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बिहार की राजनीतिः सीट सबको अधिक चाहिए, मगर उम्मीदवार किसी के पास नहीं

2019 में होने वाले आम चुनाव में अभी लगभग साल का समय शेष है लेकिन बिहार में एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर अभी से माथापच्ची शुरू हो गई है

Arun Ashesh

बिहार में इन दिनों गठबंधन और घटक दलों के बीच वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर लड़ाई चल रही है. लड़ाई का मुद्दा यह है कि कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा. बयानवीर इतिहास उलट रहे हैं- फलां चुनाव में हम इतनी सीटों पर लड़े थे. अगली बार उससे कम सीटों पर कैसे लड़ेंगे. बेशक सभी दलों को जीत की संभावना तलाशने का हक है. अधिक सीटों पर लड़ने का उनका इतिहास भी है. लेकिन, बड़ी सफाई से सभी दल इतिहास के उस पन्ने को खोलकर नहीं देखना चाह रहे हैं, जिसमें साफ लिखा है कि अतीत में किसी दल के पास अपने इतने उम्मीदवार नहीं पाए गए, जिनके सहारे जीत की उम्मीद बंध सके.

ऐसी नौबत आई तो बिना अपवाद के मुख्यधारा के सभी दलों ने दूसरे दलों से उधार लिए उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. बीजेपी, आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस- सभी के उम्मीदवार वाले इतिहास में यह पन्ना अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है. कांग्रेस तो दर्जन भी उम्मीदवार नहीं जुटा पाई थी.


25 प्रतिशत सांसद आयातित हैं

लोकसभा में बिहार के 40 सांसद हैं. इनमें 25 फीसदी से अधिक यानी 11 ऐसे हैं, जिन्हें दूसरे दलों से या अलग पेशे से बुलाकर ऐन मौके पर टिकट दिया गया. केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव को जिस वक्त बीजेपी ने पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया, वो राज्यसभा में आरजेडी के सदस्य थे. उनकी जिद थी कि पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से आरजेडी की उम्मीदवारी मिले. उधर आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की बेटी डॉ. मीसा भारती यहां से चुनाव लड़ना चाह रही थीं. रामकृपाल को आरजेडी ने बहुत मनाया लेकिन वो नहीं माने. बीजेपी को इस सीट पर मजबूत और कार्यकर्ताओं पर पकड़ वाले उम्मीदवार की जरूरत थी.

रामकृपाल यादव

बदले परिदृश्य में बीजेपी और रामकृपाल दोनों एक-दूसरे की जरूरत बन गए. मोदी लहर में रामकृपाल की जीत हो गई. दूसरे केंद्रीय मंत्री राजकुमार सिंह आरा से बीजेपी के सांसद हैं. सिंह अपने पूरे करियर में एक अच्छे आइएएस अफसर रहे हैं. लेकिन, बीजेपी में आने से पहले राजनीति से उनका दूर-दूर का नाता नहीं रहा है. हां, बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को रथयात्रा के दौरान बिहार में उन्होंने ही गिरफ्तार किया था. उसी सिलसिले में देश भर के बीजेपी समर्थकों ने उनका नाम जाना.

मोदी लहर के बावजूद नहीं मिले वर्कर

2014 में मोदी लहर का आभास चारों तरफ हो रहा था. एलजेपी और आरएलएसपी के एनडीए में शामिल होने के बाद यही धारणा बन रही थी कि इसबार एनडीए के किसी दल का टिकट सीधे-सीधे जीत का सर्टिफिकेट है. इसके बावजूद बीजेपी अपने दल में पले-बढ़े नेताओं-कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. उसके औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार सिंह जेडीयू से आए. वो 2009 के चुनाव में जेडीयू के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे. उन्हें 2014 में जेडीयू से बेटिकट होने का अंदेशा था. लिहाजा तुरंत बीजेपी में शामिल हो गए. पार्टी के तत्कालीन विधायक रामाधार सिंह ने इनका तगड़ा विरोध किया था. यह विरोध आज तक जारी है.

इसी तरह सासाराम के बीजेपी सांसद छेदी पासवान भी जेडीयू से आयातित हैं. सीवान में बीजेपी ने निर्दलीय सांसद ओमप्रकाश यादव को टिकट दिया. यादव का बीजेपी से कोई नाता नहीं रहा है. सीवान से सटे गोपालगंज के लिए बीजेपी ने उम्मीदवार का आयात बीएसपी से किया. यहां के सांसद जनक राम कभी बीएसपी सुप्रीमो मायावती के कृपा पात्र हुआ करते थे. झंझारपुर के लिए बीजेपी ने जेडीयू के वीरेंद्र कुमार चौधरी को उधार लिया. चौधरी जेडीयू के कोटे से विधान परिषद के सदस्य रह चुके हैं.

