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हे भगवान! बंगाल में नेताओं के लिए अब 'दुर्गा-राम-हनुमान' बने हथियार

रामनवमी और हनुमान पूजा समारोह बंगाल में राजनीतिक बदलाव का इशारा करते हैं

Shikha Mukerjee

बंगाल में देवों की पूजा आजकल न सिर्फ संदेह के घेरे में है, बल्कि ये राजनीतिक रूप से विवाद का मामला भी बन गया है.

इस बार रामनवमी की झांकियों में उमड़े भक्तों के सैलाब में शामिल होने वालों में भारतीय जनता पार्टी के बंगाल प्रमुख दिलीप घोष भी थे. रामनवमी के जुलूस में उतरे कई लोगों ने तलवारें और त्रिशूल लहराए. यह भक्ति से अधिक शक्ति का प्रदर्शन था.


इस प्रदर्शन से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा और कांग्रेस ही नहीं भड़के बल्कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी तमतमा उठीं हैं.

बांकुरा से गरजते हुए ममता ने कहा, 'बीजेपी रामनवमी को अपने प्रॉपर्टी नहीं बना सकती. बीजेपी का इससे कोई लेना-देना नहीं है. बीजेपी को धर्म के इस्तेमाल करने से परहेज करना चाहिए.' तृणमूल कांग्रेस की नजरों में बंगाल में बीजेपी ‘भेदभाव वाला राजनीतिक’ खेल खेल रही है, जो उसके ‘सबका साथ’ के एजेंडे से मेल नहीं खाता है.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की शानदार जीत के तुरंत बाद बंगाल में रामनवमी उत्सव में विशाल भीड़, व्यापक विस्तार और उसके संगठन से न सिर्फ तृणमूल कांग्रेस परेशान है, बल्कि वामपंथी पार्टियां तथा कांग्रेस भी हलकान है.

जवाब में बीरभूम से तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता अनुब्रत मंडल ने एलान किया, 'बीरभूम जिले में बजरंगबली के 127 मंदिर हैं. बुधवार को हर मंदिर में प्रवेश करने पर पूजा आयोजित की जाएगी. हमारे सभी विधायक और अन्य पार्टी नेता और कार्यकर्ता इसमें भाग लेंगे. हम हर जगह बजरंगबली की पूजा करेंगे.'

देवताओं के बहाने राजनीतिक चाल

असल में यह ऐसे धार्मिक प्रतीको पर कब्जे की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा है, जो मुख्य रूप से आबादी के एक खास हिस्से से जुड़े हैं लेकिन साथ ही ये दुर्गा-काली-गोविंदो-गोपाल पूजा की समृद्ध बंगाली परंपराओं में एक नई संभावना का दरवाजा भी खोलते हैं. साथ ही यह बंगाली समाज को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और बाबरी मस्जिद पर कब्जे से उपजी एक बड़ी अखिल-उत्तर भारतीय हलचल से जोड़ने की भी कोशिश है.

इनके लिए फर्क नहीं पड़ता स्थानीय रूप से न तो राम न ही हनुमान यहां काफी लोकप्रिय हैं. ये देवता लोगों का ध्यान को आकर्षित करने के प्रतीकों के रूप में प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इन दलों का न तो पवित्रता और न ही धार्मिकता से कोई मतलब है.

बंगाल की संस्कृति में इन देवताओं को शामिल किया जाना एक असामान्य घटना है. जहां एक स्तर पर इसे लेकर एक निश्चित असहजता है तो वहीं दूसरे स्तार पर इसे ऐसे नजरअंदाज किया जा रहा है मानो इसका कोई महत्व न हो. लोगों में बंगाल में धार्मिक समारोहों की समावेशी परंपरा पर अभी भी गजब का विश्वास है.

