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वामपंथ का गढ़ रहा है बेगूसराय, लेकिन आसान नहीं होगी कन्‍हैया कुमार की राह

पूरब के लेनिनग्राद के नाम से चर्चित बेगूसराय में कन्हैया के सहारे वामपंथ की वापसी का रास्ता जातीय समीकरण के दलदल में फंस सकता है

Alok Kumar

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ के पूर्व नेता कन्हैया कुमार को अगर बिहार की बेगूसराय लोकसभा सीट से विपक्ष का उम्मीदवार बनाया भी जाता है. तो भूमिहारों के दबदबे वाली इस सीट से उनका चुनावी आगाज़ बेहद कठिन होगा. पूरब के लेनिनग्राद के नाम से चर्चित बेगूसराय में कन्हैया के सहारे वामपंथ की वापसी का रास्ता जातीय समीकरण के दलदल में फंस सकता है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के राज्य सचिव सत्यनारायण सिंह ने न्यूज18 को बताया कि राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता लालू यादव और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कन्हैया की उम्मीदवारी का समर्थन किया है. उन्होंने कहा कि उम्मीदवार चयन की सांगठनिक प्रक्रिया में देरी हो सकती है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर उनके नाम पर सहमति है. उन्होंने कहा, 'जब राष्ट्रीय नेता चाहते हैं तो क्या आपत्ति हो सकती है. और बेगूसराय उनका घर है. चुनाव लड़ने में क्या हर्ज है.'


तेहरा को मिनी मास्को भी कहा जाता है

कन्हैया का घर बेगूसराय के बीहट गांव में है जो तेघरा विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा है. तेघरा को कभी मिनी मास्को भी कहा जाता था. 1962 के बाद से 2010 तक यह सीट सीपीआई के कब्जे में रही. कन्हैया खुद भूमिहार जाति से हैं जिसका दबदबा इस सीट पर शुरू से रहा है. लगभग 17 लाख मतदाताओं में भूमिहारों की संख्या सबसे ज्यादा है, इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग, मुसलमान और अनुसूचित जातियों की संख्या है. ओबीसी में कुशवाहा यानी कोईरी की संख्या सबसे ज्यादा है. भूमिहारों का वर्चस्व मटिहानी, बेगूसराय और तेघरा विधानसभा सीटों पर है.

भूमिहारों ने बेगूसराय को वामपंथ का गढ़ बनाया और फिर ढहा भी दिया. 60 के दशक में लाल मिर्च और टाल इलाके में दलहन की खेती से जुड़े लोगों ने वामपंथी आंदोलन का साथ दिया. शोषित भूमिहारों ने ही सामंत भूमिहारों के खिलाफ हथियार उठा लिया. 70 के दशक में कामदेव सिंह अंडरवर्ल्ड डॉन के रूप में उभरा और बेगूसराय खूनी संघर्ष का अखाड़ा बन गया.

सीपीआई ने भूमिहार नेताओं के दम पर दबदब कायम रखा

कामदेव के गुर्गों ने लोकप्रिय वामपंथी नेता सीताराम मिश्र की हत्या कर दी. इसके बावजूद चंद्रशेखर सिंह, राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे भूमिहार नेताओं के बूते सीपीआई ने इलाके में राजनीतिक दबदबा कायम रखा. 1995 तक बेगूसराय लोकसभा की सात में पांच सीटों पर वामपंथी दलों का कब्जा था.

हालांकि पतन की शुरुआत भी तभी हो गई. लालू यादव ने सवर्णों के खिलाफ मुहिम चलाई. मध्य बिहार में भूमिहारों की रणवीर सेना ने माले से दो-दो हाथ किया. कई जातीय नरसंहार हुए. इससे बेगूसराय के भूमिहारों का भी वामपंथ से मोह भंग हुआ. वो कांग्रेस की तरफ झुके और राजो सिंह जैसे नेता का कद बढ़ा. पर, 1997 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने राबड़ी सरकार को समर्थन देकर राजनीतिक भूचाल पैदा कर दिया.

लालू के साथ के बाद वामपंथ हुआ इलाके से साफ

भूमिहारों का बड़ा तबका कांग्रेस से दूर हो गया और वो समता पार्टी-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के साथ चले गए. 2000 के चुनाव में लालू ने सीपीआई और सीपीएम के साथ राजनीतिक साझीदारी कर ली और इसी के साथ पूरब के लेनिनग्राद से वामपंथ की समाप्ति की कहानी लिख दी गई.

इसलिए कन्हैया कुमार को शायद ही भूमिहारों का व्यापक समर्थन मिलेगा. उनके पास वैचारिक धरातल पर वामपंथ की जमीन तैयार करने का न समय है और न ही कोई ऐसा कारण मौजूद है. कन्हैया की लड़ाई पूरी तरह जातीय समीकरणों पर टिकेगी. आरजेडी के समर्थन से मुसलमानों और यादवों का समर्थन उनको मिलना तय है लेकिन ये जिताऊ समीकरण नहीं है. इसके लिए कन्हैया को बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगानी होगी.