बिहार के सियासी दिग्गज नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों ही की पार्टियों में आयातित नेताओं की भरमार है

एलजेपी को भी हो गई थी किल्लत

उम्मीदवारों के मामले में एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान सबसे अमीर माने जाते हैं. विधानसभा चुनाव में तो दर्जन से अधिक उम्मीदवार परिवार और रिश्तेदारों के बीच से ही निकल आते हैं. लेकिन, लोकसभा चुनाव में उन्हें भी उम्मीदवारों की किल्लत का सामना करना पड़ा. एनडीए गठबंधन में उनके लिए लोकसभा की 7 सीटें छोड़ी गई थीं. इनमें 3 सीटें आरक्षित थीं. यह परिवार में ही खप गईं. रामविलास पासवान, उनके बेटे चिराग पासवान और अनुज रामचंद्र पासवान. 4 सीटें सामान्य श्रेणी की थीं इसलिए परिवार से अलग के लोगों को उम्मीदवार बनाना पड़ा.

सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के बिहार अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर को ऑफर किया गया. 3 पीढ़ी के कांग्रेसी कैसर तुरंत राजी हो गए. वह अभी खगड़िया से एलजेपी के सांसद हैं. चर्चा है कि तालमेल में यह सीट इस बार एलजेपी के हाथ से फिसल जाएगी. सो, कैसर बाएं-दाएं झांक रहे हैं. परिवार के बाहर के एलजेपी सांसदों का यही हाल है. चिंता है. सीटें कम हुईं तो गाज इन्हीं पर गिरेगी.

सीट के साथ उम्मीदवार का भी दान

राज्य में गठबंधन के दलों के बीच सीट के साथ उम्मीदवारों का भी दान किया जाता है. आम तौर पर बड़े दल ऐसी उदारता दिखाते हैं. लोकसभा के पिछले चुनाव में आरजेडी-कांग्रेस का गठबंधन था. कांग्रेस ने दर्जन भर सीटों की मांग की. आरजेडी इस पर राजी हो गया. अब कांग्रेस के सामने मुश्किल यह पैदा हुई कि इतने उम्मीदवार आएंगे कहां से? आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने संकट का तुरंत समाधान किया. पूर्व डीजीपी आशीष रंजन सिन्हा खाली बैठे थे. उन्हें कांग्रेस में शामिल कराया गया. वो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मांद नालंदा से कांग्रेस उम्मीदवार बने. कांग्रेस ने पटना साहिब के लिए भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता कुणाल को उम्मीवार बनाया.

वाल्मीकिनगर से जेडीयू के पूर्व सांसद पूर्णमासी राम कांग्रेस के उम्मीदवार बनाए गए. सर्वाधिक डेढ़ दर्जन बाहरी जेडीयू में हैं इसपर सीएम नीतीश कुमार चुप हैं. अगल-बगल वाले बोल रहे हैं कि जेडीयू 25 सीटों पर लड़ेगा. 4 साल पहले का इतिहास देखिए. बीते चुनाव में जेडीयू 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इनमें से 18 उम्मीदवार बाहर से मंगाए गए थे. विधान परिषद में आरजेडी सदस्य के नाते विपक्ष के नेता रहे प्रो. गुलाम गौस मधुबनी से जेडीयू के उम्मीदवार बनाए गए. जेडीयू के पास पेशेवर नेताओं की कमी हो गई थी. लिहाजा, डॉक्टर, अफसर और बिल्डर तक मैदान में उतार दिए गए.

2014 के चुनावों के दौरान बिहार में दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को भी कैंडिडेट उधार में लेने पड़े थे

2014 में सभी राजनीतिक पार्टियों ने उम्मीदवार लिए उधार

पटना साहिब से डॉ. गोपाल प्रसाद सिन्हा उम्मीदवार बने. आईएएस अफसर केपी रमैया को रातों-रात वीआरएस देकर सासाराम का उम्मीदवार बनाया गया. जाने-माने फिल्मकार प्रकाश झा एक बार एलजेपी के टिकट पर चुनाव हार गए थे. जेडीयू ने उन्हें लड़ने और हारने का दूसरा मौका दिया. झा पश्चिम चंपारण से उम्मीदवार थे. वो जेडीयू के उन चंद उम्मीदवारों में शुमार थे, जिनकी जमानत जब्त होने से बच गई थी. जेडीयू के जीते 2 सांसदों में से एक संतोष कुमार भी उधार के ही हैं. उन्हें बीजेपी से लाया गया था. सांसद होने से पहले संतोष बीजेपी के विधायक थे. जेडीयू की तुलना में अपेक्षाकृत आरजेडी को कम बाहरी उम्मीदवार लेना पड़ा. मधेपुरा के सांसद पप्पू यादव का आरजेडी से पुराना नाता रहा है. फिर भी उन्हें स्थायी नहीं माना जाता है. जीतने के बाद इस समय वो आरजेडी से अलग हो चुके हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)