view all

नरेंद्र मोदी पर हमला कर कांग्रेस को विपक्ष की अगुआ के रूप में पेश कर रही हैं सोनिया गांधी

सोनिया गांधी बहुत सधी हुई नेता हैं, उससे कहीं ज्यादा सधी हुई जितना कि उनके बारे में बताया जाता है और अपने सियासी कौशल से उन्होंने भांप लिया होगा कि 2019 के परिणाम किस तरफ जा रहे हैं?

Sreemoy Talukdar

जब कोई बल्लेबाज हर गेंद को चाहे वह पिच पर जहां भी टप्पा खाए, मैदान के पार पहुंचा रहा हो तो आप समझ जाते हैं कि या तो वह कोई पुछल्ला बल्लेबाज है या फिर मैच के आखिर के स्लॉग ओवरों की शुरुआत हो चुकी है. अब अगर एनडीए आम चुनावों की तारीख आगे बढ़ाने का फैसला करती है तो हमें दिसंबर महीने तक का इंतजार करना होगा. मतलब अभी स्लॉग ओवरों की शुरुआत होनी बाकी है और सोनियां गांधी भी कोई सबसे आखिर के बल्लेबाजों में शामिल नहीं. फिर आखिर वो शुक्रवार के दिन मुंबई में इंडिया टुडे के कॉन्क्लेव में क्या जताने की कोशिश कर रही थीं? आगे हम देखेंगे कि वो एक ही साथ कई काम करने की कोशिश कर रही थीं.

खुद को विपक्ष की अगुआ के रूप में पेश कर रही है कांग्रेस


एक जाहिर सी बात तो यह है कि अपने भाषण के जरिए उन्होंने सीध-सीधे नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा और देश के मौजूदा तमाम वास्तिवक और काल्पनिक समस्याओं का दोष नरेंद्र मोदी के मत्थे मढ़ा. यह तो खैर बिल्कुल जाहिर सी बात है और इसे अपवाद की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता. लेकिन जरा गहराई में उतरकर देखें तो सोनिया गांधी की कोशिश कांग्रेस को विपक्ष का अगुआ जताने की थी, प्रमुख विपक्ष होने की जो जमीन और बागडोर कांग्रेस के हाथ से निकल चुकी है उसे सोनिया गांधी फिर से कांग्रेस के हाथ में थमाने की कोशिश कर रही थीं. जाहिर है, इसका सबसे आसान तरीका यही है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पर कड़े शब्दों में हमला बोला जाए.

ब्रांड मोदी इतना ज्यादा मजबूत हो चला है कि अब कोई पूरा का पूरा राजनीतिक करियर ही इस ब्रांड से टकराते हुए फिर से खड़ा कर सकता है या नए सिरे से बना सकता है. सोनिया गांधी बहुत सधी हुई नेता हैं, उससे कहीं ज्यादा सधी हुई जितना कि उनके बारे में बताया जाता है और अपने सियासी कौशल से उन्होंने भांप लिया होगा कि 2019 की चुनावी जंग से पहले मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के मंचों पर कांग्रेस को विपक्ष के अगुआ के रूप में पेश करने की जरूरत है.

ऐसा करना बहुत अहम है क्योंकि कई बेजान नतीजों और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और एनसीपी के मुखिया शरद पवार जैसे नेताओं की पेशकदमी से ‘तीसरे मोर्चे’ के गठन की उठती बातों के बीच कांग्रेस का नेतृत्व सवालों के घेरे में आ गया था. शरद पवार तो खैर नई दिल्ली में 27 और 28 तारीख को बीजेपी-विरोधी पार्टियों की एक बैठक भी कर रहे हैं और हाल ही में उन्होंने ममता बनर्जी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रफुल्ल पटेल को पश्चिम बंगाल भेजा था.

ममता बनर्जी राहुल को दोष देने में लगी हैं

सोनिया गांधी के मन में चिंता यह सोचकर जागी होगी कि विपक्ष के कुछ नेता बीजेपी से ही नहीं बल्कि कांग्रेस से भी दूरी बनाकर चलने की बात कह रहे हैं. न्यूज18 की एक रिपोर्ट के मुताबिक के.चंद्रशेखर राव ने कहा है ‘राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव की गंभीर जरूरत है. आजादी के बाद सत्तर साल गुजर चुके हैं इन सत्तर सालों में 64 सालों तक कांग्रेस या फिर बीजेपी का शासन रहा. लेकिन 70 सालों के बाद भी लोग कठिनाइयों से घिरे हैं, उन्हें पीने का पानी तक नहीं मिलता. अब तीसरा मोर्चा कहिए या कुछ और लेकिन बात भारत के लोगों को एकजुट करने की है. बात कुछ राजनीतिक दलों के बीच एका कायम करने भर की नहीं है. और, यह एका बीजेपी और कांग्रेस को परे हटाकर ही कायम होगा, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं है.’

