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बाबरी मस्जिद केस: आडवाणी के लिए राजनीतिक झटका पर बीजेपी के लिए वरदान

Sandipan Sharma

बाबरी मस्जिद गिराने के षडयंत्र के आरोपी बीजेपी नेताओं के खिलाफ सुनवाई पूरी करने के सुप्रीम कोर्ट की तरफ से मिले दिशा निर्देशों के मायने अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हैं.

जिन लोगों को कर्म के सिद्धांत में भरोसा है, उनके हिसाब से एल के आडवाणी के कैरियर को लगा झटका उनके कर्म का ही नतीजा है.


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बिना लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि आडवाणी का कैरियर बाबरी मस्जिद से ही परवान चढ़ा था, उनके कैरियर को उस सौगंध की डोर से उड़ान मिली थी, जिसमें वो कहा करते थे कि किसी भी कीमत पर राम मंदिर का निर्माण वहीं होगा, जहां बाबरी मस्जिद है.

आडवाणी के राजनीतिक जीवन पर लग सकता है पूर्ण विराम 

आडवाणी को अगर बाबरी विध्वंस के लिए दोषी ठहराया जाता है, तो इसका अर्थ होगा उनके राजनीतिक भविष्य पर पूर्ण विराम.

इसमें तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि आडवाणी ही उस आंदोलन को नेतृत्व दे रहे थे, जिसके हत्थे विवादित मस्जिद चढ़ गयी. उनकी रथ यात्रा से 80 के दशक के आखिरी और 90 के दशक के शुरुआती दौर में मुखर होते हिंदुत्व में उबाल आ गया था और हजारों युवा उस सांप्रदायिक आंदोलन के लिए इकट्ठे हो गये थे.

यह अदालत को ही तय करना करना है कि इस मामले में बनाए गए आरोपी लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह और अन्य बीजेपी नेताओं ने ढांचे को ढहाने की साजिश रची थी या नहीं.

लेकिन, भीड़ के उमड़े सैलाब को नियंत्रित कर पाने की विफलता को लेकर उनमें से कोई भी उस नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी से भला कैसे बच सकते हैं, जिसे उन्होंने भारत तथा अयोध्या में विस्तार दिया था.

बाबरी विध्वंस के लिए आडवाणी कितने जिम्मेदार?

आडवाणी ने हमेशा ही इस बात से इनकार किया है कि उन्हें उस ढांचे को बलपूर्वक ढहाने वाली किसी योजना की भनक भी थी. उनका दावा है कि लंपट कारसेवकों ने एक-एक ईंट को खींचते हुए उस ढांचे को ढहा दिया था और इससे उनकी आंखों में आंसू आ गए थे.

हालांकि एक अन्य बयान में बताया गया कि बीजेपी के नेता घटनास्थल पर मौजूद थे और वहीं उन्होंने योजना बनायी थी तथा 6 दिसंबर 1992 को जैसे ही उनकी साजिश कामयाब हुई, उनकी आंखों में खुशी के आंसू छलक आए.

वास्तव में आडवाणी ने 1989 से लेकर 1992 तक के उथल पुथल मचाने वाले दौर के दौरान कमंडल कार्ड को निष्ठुरता के साथ चला, जिसमें वोट के लिए पानी की तरह खून बहा और उस रक्तपात के लिए जिम्मेदार मुसलमानों को पकड़ा गया.

मस्जिद गिराए जाने के ठीक बाद आडवाणी ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बताया कि अगर मुसलमान खुद की पहचान को हिंदुत्व की अवधारणा से जोड़ लें, तो फिर दंगों के लिए कोई गुंजायश ही नहीं बचती है. (द टाइम्स ऑफ इंडिया, 30 जनवरी, 1993).

आडवाणी अपने बाबरी आंदोलन की खातिर कई तरह से पहले ही राजनीतिक कीमत अदा कर चुके हैं. भले ही उन्होंने 1984 में दो सीटें पाने वाली बीजेपी को 1991 में 117 सीटों तक पहुंचाया हो, लेकिन प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा धरी की धरी रह गई.

