view all

भारत बंद: आंदोलन के दौरान लगा जय सवर्ण-जय ओबीसी का नारा, हैरान हुए लोग

बीजेपी को सवर्णों का वोट एकमुश्त मिलता आया है, इसलिए पूरे प्रकरण से सबसे ज्यादा नुकसान इसे ही होगा, ऐसा माना जा रहा है

FP Staff

सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय मुद्दों को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किए जाने का इतिहास पुराना है. हर पार्टी अपनी-अपनी सहूलियत से जातीय समीकरण तैयार करती है. लेकिन जब गैर राजनीतिक प्रयोग से कोई नया समीकरण तैयार होता दिखे जो राजनीति खुद में सकते में आ सकती है. कुछ ऐसा ही भारत बंद के दौरान बिहार के अलग-अलग हिस्सों में दिखा.

बंद का एलान गैर राजनीतिक सवर्ण संगठनों ने किया था. उनकी मुखालफत केंद्र सरकार से है. वो एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर गैर जमानती धारा वापस जोड़ने के लिए संशोधन विधेयक संसद से पारित कराने का विरोध कर रहे हैं. ये विरोध चार माह पुराना है जिसे कुंद करने के लिए सभी दलों ने हाल ही में गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण का मुद्दा उछाला. ऐसा कहने वाले दलित नेता ही थे जो अपने-अपने दलों के वोट बैंक की चिंता कर रहे थे.


बीजेपी को सवर्णों का वोट एकमुश्त मिलता आया है, इसलिए पूरे प्रकरण से सबसे ज्यादा नुकसान इसे ही होगा, ऐसा माना जा रहा है. डैमेज कंट्रोल के तहत सवर्ण आरक्षण की मांग का बिहार के कई बीजेपी नेताओं ने समर्थन किया. इसी बीच राष्ट्रीय जनता दल जैसी सामाजिक न्याय वाली पार्टियों ने भी कांग्रेस से गठबंधन का ध्यान रखते हुए गरीब सवर्णों के लिए चिंता जाहिर की.

ये वही दल हैं जो रोहित वेमुला प्रकरण के बाद यूपी और अन्य विधानसभा चुनावों में जय भीम के नारे को राजनीतिक फायदे के लिए भुनाने की कोशिश की थी. लेकिन सवर्ण संगठनों के बंद के दौरान नया नारा लगा - जय सवर्ण, जय ओबीसी.

ये सभी राजनीतिक दलों को सकते में डाल सकता है. सतही तौर पर तो ये सामाजिक समीकरण बीजेपी और जेडीयू जैसे उसके सहयोगियों का है लेकिन यहां पेंच है. एससी-एसटी एक्ट के समर्थन और विरोध की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) अभी तक मुखर नहीं दिखा. जय सवर्ण-जय ओबीसी का नारा सुपौल में साफ सुनाई दिया लेकिन इसकी प्रतिध्वनि जल्दी ही पटना स्थित राजनीतिक दलों के मुख्यालयों में सुनाई देगी.

सड़क पर उतरे सवर्णों में बीजेपी के खिलाफ गुस्सा स्पष्ट दिखा. जब न्यूज18 के साथियों ने कुछ बंद समर्थकों से कहा कि बीजेपी ने तो मजबूरी में संशोधन बिल पेश किया क्योंकि कांग्रेस और दूसरे विरोधी दलों का जबर्दस्त दबाव था. इस पर एक बंद समर्थक का जवाब था - जब राम मंदिर जैसे मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी कोर्ट के फैसले को मानने की बात कहती है तो एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के फैसले को मानने में क्या हर्ज था? क्या ये छिपी हुई बात है कि इस एक्ट का दुरुपयोग ज्यादा होता है?

शायद इसी नारे का असर है कि बीजेपी और जेडीयू के आकाओं ने समय रहते प्रवक्ताओं को आगाह कर दिया - कुछ मत बोलो या नाप तौल कर बोलो. सहम जाना स्वाभाविक है. शायद हाल के दिनों में अपने ही समर्थकों के हाथों बीजेपी का झंडा बीच सड़क पर जलाए जाने की घटना पार्टी के नेताओं ने नहीं देखी होगी.

दरअसल ये खुद ही तय नहीं कर पा रहे कि क्या राजनीतिक रणनीति अपनाई जाए. बिदका हुआ सवर्ण और अनुसूचित जाति समर्थित एमसीसी जैसे संगठनों से लोहा लेने वाला यादव-कुर्मी जैसा ओबीसी तबका अगर एक होकर कोई ठिकाना खोजता है तो दिक्कत सभी दलों को होगी. सवर्ण मुखर है, इसलिए सड़क पर है लेकिन एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ ओबीसी के बड़े तबके में भी नाराजगी है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

यहां पलड़ा आरजेडी की तरफ झुका है. लालू के विपरीत तेजस्वी की आधुनिक राजनीति अगर सवर्णों को रिझा पाई तो बिहार में बड़े उलटफेर से इनकार नहीं किया जा सकता. फिलहाल राजनीति सकते में है.

(न्यूज18 के लिए आलोक कुमार की रिपोर्ट)