यह भी पढ़ें: RSS: भैया जी जोशी के नंबर दो बने रहने के मोदी सरकार के लिए क्या हैं मायने

पवार विपक्षी दलों की बैठक आयोजित कर रहे हैं तो के.चंद्रशेखर राव कांग्रेस और बीजेपी को अलग रखते हुए तीसरा मोर्चा बनाने की बात कह रहे हैं जबकि पूर्वोत्तर में कांग्रेस की हार के लिए ममता बनर्जी राहुल को दोष देने में लगी हैं. चुनाव के नतीजों के सामने आने के तुरंत बाद तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ने मीडिया से कहा कि राहुल ने गलती की जो त्रिपुरा के चुनावों के लिए हाथ मिलाने के मेरे निमंत्रण को ठुकरा दिया. ममता बनर्जी ने कहा ‘त्रिपुरा के नतीजे सीपीएम के घुटने टेक देने और कांग्रेस की नाकामी का इजहार कर रहे हैं.’

यह बात कोई ढंकी-छुपी नहीं है कि ममता बनर्जी राहुल की सियासी काबिलियत को लेकर संदेह करती आई हैं और उन्हें सियासी तालमेल की बातें राहुल की बनिस्बत सोनिया गांधी से करना कहीं ज्यादा पसंद है. लेकिन कांग्रेस में नेतृत्व बदल गया है सो ममता बनर्जी के लिए चीजें तनिक जटिल हो गई हैं. फिर इस तीसरे मोर्चे के बाकी धड़े भी राहुल को लेकर समान रूप से शंकित हैं. मिसाल के लिए आरजेडी के प्रमुख लालू यादव ने पिछले साल मई महीने में ‘बीजेपी भगाओ देश बचाओ’ रैली के लिए निवेदन किया था कि उसमें सोनिया गांधी या फिर प्रियंका गांधी भागीदारी करें. टेलीग्राफ में छपी खबर के मुताबिक लालू यादव ने सोनिया गांधी से फोन पर कहा था कि आपको रैली में आना चाहिए लेकिन किसी कारण से अगर आप नहीं आ पातीं तो फिर रैली में भागीदारी के लिए कृपया प्रियंका गांधी को भेजिएगा.

इन बातों के मद्देनजर कांग्रेस के लिए अपनी वैधता की समस्या है और ठीक इसी कारण सोनिया गांधी ने अपने भाषण में कहा कि 2019 के चुनावों के लिए विपक्षी पार्टियों को अपने मतभेद भुलाते हुए ‘देश के व्यापक हित’ में ‘दमनकारी मोदी सरकार’ के खिलाफ एका कायम करना चाहिए. निस्वार्थ जान पड़ते इस आह्वान में यह संदेश छुपा हुआ है कि कायम होने वाला कोई भी एका कांग्रेस को बाहर रखकर नहीं हो सकता.

उन्होंने कहा, ‘हमने पहले भी साथ मिलकर काम किया है. संसद में, खासकर राज्यसभा में तालमेल कायम है. हमारी पार्टी सहित बाकी दलों के लिए यह जरा कठिन है. राष्ट्रीय स्तर पर कुछ मुद्दों पर हम एक साथ आ सकते हैं. लेकिन जमीनी स्तर पर हम एक-दूसरे के विरोधी हैं. हमारी पार्टी समेत बाकी दलों की तरफ से बहुत सारे दबाव हैं, मिसाल के लिए पश्चिम बंगाल तथा अन्य कई राज्यों में. इसलिए यह बहुत कठिन काम है. अगर हम देश को लेकर फिक्रमंद हैं और देश के लिए हमारे दिलों में जज्बा है तो हमें स्थानीय स्तर के मतभेद भुलाने होंगे.’

कांग्रेस का लगातार गिरता ग्राफ

सोनिया ने गरजदार लफ्जों में कहा ‘साल 2019 में हम सत्ता में वापस आ रहे हैं. हम उन्हें सत्ता में नहीं आने देंगे.’ उन्होंने तो यह तक कह दिया कि अच्छे दिन बीजेपी को उसी तरह डूबो देंगे जैसे शाइनिंग इंडिया ने डुबोया था. अब ऐसा हो पाता है या नहीं इसका फैसला तो खैर मतदाता करेंगे. लेकिन सोनिया गांधी के लफ्जों से एक अहंकार और हकदारी का भाव झांक रहा था और यह कुछ बेजा जान पड़ रहा था.

