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अली अनवर: अंतरआत्मा के नाम पर सब अपने मन का किया!

पिछले एक दशक में अनवर ने तन को तो सुंदर बना लिया पर मन को राजनीति की गंदगी में डुबो दिया

Kanhaiya Bhelari

जबतक पत्रकार थे तब तक जनाब की पहचान अली अनवर के नाम से होती थी. क्योंकि इसी बाइलाइन से लिखी उनकी स्टोरीज अखबारों में छपती थीं.

लेकिन खादी धारण करते ही अली अनवर से अली अनवर अंसारी बन गए.


शायद राजनीतिक लाभ के लिए जाति उजागर करना जरूरी होता है. केवल इतना ही बदलता तो आश्चर्य नहीं था. अपने पत्रकारिता और सामाजिक कामकाज के दौर में महोदय हिन्दू बहुल मुहल्लों में किराए पर डेरा लेकर रहते थे ताकि लोग-बाग यकीन करें कि बंदा पक्का सेकुलर है. यकीनन सेकुलर थे भी.

ये कैसा बदलाव?

परन्तु 2006 में राज्यसभा सदस्य बनने के चंद दिनों बाद ही श्रमजीवी पत्रकार अली अनवर अंसारी ने मुसलमान बहुल हारून नगर में घर खरीद लिया. शायद अंतरआत्मा की आवाज होगी कि हिन्दू बहुल इलाके में आशियाना रखना सेफ नहीं है. या ये भी हो सकता है कि ऐसा करना कम्युनिज्म के घोषणापत्र में हो.

वैसे उस दौर के उनके सबसे घनिष्ठ मित्र श्रीकांत की ‘मजाकिया’ प्रतिक्रिया है कि ‘अली अनवर जबतक पत्रकार थे हिंदुस्तान में रहते थे, सांसद बनते ही पाकिस्तान चले गए’.

चार दिन पहले ही सांसद महोदय ने खुलासा किया है कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार की तरह वो भी कोई निर्णय लेने से पहले अपनी अंतरआत्मा से पूछते हैं.

‘मेरी अंतरआत्मा इजाजत नहीं देती कि नीतीश कुमार के नक्शे कदम पर चलकर मैं बीजेपी के साथ उठा-बैठी और भोज-भात करूं’. ऐसा उन्होंने पत्रकारों से कहा. ये और बात है कि अली अनवर अंसारी बीजेपी विधायकों के वोट बल पर ही दो बार राज्यसभा तक पहुंचे.

लेकिन राज की बात ये है कि 63 वर्षीय सांसद महोदय को सिगनल मिल गया था कि 2018 में राज्य सभा का मुंह नहीं देख पाएंगे. आला कमान 11 वर्ष के उनके कार्यकाल से संतुष्ट नहीं था.

सुधरने की चेतावनी भी दी गई थी. सो दूसरा घर खोजने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था. भागने के लिए उचित मौके का इंतजार कर रहे थे. परवरदिगार की कृपा से मिल गया.

सबको क्यों चाहिए अनवर अंसारी जैसी किस्मत? 

15 मई 2013 को इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने छापा था कि 146 सांसदों ने अपने करीबी रिश्तेदारों को अपना पीए रखा है. उस लिस्ट में अली अनवर अंसारी का नाम प्रमुख था क्योंकि इन्होंने अपने चार बेटों में से दो को अपना ऑफिशियल प्राइवेट सेक्रेटरी बनाया था.

सीएम नीतीश कुमार ने इनको चेतावनी भी दी थी जिसको इन्होंने हल्के में लिया. तब इस लेखक से अंसारी ने दंभ में पूछा था ‘इसमें क्या बुराई है?’

फर्श से अर्श तक कैसे पहुंचे अंसारी? 

बहरहाल, बक्सर जिला के डुमरांव में पैदा हुए अली अनवर अंसारी बेहद ही गरीब परिवार से आते हैं. इनके पिता महरूम अब्दुल मनान अंसारी स्थानीय टेक्सटाइल मिल में फोर्थ ग्रेड की नौकरी करते थे.

मिल बंदी के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने बीड़ी बना बेचकर परिवार का पालन पोषण किया. स्नातक करने के बाद अली अनवर अंसारी बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में एक मामूली पद पर नौकरी करने लगे. विद्यार्थी जीवन से ही वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे.

