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तुष्टीकरण के साइड-इफेक्ट: बंगाल का भद्रलोक भी धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर

बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा की जड़ कहीं न कहीं ममता सरकार की तुष्टीकरण की नीतियों में है

Kripashankar Chaubey

भारत के राजनीतिक दलों की यह विडंबना है कि वे बहुसंख्यक कट्टरता का विरोध तो करते हैं लेकिन अल्पसंख्यक कट्टरता के प्रतिरोध का साहस नहीं दिखा पाते क्योंकि उन्हें यह भय रहता है कि इससे कहीं उनके ऊपर गैर-सेकुलर होने का आरोप न लग जाए.

पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बदुरिया और उसके बाद बसिरहाट, देगांगा और स्वरूपनगर में भड़की सांप्रदायिक हिंसा पर सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की ठंडी प्रतिक्रिया आई. हिंसा प्रभावित इलाकों में प्रशासन ने भी सख्ती नहीं की. क्या इसलिए कि हमलावरों में अधिकतर अल्पसंख्यक थे और ममता सरकार उन्हें नाखुश नहीं करना चाहती?


इसी जिले के हाजीनगर में मुहर्रम के दिन भी सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी. दंगाइयों की भीड़ ने कथित तौर पर कई हिंदुओं के घरों को जला दिया था. उस हिंसा की आग हावड़ा, पश्चिमी मिदनापुर, हुगली और मालदा जिलों में भी फैल गई थी. पिछले साल दिसंबर में पश्चिम बंगाल में मालदा, वीरभूम, उत्तर 24 परगना, नदिया, पश्चिम मिदनापुर, खड़गपुर सहित 10 जिले सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आए थे.

थम नहीं रहा सांप्रदायिक हिंसा का सिलसिला

पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में स्थित धूलागढ़ तो पिछले साल कई दिनों तक सांप्रदायिक तनाव से प्रभावित था. वहां कट्टरपंथियों ने पूरे इलाके को भयाक्रांत कर रखा था.

मालदा जिले के चांचल थाना क्षेत्र में स्थित चंद्रपाड़ा और कोलीग्राम जैसे गांवों पर 10 हजार से अधिक एक समुदाय विशेष की उग्र भीड़ ने हमला किया था. वहां विवाद की शुरुआत विजयादशमी के दिन आयोजित एक मेले में आई एक हिंदू लड़की के साथ मुस्लिम युवक द्वारा छेड़खानी किए जाने से हुई थी. जब हिन्दुओं ने उसका विरोध किया तो मुस्लिम समुदाय के लोगों ने तोड़फोड़ की. सवाल यह उठ रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल की सरकार जानबूझकर मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कानून व्यवस्था की अनदेखी कर रही है?

तथ्य है कि पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है और राज्य की तीनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां-सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम और कांग्रेस कट्टरता के प्रतिरोध का साहस सिर्फ इसलिए नहीं दिखा रही हैं क्योंकि एक समुदाय के मतदाताओं को नाखुश करने का खतरा वे नहीं मोल लेना चाहतीं. राज्य की करीब प्रत्येक सांप्रदायिक हिंसा पर शुरू में राज्य सरकार ने चुप्पी साधे रखी और उसे मामूली घटना बता कर दबाने का प्रय़ास किया. विपक्षी कांग्रेस व सीपीएम की तरफ से भी ठंडी प्रतिक्रियाएं आईं. तीनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने दिखा दिया है कि उनमें हर तरह की कट्टरता के एक समान प्रतिरोध की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है.

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कहना न होगा कि बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा का मूल कहीं न कहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तुष्टीकरण की नीतियों में है और उसका सांघातिक परिणाम सामने आ रहा है. ममता बनर्जी ने बंगाल की 27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का समर्थन हासिल करने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं. ममता ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाया, सैकड़ों मदरसों और वहां की हजारों डिग्रियों को मान्यता दी. ममता सरकार मुस्लिम छात्रों को बड़े पैमाने पर छात्रवृत्ति प्रदान करती है.