आखिर हाल में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत लचर रहा है. मेघालय ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा जहां कांग्रेस को कहने भर की कुछ सीटें मिलीं लेकिन वहां भी उसके सीटों की तादाद 2013 के 29 से घटकर 21 पर पहुंच गईं. नगालैंड में तो कांग्रेस खाता ही नहीं खोल पाई जबकि 2013 में उसने आठ सीटें जीती थीं. नगालैंड में कांग्रेस का वोटशेयर 24.89 फीसद से घटकर धड़ाम से 2.1 प्रतिशत पर आ गिरा है लेकिन बीजेपी ने अपने वोटशेयर में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी की है. इसी तरह त्रिपुरा में भी कांग्रेस के वोटशेयर ने गोता लगाया है और 2013 में जो वोटशेयर अच्छा-खासा (36.53 प्रतिशत) था वह घटकर एकदम से 1.8 प्रतिशत पर आ पहुंचा है. कहने की जरुरत नहीं कि कांग्रेस को यहां एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

यह भी पढ़ें: चंद्रबाबू नायडू के लिए दूसरा हाईटेक झटका होगा अमरावती

अगर हम जरा कुरेदकर सतह के नीचे झांके तो हाल के चुनावों में कांग्रेस ने जोर-शोर तो खूब लगाया लेकिन ये चुनाव कांग्रेस के लिए जरा भी उम्मीदों के अनुरूप नहीं साबित हुए.

मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कोलरस तथा मुंगवली की सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा जहां यह 2013 से ही काबिज थी. लेकिन सोनिया गांधी के लिए चिन्ता का सबब यह होना चाहिए कि इन दोनों सीटों पर कांग्रेस का वोटशेयर बहुत नीचे आ गया है. मिसाल के लिए मुंगवली में कांग्रेस को 20 हजार वोटों से जीत मिली थी जबकि अबकी बार उसे 2000 वोटों के अंतर से जीत मिली है. कोलरस में कांग्रेस को 2013 में 25 हजार वोटों के अंतर से जीत हासिल हुई थी जबकि इस बार जीत का अंतर 8 हजार वोटों तक सिमट आया है. बीजेपी का शासन पंद्रह सालों से जारी है तो भी इन दोनों सीटों पर बीजेपी ने अपना वोटशेयर अच्छा-खासा बढ़ाया है. मीडिया में कांग्रेस बेशक बड़बोली कर रही है लेकिन वोटशेयर के घटने को लेकर भीतर ही भीतर तकरार शुरु हो चुकी है.

कांग्रेस के लिए तस्वीर राजस्थान में कुछ साफ है

इकोनॉमिक्स टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि ये दोनों सीटें पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में आती हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यहां पूरे दमखम के साथ चुनाव-प्रचार किया और बहुत मुमकिन है अब सूबे में पार्टी के नेताओं के बीच इस बात को लेकर खींचतान शुरु हो कि सिंधिया अपनी अगुवाई में पार्टी को आठ महीने बाद होने जा रहे चुनावों में जीत दिलाने में कामयाब हो भी पाएंगे या नहीं.’

कांग्रेस के लिए तस्वीर सिर्फ राजस्थान में उजली दिख रही है. यहां पार्टी ने उपचुनावों मे दो सीटों पर जीत दर्ज की है और स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बेहतर प्रदर्शन किया है. लेकिन यह तर्क देना जरा मुश्किल है कि राजस्थान के बेहतर प्रदर्शन के आधार पर सोनिया गांधी मानकर चल सकती हैं कि कांग्रेस 2019 में बीजेपी को सत्ता से बाहर कर सकने की हालत में है जबकि देश की सबसे पुरानी पार्टी का प्रदर्शन बाकी जगहों पर लचर होता जा रहा है.

इसलिए हमें किसी और संभावना पर गौर करना होगा, यह मानकर चलना होगा कि अपने दर्दमंद श्रोताओं के बीच मोदी के खिलाफ पुराने और थके मुहावरों के सहारे सोनिया गांधी ने जो उग्र तेवर अपनाये उसके पीछे एक बेचैनी झांक रही थी कि कुछ अहम राज्यों में होने जा रहे चुनावों के मद्देनजर पार्टी का मनोबल ऊंचा रखा जाए क्योंकि पार्टी के प्रमुख राहुल गांधी तो फिलहाल विदेश में हैं और खुद को दुनिया के सामने दिखाने में लगे हैं. सोनिया ने जताया है कि राहुल गांधी को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है.