फसल बोई आडवाणी ने काटी किसी और ने 

तस्वीर: पीटीआई

बाद में अपनी शख्सियत को लेकर बनी बनायी धारणा को बदलने के लिए उन्होंने अपने हताशा भरे प्रयासों में मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ भी की और खुद पर ही व्यंग्य करते नजर आए.

उनका यह प्रयास ऐसा लगा मानो अपने कट्टर हिंदुत्व वाली छवि से वो पीछा छुड़ाना चाहते हों. तभी से आडवाणी अपनी ही पार्टी में किनारे लगा दिए गए हैं. यह तो आडवाणी ही बता सकते हैं कि जिस सांप्रदायिकता को उन्होंने खुद बोया था, किसी और द्वारा उसकी फसल काटते हुए देखना उन्हें कैसा लगता है.

विडंबना ही है कि बीजेपी के लिए यह आदेश अप्रत्यक्ष रूप से वरदान साबित हो सकता है. पार्टी के लिए तो यह एक ऐसे मौके की तरह है, जहां 2019 के चुनाव में पार्टी हिंदुत्व की इस हांडी को उबलते हुए रख सकती है और राममंदिर का मुद्दा उसके जरिए परोसा जा सकता है.

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इस केस की तेज और दिन-प्रति-दिन की होने वाली सुनवाई यह सुनिश्चित करेगी कि आजादी के बाद से ही बीजेपी तथा उससे संबंधित संगठनों के दिलों के करीब रहने वाला यह मुद्दा खबरों की सुर्खियां लगातार बना रहेगा.

इस सुनवाई को इसलिए भी अहम स्थान मिलता रहेगा क्योंकि इससे जुड़े लोग बीजेपी के आला नेताओं में से हैं. अंत में यह हिंदुत्व ब्रिगेड के लिए किसी जनसंपर्क साधने के मुद्दे में बदल सकता है.

बीजेपी शहीद बताकर ले सकती है राजनीतिक लाभ 

तस्वीर: पीटीआई

अगर आडवाणी, जोशी तथा अन्य नेता अभियुक्त बनाए जाते हैं, तो पार्टी उन्हें हिंदुत्व के कारण होने वाले शहीद की तरह पेश कर सकती है. ऐसे में देश में होने वाले चुनाव में राममंदिर आंदोलन की तरह इसका इस्तेमाल एक जबरदस्त आंदोलन के लिए किसी रणनीति की तरह किया जा सकता है.

गौरतलब है कि बहुसंख्यक पहले से ही खुद को उन अल्पसंख्यकों के खिलाफ मुखर रूप से सामने लाने की कोशिश कर रहा है  जिसके विरूद्ध वास्तविक और काल्पनिक बहुत सारी शिकायतें भी हैं.

अगर बीजेपी के इन नेताओं को अदालत छोड़ देती है, तो बीजेपी हमेशा की तरह अपने उच्च नैतिक आधार को पेश करते हुए कहेगी कि किस तरह उनके नेता सीता के समान दी गयी अग्नि-परीक्षा में सफल हुए हैं तथा इस अग्नि परीक्षा में तपकर पाक-साफ रूप में सामने आए हैं.

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आडवाणी के लिए किसी अन्य सोच को छोड़ भी दें, तो अपने जीवन के सांध्यकाल में वह पार्टी के लिए ऐसा रथ बन सकते हैं, जिसपर सवार होकर अगले चुनाव में उनकी पार्टी विजयी हो सकती है.

90 के दशक की तरह हो सकता है कि वो अपनी अंतिम यात्रा के लाभार्थी नहीं बन सकें. अगर उन्हें दोषी पाया जाता है, तो वो जेल में होंगे और अगर वह दोषी नहीं पाए जाते हैं, तो आजाद होंगे.

तो क्या आडवाणी के उस कर्म की यह पर्याप्त सजा नहीं होगी, जिसके कारण रक्तपात हुआ और जिसके लिए वो हमेशा दहाड़ते रहते थे : 'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे.'