहिद अली बबलू बताते हैं कि नया मुल्क बनने के बाद बिहारी मुसलमानों के घरों की तलाशी लेने का फरमान सुनाया गया.


पुलिस की मौजूदगी में लोगों को घरों से बाहर एक खुले मैदान में बैठा दिया गया. तलाशी के नाम पर बुजुर्गों और महिलाओं के साथ गलत व्यवहार किया गया. घरों में लूटपाट भी की गई और हम अपने पक्के घरों से बेदखल होकर खुले आसमान के नीचे आ गए.

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साल 1976 में रेड क्रॉस सोसायटी के सहयोग से ढाका में बिहारी मुसलमानों के लिए कैंप बनाए गए. लेकिन चार दशक बाद भी हमें कैंपों में रहना पड़ रहा है. साल 1974 में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच एक समझौता हुआ था.

इसके तहत पाकिस्तान उर्दू भाषी इन बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान में बसाने पर सहमत हो गया था. लेकिन एक लाख 26 हजार लोगों को छोड़कर बाकी लोग आज भी बांग्लादेश में ही हैं.

शाहिद अली बबलू के मुताबिक, अब पाकिस्तान जाने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि वहां मौजूद मुहाजिरों और बांग्लादेश से गए लोगों की बदतर हालत किसी से छुपी नहीं है. अब हमारा मुल्क यही है और यहीं की मिट्टी में दफन होना है.

भारतीय फौज ने बचाई थी उर्दू भाषियों की जान

युद्ध के दौरान दस लाख लोग मारे गए थे. करीब दो लाख महिलाओं के साथ पाकिस्तानी फौज ने बलात्कार किया था. बिहारी मुसलमानों में ज्यादातर लोग पाकिस्तानी फौज का साथ दे रहे थे. लेकिन लाखों लोग ऐसे भी थे, जो अपनी जान बचाने की कोशिशों में जुटे थे.

सामाजिक कार्यकर्ता मसूद खान बताते हैं, जब मुक्ति वाहिनी की ओर से बिहारी मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा था. उस वक्त अपनी जान बचाने के लिए उन लोगों ने भारतीय फौज से गुहार लगाई. चूंकि भारतीय फौज को उर्दू समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, इसलिए बिहारी मुसलमान अपनी पीड़ा बताने में कामयाब रहे.

भारतीय फौज भी इस बात से वाकिफ थी कि बांग्लादेश के सारे बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के साथ नहीं हैं. इसलिए बेगुनाहों के साथ कोई जुल्म न हो इसके लिए उन्होंने बिहारी मुसलमानों को संरक्षण देकर मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों से बचाया. बिहारी मुसलमान इसके लिए आज भी भारतीय फौज के शुक्रगुजार हैं.

युद्ध अपराधियों में एक भी बिहारी मुसलमान नहीं

ढाका स्थित जेनेवा कैंप की तस्वीर

बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान का समर्थक माना जाता है, लेकिन कई लोग इन आरोपों को सही नहीं मानते. उर्दू भाषियों के हितों के लिए संघर्षरत सदाकत खान बताते हैं, यह सही है कि ज्यादातर बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के बंटवारे के पक्ष में नहीं थे. लेकिन काफी संख्या में वैसे बिहारी मुसलमान भी थे, जो मुक्ति वाहिनी में शामिल होकर पाकिस्तानी फौज का मुकाबला कर रहे थे.

आम लोगों की धारणा है कि बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया, लेकिन कोई यह नहीं कहता है कि बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था, जो मुक्ति युद्ध के खिलाफ रहा. उन्होंने पाकिस्तान का साथ दिया, लेकिन तोहमत हमारे ऊपर लगाया जाता है.

युद्ध अपराध में जिन लोगों को फांसी दी गई, उनमें एक भी बिहारी मुसलमान नहीं था और वे सभी बंगाली मुसलमान थे. जमात-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मोतिउर रहमान निजामी बंगाली मुसलमान थे न कि बिहारी. इसके बावजूद हमें पाकिस्तान परस्त कहा जाता है.

काश बंगबंधु मुजीब जिंदा होते

सैयद जुबैर अहमद मीरपुर में उर्दू भाषी मुसलमानों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते हैं. उन्होंने बताया कि बांग्लादेश बनने के बाद बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित कर रहे थे. मुक्ति युद्ध के दौरान जिन बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तान का साथ दिया था.

उसके बारे में उनका कहना था कि जो बातें बीत गईं हैं, उसे भुला देना चाहिए. पाकिस्तान का साथ देने वालों को उन्होंने आम माफी देने का ऐलान किया. शेख मुजीब ने कहा था, बिहारी और बंगाली दोनों अब बांग्लादेशी हैं और पुरानी बातों को याद करने से तकलीफें बढ़ती हैं. इसलिए दोनों कौम एक साथ मिलकर बांग्लादेश की तरक्की में अपना योगदान दें.

उनकी इस अपील से बिहारी मुसलमानों को काफी हिम्मत मिली और उन्हें अपनी गलती का एहसास भी हुआ. बदकिस्मती से उनकी हत्या ऐसे वक्त हुई, जब बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को उनकी जरूरत थी. उनके नहीं रहने से हम अनाथ हो गए. कोई सरकार हमारी सुनने वाली नहीं थी. नतीजतन हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया.

बांग्लादेश की सियासत में बिहारी मुसलमान

बांग्लादेश हाईकोर्ट के आदेश के बाद उर्दूभाषी बिहारी मुसलमानों को नागरिकता और वोटिंग अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन सियासत में उनकी नुमांइदगी अब भी सिफर है. समूचे बांग्लादेश में साढे सात लाख बिहारी मुसलमान हैं. लेकिन देश के चुनावी इतिहास में सिर्फ एक बिहारी मुसलमान को सांसद बनने का मौका मिला.

शैदपुर की निलफामारी सीट से जातीय पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे. अमूमन बिहारी मुसलमानों के बारे में कहा जाता है कि वे बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी या फिर जमात-ए-इस्लामी के समर्थक हैं. इसे खारिज करते हुए मोहम्मद शमशाद बताते हैं कि मौजूदा समय में पचास फीसद बिहारी मुसलमान वामी लीग के साथ हैं और पचास फीसद बीएनपी के साथ हैं.

जमात-ए-इस्लामी फिरकापरस्त पार्टी है, इसलिए बिहारी मुसलमान उनके साथ नहीं है. बांग्लादेश सिटी म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में कुल 92 वार्ड हैं, लेकिन एक भी बिहारी मुसलमान वार्ड काउंसलर नहीं है. जबकि ढाका के कई वार्डों में उर्दू भाषी मुसलमानों की संख्या अधिक है. बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता मिले नौ साल हो गए. पहली मर्तबा 2009 की नेशनल असेंबली के चुनाव में उन्होंने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था.

एक नजर ढाका में शरणार्थी कैंप पर

ढाका में बिहारी मुसलमानों के कुल सत्तर कैंप हैं, जिनमें एक लाख पच्चीस हजार लोग रहते हैं. मीरपुर और मोहम्मदपुर सबसे बड़ा कैंप है. मीरपुर में बिहारी मुसलमानों की कुल तादाद 68,772 है, जबकि मोहम्मदपुर में इनकी आबादी 23,760 है.