बंगाल में भव्य धार्मिक समारोहों का लंबा इतिहास है

बंगाल में समुदाय की आपसी आर्थिक मदद से होने वाले शानदार और चमक-दमक वाले देवपूजा समारोहों का इतिहास 1790 तक जाता है. हुगली जिले के गुप्तपुर में पहली बार बोरियारी (12 साथी) पूजा शुरू की गई थी. यह तब सरबोजनीन (संपूर्ण समावेशी) पूजा में के रूप में विकसित हुई और जो अब दुर्गा पूजा के रूप में होती है. दुर्गा पूजा में कई अलग-अलग विषय आधारित कलाओं का प्रदर्शन भी किया जाता है.

बंगाल में 'पूजो' का समावेशी चरित्र इतनी मजबूती से स्थापित है कि 'पंडाल' की सजावट या खास थीम को देखने के लिए जाना किसी धार्मिक अनुष्ठान के बजाय एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है.

हाल के वर्षों में फुटपाथ पर धार्मिकता के प्रसार को देखा जा रहा है. इन स्थानों पर बने छोटे-छोटे मंदिरों या देवताओं में हैं; शनि का साप्ताहिक पूजा केंद्र, कुछ शिव मंडल (मंदिर) और हनुमान की विभिन्न मूर्तियां.

सड़कों और गलियों के किनारे बत-तला या बरगद के पेड़ों की पूजा के विश्वास का राजनीतिक गतिविधियों से कोई संबंध नहीं है; ये निजी रूप से सार्वजनिक स्थलों पर आयोजित किए जाते हैं और जिन्हें स्थानीय सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है.

ममता बनर्जी के समय धार्मिकता को मिला संरक्षण

दूसरी तरफ, ममता बनर्जी के संरक्षण में पूजा को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सहयोग मिलता रहा है. ममता बनर्जी ने धार्मिक रूप से खास छवि स्थापित करने का काम किया है. मुख्यमंत्री बनने से पहले ममता बनर्जी की धार्मिकता कम दिखाई दे रही थी; वो अपने अधिकतर वफादार समर्थकों की उपस्थिति में घर पर होने वाली काली पूजा तक ही सीमित थी.

लेकिन 2011 आते-आते उनकी ये निजी गतिविधियां तेजी से सार्वजनिक होती चली गईं, खुली हथेलियों से उनका नमाज पढ़ना और उनकी पार्टी के कई दिग्गज नेताओं के संरक्षण में चुनिंदा दुर्गा पूजा समारोह आम होते गए.

जब वो मुख्यमंत्री बनीं, तब यह नजारा बदल गया. अब वो कोलकाता की दुर्गा पूजा और यहां तक कि जिले की दुर्गा पूजा में प्राण प्रतिष्ठा के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान में भी भूमिका निभाने लगीं हैं. सामाजिक हैसियत प्राप्त करने के लिए वो देवी महात्म्य में दिये गये श्लोकों का उच्चारण भी करने लगीं हैं.

वाम दलों ने भी बनाया 'पूजो' को हथियार

1977 में सत्ता में आने से पहले बल्कि सत्ता में आने के बाद भी माकपा और उसके वामपंथी सहयोगी दलों के लिए धार्मिक उत्सव के राजनीतिक आयोजन पर पूरी तरह से रोक थी. राजनीतिक कारणों के अलावा यह साम्यवादी संहिता का एक हिस्सा था. धार्मिक व कर्मकांड वाले समारोहों के साथ किसी भी तरह के सार्वजनिक जुड़ाव से परहेज वामपंथी पार्टियों की जड़ों में गहरा था.

धार्मिकता और कर्मकांड से जुड़ाव सही मायने में उस धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का सरेआम उल्लंघन माना जाता था, जिसके आधार पर धर्म से राजनीति को अलग करना व व्यवस्था से धर्म को अलग मानना जरूरी था. लेकिन धीरे-धीरे यह परहेज़ खत्म हो गया. अधिक-से अधिक सीपीआई-एम नेता उस सर्वोजनीन पूजा की तरफ इस दलील के साथ मुड़ते गए कि यह एक सार्वजनिक समारोह है जिसका चरित्र धार्मिक नहीं है.

