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बिहारी बदलेंगे अब दिल्ली की सियासत और संस्कृति

मिर्ज़ा ग़ालिब की दिल्ली अब मनोज तिवारी की दिल्ली बन गई है.

Amitesh

'कौन जाए ज़ौक़, दिल्ली की गलियां छोड़कर'...ज़ौक़, मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर तक़ी मीर, जैसे कई शायरों को दिल्ली से बेपनाह मोहब्बत थी. बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब , दिल्ली की गलियों की बात ही कुछ और है.

किसी भी शहर का चेहरा, चाल, चरित्र एक रात में नहीं बदलता. दिल्ली के साथ भी ऐसा ही हुआ.


उन्नीसवीं सदी की दिल्ली धीरे-धीरे बदलती गई. इसका पंजाबीकरण हुआ. आजादी के बाद से विस्थापित सिख और पंजाबी हिंदुओं ने दिल्ली का रूप बदला. खन्ना, अरोड़ा, चड्ढा, चावला, खुराना जैसे नामों से दिल्ली की पहचान बनी.

लेकिन हाल के दो दशक में दिल्ली का एक और रूप बदला. दिल्ली का बिहारीकरण हो चुका है. बीजेपी का प्रांत अध्यक्ष भोजपुरी गायक मनोज तिवारी को चुना जाना इसका प्रतीक है.

मिर्ज़ा ग़ालिब की दिल्ली अब मनोज तिवारी की दिल्ली बन गई है.

ऐसा नहीं कि दिल्ली की रंगत पहली बार बदल रही है. दिल्ली ना रुकी है ना रुकेगी.

भारत में यह अकेला शहर-राज्य था जिसमें आजादी के बाद आरएसएस और भारतीय जनसंघ का बोलबाला था.अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर बलराज मधोक और लालकृष्ण आडवाणी मुख्यत: दिल्ली में केंद्रित थे.

विस्थापित पंजाबी हिंदुओं और सिखों के बीच संघ परिवार की पैठ थी. 1984 के दंगे के बाद दिल्ली का चेहरा लगातार बदलता गया. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा से लोग दिल्ली और आसपास के इलाकों में बसते चले गये. आसपास के राज्यों को मिलाकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या एनसीआर की कल्पना की गई. वजह थी कि दिल्ली में बढ़ती आबादी के भार के दबाव को कुछ कम किया जाए.

लेकिन सबसे ज्यादा बिहारी लोग दिल्ली में आकर बसते रहे. बिहार में लगातार अराजक होते हालातों ने वहां के धनाढ्य और अभिजात्य वर्ग के साथ-साथ खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों को भी दिल्ली की तरफ ढकेला. यही वजह है कि दिल्ली में जनसंख्या के चरित्र में बड़ा बदलाव आया.

दिल्ली के मालिक बदलते रहे और हर आने वाले को लगा कि आखिरकार दिल्ली उसकी है.

जद(यू) की दिल्ली इकाई ने झुग्गी-झोपड़ियों में संपर्क करना शुरू किया. नीतीश कुमार का शनिवार काे दिल्ली में हुए पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन कार्यक्रम उसकी परिणति है. इन तैयारियों के दौरान जो तथ्य सामने आए, वो चौंकाने वाले हैं.

मसलन

- एमसीडी के चुनाव में एक सिख केबल ऑपरेटर बिहारी समर्थकों के दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है.

-गरीब बस्तियों में बिहारियों की जनसंख्या मोटे तौर पर बहुमत में है. जैसे एक गुर्जर किसान के घर में 50 बिहारी रहते हैं. लिहाजा, जाति समीकरण पर भी बिहारी पहचान भारी पड़ रही है.

-विधानसभा चुनाव और निकायों के चुनाव में बिहारी वोटर्स को लुभाने के लिए हर हथकंडे अपनाए जाते हैं. लिहाजा इस प्रक्रिया में एक सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव पैदा किया जाता है. 'बिहारी' शब्द अब एक गाली की तरह इस्तेमाल नहीं होता है.

नीतीश कुमार बिहार के सबसे बड़े नेताओं में से हैं जाहिर सी बात है उनका दिल्ली की ओर निगाहें घुमाना लाजिमी है.

नीतीश कुमार का ये सम्मेलन इसी बिहारी पहचान को राजनीतिक शक्ति में बदलने का प्रयास है. जाहिर है कि नीतीश कुमार का ये प्रयास ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक किले में सेंधमारी कर सकता है.

एक बड़ा बिहारी वर्ग जो ऑटो-रिक्शा चलाता है वो ‘आप’ का समर्थक है. जद(यू) की दिल्ली इकाई इसी वर्ग को आकर्षित कर रही है.

मौजूदा राजनीतिक समीकरण में नीतीश कुमार का यह प्रयास अरविंद केजरीवाल की परेशानी का सबब बनेगा. लेकिन इस प्रयास में नीतीश कुमार अकेले नहीं हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पक्ष से पूरी तरह से वाकिफ हैं. यही वजह है कि मनोज तिवारी दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष चुने गए हैं.

दिलचस्प यह है कि यह बदलाव दिल्ली के अभिजात्य वर्ग के लिये खतरे की घंटी है. सांस्कृतिक रूप से दिल्ली पर इस वर्ग का कब्जा है. उनकी मुश्किल यह है कि दिल्ली में अब ज़ौक़, मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर के साथ-साथ भिखारी ठाकुर (भोजपुरी कवि) को भी सुनना पड़ेगा. यह बदलाव राजनीति के साथ-साथ दिल्ली की संस्कृति का भी होगा.