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अयोध्या विवाद: BJP ने अर्जी डालकर हिंदुओं को खुश करना शुरू कर दिया!

मोदी सरकार की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई याचिका से जनता के बीच इस मुद्दे पर माहौल बनाने में मदद मिलेगी. मगर, देखना ये होगा कि सरकार की अर्जी पर अदालत क्या रुख अपनाती है

Sanjay Singh

मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है कि अयोध्या में विवादित 0.333 एकड़ जमीन के अलावा बाकी 67 एकड़ जमीन, दोबारा उनके असल मालिकों को लौटाने की इजाजत दी जाए. ये अधिक जमीन विवादित जमीन से अलग है. इसका अधिग्रहण 1993 में नरसिम्हा राव सरकार ने किया था.  इस अर्जी को देकर मोदी सरकार ने हिंदुत्ववादी समूहों की बहुत पुरानी मांग पूरी करने का कदम उठाया है. ये हिंदुत्ववादी समूह, बीजेपी के कोर समर्थकों में से हैं.

क्यों दायर की गई अर्जी?


सरकार ने ये अर्जी ठीक उसी दिन दी, जब सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यों वाली संविधान पीठ को राम मंदिर केस की सुनवाई करनी थी. लेकिन, एक जज की गैरमौजूदगी की वजह से सुनवाई टल गई थी. सरकार ने अदालत के सामने ये याचिका कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान के ठीक एक दिन बाद लगाई, जब कानून मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर विवाद की सुनवाई बार-बार टाले जाने पर सवाल उठाया था.

कानून मंत्री ने कहा था कि अदालत ने सबरीमाला, व्यभिचार के केस, समलैंगिक अधिकारों, अर्बन नक्सलियों और येदुयुरप्पा सरकार के विश्वास मत से जुड़े मामलों में तो काफी तेजी दिखाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने न तो राम मंदिर विवाद पर सुनवाई की अगली तारीख दी है. न ही अदालत ने सरकार की अयोध्या में विवादित जमीन से इतर, 67 एकड़ जमीन उसके पुराने मालिकों को वापस करने की इजाजत देने की अर्जी पर सुनवाई की कोई तारीख तय की है.

इस कदम के क्या मायने हैं?

सत्ता में साढ़े चार साल से ज्यादा वक्त गुजारने के बाद आखिरकार मोदी सरकार के सियासी नेतृत्व ने इस कदम को उठाकर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वो अपने वादे पूरे करने में जुटी है. मोदी सरकार हमेशा ये दावा करती रही है कि राम मंदिर उसके लिए आस्था का मसला है. सरकार के आखिरी कुछ दिनों में मोदी सरकार ने जमीन वापसी की याचिका दाखिल करने का जो कदम उठाया है, उसमें बडे राजनीतिक-सामाजिक संदेश छुपे हुए हैं.

अब इस कदम के कानूनी पहलुओं पर आने वाले दिनों और महीनों में अदालत में तर्क-वितर्क होंगे. लेकिन, अगले एक महीने में लोकसभा के चुनावों का एलान होने वाला है. ऐसे में इस याचिका के सियासी पहलू पर ज्यादा जोर रहेगा. बेशक  इस मुद्दे को चुनाव प्रचार के आखिरी दौर तक जोर-शोर से उछाला जाता रहेगा.

आइए पहले ये समझते हैं कि मोदी सरकार की याचिका है क्या.

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद जिसे बीजेपी 'विवादित ढांचा' कहती है, उसके विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था. साथ ही यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. उस वक्त केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी.

हालांकि जमीन राज्य का विषय है. लेकिन, चूंकि उस वक्त उत्तर प्रदेश केंद्रीय शासन के अधीन था, तो नरसिम्हा राव सरकार ने 1993 के अयोध्या के कुछ खास इलाकों से जुड़े कानून के तहत, 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया. इसमें 0.333 एकड़ की विवादित जमीन भी थी. केंद्र सरकार इस जमीन की संरक्षक बन गई.

इसके बाद रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के ठिकाने के इर्द-गिर्द सुरक्षा का कड़ा पहरा बिठा दिया गया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि विवादित जमीन और अधिग्रहीत जमीन में कोई भी बदलाव न किया जाए. इस जमीन की निगरानी के लिए एक रिसीवर की नियुक्त कर दी गई. पूरी 67.703 एकड़ जमीन के इर्द-गिर्द एक मजबूत दीवार उठा दी गई. जगह-जगह संतरियों के लिए निगरानी पोस्ट बना दी गईं. आज की तारीख में इस इलाके की निगरानी केंद्रीय अर्धसैनिक बल और यूपी-पीएसी बल करते हैं.