किसी धार्मिक समारोह की बजाय दुर्गा पूजा को एक सामान्य उत्सव के रूप में ब्रांडिंग करके सीपीआई-एम ने अपनी हिचकिचाहट को दूर कर लिया.

धार्मिक-राजनीति से धर्मनिरपेक्ष-राजनीति को अलग करने वाली रेखा की धोखाधड़ी असल में एक "त्योहार" के साथ सहयोग करके वामपंथ को उसी खांचे में लोकप्रिय बनाने की एक अद्भुत् चाल थी. इसके बाद स्थानीय पार्टियों का संरक्षक बनना, उत्सुकता से भाग लेना और विभिन्न क्षेत्रों में समारोहों के संरक्षण को लेकर प्रतिद्वंद्विता करना, ये सब जनता को अपनी ओर खींचने की एक रणनीति थी. समारोह का दरवाजा खोलकर सीपीआई-एम ने धार्मिकता की बाढ़ ला दी.

बीजेपी-आरएसएस ने बदला खेल

बीजेपी, आरएसएस और उसके सहयोगियों ने पिछले कुछ उदाहरणों के आधार पर इस मामले को और आगे बढ़ा दिया है. अंतर इतना ही है कि रामनवमी उत्सव में सशस्त्र युवा और यहां तक कि बच्चों के जुलूस भी आयोजित होने लगे हैं, क्योंकि राम हमेशा सशस्त्र थे. बीजेपी ने पाड़ा (आवासीय समुदाय) पूजा के स्थानीय राजनीतिक नेताओं के बीच की साधारण प्रतिस्पर्धा की तुलना में एक और अधिक खतरनाक और अस्थिर राजनीति से खुद को जोड़ लिया है.

तृणमूल कांग्रेस ने आरएसएस-बीजेपी और उनके सहयोगियों द्वारा लामबंदी के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया दी है. तृणमूल कांग्रेस ने अंधाधुंध हनुमान पूजा का आयोजन करके एक दांव खेला है लेकिन इससे ममता बनर्जी का भय भी उजागर हो गया है कि कहीं हालात असामान्य न हो जाएं.

रामनवमी समारोह की घोषणा के बाद बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस आमने-सामने थी. इस चुनौती का सामना करने और अपनी उस स्थिति को फिर से हासिल करने के लिए तृणमूल कांग्रेस को भी कुछ करना था, जिसे बीजेपी तेजी से खिंचती जा रही है. मगर ममता बनर्जी के पास इसे बर्दाश्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

इसका मतलब यह हो सकता है कि अब अगर बीजेपी-आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन उन्हें भड़काते हैं, तो ऐसे में 'बंगाल की मां' के रूप में अपनी छवि की रक्षा करने के उपायों पर विचार करना होगा.

एक दूसरे पर हावी होने का खेल खतरनाक है. यह खेल ममता बनर्जी को ही कमजोर करेगा और बीजेपी को राजनीतिक लाभ दिला सकता है. इससे बचने की यही उम्मीद है कि 1947 से लेकर अब तक कायम रहने वाले धार्मिक सौहार्द्र की मजबूत परिपाटी फिर से मजबूत की जाए. ऐसा करने के लिए सीपीआई-एम और कांग्रेस को भी अपनी मौजूदा कमजोरियों पर काबू पाकर हाथ बंटाना होगा.

रामनवमी और हनुमान पूजा समारोह बंगाल में होने वाली भविष्य की राजनीति के बदलाव की दिशा की ओर इशारा करते हैं. ये बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि लोग धर्मनिपरपेक्षता या बहुसंख्यक सांप्रदायिकता में से किस विकल्प को ज्यादा तरजीह देते हैं.