छह साल पहले सत्ता में आते ही ममता ने मस्जिदों के इमाम और मोअज्जिन को क्रमशः 2500 रुपए व 3500 रुपए प्रतिमाह भत्ता देने की घोषणा की थी. हालांकि, सरकार के उस फैसले को कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया. कोर्ट के फैसले से नाखुश ममता बनर्जी ने एक दूसरा रास्ता निकाला. अब इमामों और मुअज्जिनों का भत्ता वक्फ बोर्ड के माध्यम से दिया जाता है. ममता ने मुसलमानों तक विकास, रोजगार और शिक्षा के अवसर मुहैया कराने के समांतर मुस्लिम धर्मगुरुओं के बीच भी पैठ बनाई और एक के बाद रैलियां कर आम मुसलमानों को भी अपनी तरफ करने की चेष्टा की.

किस हद तक तुष्टीकरण?

ममता ने कोलकाता में शहीद मीनार मैदान में हुई जमीयत की रैली में एक लाख की भीड़ को संबोधित किया था तो वहीं फुरफुरा शरीफ में ताहा सिद्दीकी के द्वारा निकाली गई रैली में शरीक हुई थीं. और तो और ममता मुसलमानों की तरह इबादत करने या दुपट्टे की तरह सिर पर साड़ी रखने से परहेज़ नहीं करतीं.

मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए ही ममता सरकार ने बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन को कोलकाता आने की इजाजत नहीं दी. एक दशक पूर्व तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन को कोलकाता से बाहर कर दिया था. कोलकाता से वे जयपुर गईं और वहां से दिल्ली. तब से दिल्ली में ही वे रह रही हैं.

धर्मनिरपेक्षता की पैरोकार सीपीएम की तत्कालीन सरकार ने पहले तसलीमा की किताब ‘द्विखंडित’ पर रोक लगाई और बाद में उन्हें कोलकाता से ही भगा दिया और धर्मनिरपेक्षता की दूसरी पैरोकार कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए की तत्कालीन केंद्र सरकार ने दिल्ली में उन्हें महीनों नजरबंद किए रखा.

धर्मनिरपेक्षता की तीसरी पैरोकार तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में कोलकाता के पुस्तक मेले तसलीमा की आत्मकथा के सातवें खंड ‘निर्वासन’ का लोकार्पण समारोह ही नहीं होने दिया गया. ममता सरकार ने तसलीमा के कोलकाता आने पर अघोषित रोक लगा रखी है. यह रोक सरकार ने मुट्ठीभर कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने के लिए लगा रखी है. कई बार तो कट्टरपंथियों द्वारा कोई मांग किए जाने के पहले ही उन्हें संतुष्ट करने के लिए उनकी बात मान ली जाती है. भारत में एक धर्म के कट्टरपंथ का पोषण कर तुष्टीकरण की नीति अपनाई जाएगी तो दूसरे धर्म के कट्टरपंथियों को बढ़ने से रोका जा सकेगा?

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ममता की तुष्टीकरण की नीति के कारण आतंकी बंगाल में अपने पांव पसार रहे हैं. याद करें जब तीन साल पहले बर्दवान के खगड़ागढ़ में बम विस्फोट हुआ था और जांच के बाद यह खुलासा हुआ था कि बम कांड के आतंकियों का बांग्लादेश के जमात-ए-इस्लामी से नियमित संपर्क था. तथ्य है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने जमात-ए-इस्लामी की कट्टरता को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए तो उस पार के कट्टरपंथियों व आतंकियों ने इस पार यानी बंगाल में अपने अड्डे बना लिए. उन अड्डों के विस्तार को रोकने के लिए जो प्रशासनिक दृढ़ता चाहिए, उसका राज्य सरकार में सर्वथा अभाव दिखता है.

एक दशक पहले बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार किया था कि राज्य के कुछ मदरसों का उपयोग आतंकियों के प्रशिक्षण केंद्र के रूप में किया जा रहा है. भट्टाचार्य जैसा साहस मौजूदा राज्य सरकार के पास नहीं है.

ममता बनर्जी ने बंगाल में मुसलमानों के 27 प्रतिशत वोटों को बचाने के लिए पूरे बंगाल को विपन्न कर दिया है. पूरा पश्चिम बंगाल आज बारूद के ढेर पर बैठा है. ममता की तुष्टीकरण की नीतियों से खीझकर बंगाल का भद्रलोक भी धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रहा है. उसे लगने लगा है कि हिंदुओं की सुरक्षा बंगाल में बीजेपी ही कर सकती है और वह उसे चुनावों में वोट भी देने लगा है.

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में प्रोफेसर हैं)