मोदी सरकार अब दो चीजों को बदलना चाहती है. पहले तो मोदी सरकार चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट 31 मार्च 1993 को दिए अपने आदेश में बदलाव करे. दूसरी बात ये कि जनवरी 1993 में नरसिम्हा राव सरकार ने जो जमीन अधिग्रहीत की थी, उसके मालिकाना हक में बदलाव हो. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका लगाई है उसके मुताबिक, अयोध्या की विवादित 0.333 एकड़ जमीन (या 2.77 एकड़ समूची विवादित जमीन) के अलावा बाकी की अधिग्रहीत की गई जमीन इसके असली मालिकों को वापस कर दी जाए, जो केंद्र सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी.

आखिर क्या है वजह?

मोदी सरकार की इस याचिका के पीछे की वजह भी दिलचस्प है. असल में ये जो 67 एकड़ अधिग्रहीत जमीन है, वो हिंदूवादी संगठनों की जमीन है, जिसे सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया था. नरसिम्हा राव सरकार ने जो 67 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की थी, उस में से 42 एकड़ जमीन राम जन्मभूमि न्यास की है. इस वक्त न्यास के अध्यक्ष रामविलास वेदांती हैं, जो पूर्व बीजेपी सांसद हैं.

विश्व हिंदू परिषद और दूसरे हिंदूवादी संगठन लंबे समय से ये मांग करते रहे हैं. उनका कहना है कि इस जमीन का ज्यादातर हिस्सा विवादित नहीं है. इसलिए सरकार इस पर से अपना कब्जा हटाए, ताकि राम मंदिर के आस-पास के इलाके को विकसित किया जा सके. अगर सुप्रीम कोर्ट इसकी इजाजत देता है, तो ये जमीन राम जन्मभूमि न्यास जैसे संगठनों को वापस कर दी जाएगी.

इससे गर्भगृह के अलावा राम मंदिर के बाकी हिस्से का निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा. सरकार ने ये याचिका विश्व हिंदू परिषद की प्रयागराज कुम्भ में होने वाली दो दिनों की धर्मसंसद से दो दिन पहले दिया है. ऐसी आशंका थी कि इस धर्मसंसद में संत समाज, राम मंदिर को लेकर कड़ा रुख अपना सकता है.

राम जन्मभूमि विवाद से जुड़े अपने फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने माना था कि विवादित जगह पर राम मंदिर था.

ये बात भारतीय पुरातत्व विभाग की खुदाई से साबित हुई. आज भी एक अस्थायी तिरपाल वाला राम मंदिर विवादित जगह पर विद्यमान है, जहां पर रामलला विराजमान हैं और उनकी रोज पूजा-अर्चना होती है. इस जगह पर पूजा पाठ दिसंबर 1949 से ही होती आ रही है, जब यहां पर रामलला की मूर्तियां स्थापित की गई थीं.

हिंदूवादी संगठन तर्क देते हैं कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट में बार-बार सुनवाई टलने से बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचती है और हिंदुओं का धैर्य समाप्त हो रहा है. हाल ही में आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने भी ये बात कही थी. अब मोदी सरकार ने इस याचिका से संघ और अपने मूल समर्थकों की अपेक्षाओं को पूरा करने का कदम उठाया है.

अध्यादेश क्यों नहीं ला सकती सरकार

मौजूदा सरकार के कार्यकाल की सीमा और 16वीं लोकसभा के कार्यकाल को देखते हुए अब इस मामले में सरकार अध्यादेश लाने की स्थिति में नहीं थी. इन्हीं कारणों से सरकार इस बारे में कोई बिल भी संसद में नहीं पेश कर सकी. इसकी वजह यही है कि चूंकि इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है, तो सरकार इस पर कानून नहीं बना सकती.

इसीलिए, ये याचिका ही वो माध्यम थी, जिसके जरिए मोदी सरकार ने ये संदेश देने की कोशिश की है कि वो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर संजीदा है. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अयोध्या के विकास को लेकर कई कदम उठाए हैं. योगी सरकार ने राम की 200 मीटर ऊंची प्रतिमा के निर्माण को भी मंजूरी दी है. वहीं, केंद्र सरकार ने अय़ोध्या में राम म्यूजियम बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है.

मोदी सरकार की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई याचिका से जनता के बीच इस मुद्दे पर माहौल बनाने में मदद मिलेगी. मगर, देखना ये होगा कि सरकार की अर्जी पर अदालत क्या रुख अपनाती है. अगर, कोर्ट इस याचिका को खारिज कर देता है, तो इससे बहुसंख्यक समुदाय में गुस्सा भड़केगा और ये बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाएगा.

सियासी तौर पर अहम उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान इससे ध्रुवीकरण होने की संभावना भी है. सोशल मीडिया और सामाजिक परिचर्चा के जरिए इसे लेकर बड़ा अभियान छेड़ा जा सकता है कि आखिर बार-बार हिंदू समुदाय को ही क्यों मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. और अगर सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार की याचिका को सुनवाई के लिए मंजूर कर लेता है, तो इसे सरकार की उपलब्धि बताया जाएगा. इसका भी लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान अलग तरह का असर दिखेगा.