देश में 'प्रश्नकाल' का दौर चल रहा है. सड़क से संसद तक नेताओं के विदेशी दौरे पर सवाल उठ रहे हैं. हर कोई विदेशी दौरे की चर्चा में मशगूल है. किसी से यात्रा का पूरा विवरण मांगा जा रहा है तो किसी से विदेशी दौरे के खर्च का ब्यौरा.
मांगने का अंदाज भी ऐसा है जैसे पड़ोसी के घर से दही जमाने के लिए जामन मांग रहे हों. हाल यह है कि नेताओं की नई पौध को जितना दुख अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वीजा नीति में बदलाव से नहीं हुआ. उससे अधिक दुख इन सवालों से हो रहा है.
देश में विदेशी दौरे का ऐसा गरीबीकरण पहले कभी नहीं देखा गया. इतिहास बताता है कि पहले भी राजनेता अंदरूनी राजनीति से थककर विदेश दौरे पर जाते रहे हैं. स्टडी टूर और स्किल डेवलपमेंट के नाम पर सरकारी खर्च से निजी जीवन के सुखों का लुत्फ उठाते रहे हैं.
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कहा भी गया है कि 'देश की चोरी, परदेश की भीख' बराबर है. लिहाजा देश में आदिकाल से इस परंपरा का पालन होता रहा है. राजा-महाराजा हों या संत-महात्मा सभी ने अनुकूल स्थिति देखकर विदेश दौरे का स्वाद लिया.
राष्ट्रपिता बापू ने विदेशी जमीन पर सत्याग्रह करना सीखा
अर्थशास्त्री तो इसे आर्थिक प्रक्रिया का हिस्सा मानते हैं. उनके अनुसार चंदा उगाना हो या चंदे को सही ठिकाना लगाना हो, दोनों ही स्थिति में विदेशी दौरा हितकर है. आम जनमानस भी विदेशी जमीन पर किए गए पुरुषार्थ को ही सम्मान देती है. खिलाड़ी हो, अभिनेता हो या संत-महात्मा हुनर और प्रतिभा को तभी तरजीह मिलती है जब जमीन फिरंगी हो.
भगवान राम ने विदेशी जमीन पर ही अपनी प्रभुताई दिखाई. विवेकानंद ने विदेशी जमीन पर ही हिंदू सनातन धर्म को नई ऊंचाई दी. नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने विदेश जमीन पर ही आजादी की लड़ाई को नई धार दी.
राष्ट्रपिता बापू ने भी विदेशी जमीन पर सत्याग्रह करना सीखा. सिकंदर विदेशी धरती पर आकर ही महान हुआ. फिल्मी आइकन भी इससे सहमति भी जताते हैं कि बॉलीवुड में चाहे जितना स्टारडम हो जलवा हॉलीवुड से ही छाता है.
माल्या और ललित मोदी की महत्ता भी विदेश जाने के बाद ही बढ़ी. नीतिज्ञाता चाणक्य भी कहते हैं सत्ताधारी वहीं अच्छा होता है जो देश-विदेश जाता हो, जो हमेशा गतिमान रहता हो. पर देश में सबकुछ उल्टा हो रहा है. कोई विदेश दौरे के लेखा-जोखा की मांग को लेकर अनशन कर रहा है तो कोई आरटीआई डाल रहा है. दहशत का आलम यह है कि विदेश प्रवास पर गए गांधीवादी नेताजी मुंह जलने के डर से इसबार 'कोल्ड कॉफी' भी फूंक-फूंक कर पीते रहे हैं.
अवधू गुरू तो विदेशी दौरे पर सवाल उठाने वालों से काफी नाराज हैं. गुरू का मानना है कि विदेश दौरे पर सवाल उठाना सनातन 'वसुधैव कुटुम्बकम' के सिद्यांत और भारतीय परंपरा के खिलाफ है. इससे असहिष्णुता फैलेगी. गुरु का विदेश प्रेम नया नहीं है, जवानी के दिनों से ही इसी परंपरा पर चलते रहे हैं.
किशोर आवस्था से ही गुरु विदेशी चीजों के दीवाने रहे हैं. सूट से लेकर शराब तक गुरु की पहली पसंद विदेशी ही रही है. दिल के मामले में भी गुरु का विदेश प्रेम कम नहीं रहा है. जवानी के दिनों में न जाने कितनी विदेशी गोरियों से गुरु की आंखें दो-चार हुईं, वो तो पिताजी ने विरोध कर दिया वर्ना गुरु भी आज पूर्व पीएम राजीव गांधी की तरह विदेश के दामाद होते.
स्टार्टअप इंडिया के दौर में विदेशी दौरों पर सवाल क्यों?
पीएम मोदी जी के धुंआधार विदेशी दौरे से गुरु को उम्मीद बंधी है. गुरु को भरोसा है कि 'मेक इन इंडिया' के तहत 'इसरो' जिस तरह सफलता के नए-नए कीर्तिमान बना रहा है, अंतरिक्ष में नित नए उपग्रह भेज रहा है.
तो वह दिन दूर नहीं जब विदेश क्या, मंगल ग्रह के लिए जनसुलभ 'वर्चुअल सीढ़ी' तैयार कर ली जाए. और मंगल ग्रह पर 'मेगा पीएमओ' की स्थापना हो जाए. मेगा इसलिए क्योंकि 'मिनी पीएमओ' तो पहले से ही गुरू के शहर बनारस में स्थापित है.
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स्टार्टअप इंडिया के दौर में नेताओं को देश की सीमा में बांधना और उनके विदेशी दौरे पर सवाल उठाना हास्यास्पद है. यह विडंबना नहीं तो क्या है, कि 'कमला पसंद' खाकर दिनभर आराम फरमाने वाली जनता, नेता को हमेशा 'काम पसंद' देखना चाहती है.
अपनी छुट्टियों का वार्षिक कार्यक्रम साल भर पहले तय कर लेने वाली जनता. नेता के विदेश प्रवास पर ऐसा बवाल काटती है जैसे उसने वोट देकर स्विस बैंक का अकाउंट सौंप दिया हो. लीलाधर की सवाल उछालने वाले नेताओं को सलाह है कि विदेश दौरों से ध्यान हटाइए. आग को राख से नहीं पानी से बुझाइए.