‘अंतरआत्मा की आवाज’ पर सरकारी नौकरी छोड़कर जनाब पटना से प्रकाशित सीपीआई के अखबार जनशक्ति में 1200 रुपए की मासिक सैलरी पर पत्रकार बन गए. फिर 2000 रुपए की तनख्वाह पर जनसत्ता में बतौर स्ट्रिंगर काम किए. ततपश्चात नवभारत टाइम्स अखबार में भी कुछ साल तक स्ट्रिंगर के रूप में रहे.

नवभारत टाइम्स अखबार की बंदी ने इनको बेरोजगार बना दिया. परिवार चलाना मुश्किल हो गया. इसी बीच पत्रकार सुरेन्द्र किशोर और श्रीकांत के सुझाव पर जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने इनको बिड़ला फाउंडेशन का फेलोशिप दे दिया.

जोशी के कहने पर ही इन्होंने पिछड़े मुसलमानों की दयनीय स्थिति पर काम करना शुरू किया. एक बुकलेट और किताब छपवाया-सर के बल खड़ी मुस्लिम सियासत एवं मसावत की जंग.

शोध के क्रम में ही अली अनवर अंसारी पिछड़े वर्ग के मुसलमानों की दयनीय और नारकीय जिंदगी से रूबरू हुए. अंर्तआत्मा ने जबरन तय किया-कराया कि इनके बदतर हालात पर सीढ़ी लगाकर राजनीतिक फसल काटा जा सकता है.

क्या खोया, क्या पाया

कुछ राजनीतिक मित्रों के सहयोग से ‘पासमादा मुसलिम महाज’ नाम का संगठन खड़ा किया. इसके बैनर तले बिहार के कोने-कोने में घुमकर पासमादा मुसलमानों को अपनी सियासी लाभ के लिए गोलबंद करना शुरू किया.

नामी पत्रकार श्रीकांत की पैरवी पर तब के सीएम लालू प्रसाद ने 2000 में अली अनवर अंसारी को बिहार पिछड़ा आयोग का सदस्य बनाया. इस पद पर 2003 तक कार्य किया. अनगिनत बार पैरवी के बाद भी लालू प्रसाद ने पता नहीं इनको दोबारा कोई पद क्यों नहीं दिया.

मजबूरी में ‘रेडिकल’ अंसारी को नीतीश कुमार की राजनीतिक बैठकों में आना पड़ा. सीएम पद पाने की सघर्ष में लगे नीतीश कुमार को भी पिछड़े मुसलमानों के एक चेहरे की जरूरत थी.

उम्मीद से ज्यादा?

2005 में जब नीतीश कुमार सीएम बने तो अली अनवर अंसारी ने उनके सामने बंदूक की लाइसेंस के लिए अर्जी लगाई. लेकिन पासमादा अकलियत के बीच अंसारी की ‘पॉपुलैरिटी’ को देखकर सीएम इतने गदगद थे कि उन्होंने इनको तोप का लाइसेंस थमा दिया.

कहने का मतलब है कि अंसारी ने किसी अयोग में सदस्य बनने की इच्छा प्रकट की थी पर सांसद पद मिल गया. एक तरह से अली अनवर अंसारी की लॉटरी लग गई.

लेकिन दुर्भाग्य है कि इन्होंने पद की गरिमा को धूमिल किया. जनता दल यू के प्रवक्ता और एम एल सी नीरज कुमार की मांग है कि ‘जांच होनी चाहिए कि अली अनवर अंसारी ने 12 वर्षों के अपने एमपी फंड का कहां और किस तरह उपयोग किया है’.

राजनीतिक गलियारों में इनके बारे में की जा रही चटकदार चर्चा को नजरअंदाज भी कर दिया जा सकता है. पर आज इनके पुराने मित्र भी कहते हैं कि ‘अनवर जी काफी बदल गए हैं. पिछले एक दशक में उन्होंने तन को तो सुंदर बना लिया पर मन को राजनीति की गंदगी में डुबो दिया’. गृह स्थल डुमरांव का पसमादा मुसलिम महाज का साथी फरमाता है कि ‘अपनी करनी से सांसद महोदय ने अपनी असली पूंजी -जमात का विश्वास-खो दिया’.