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वाजपेयी के अनसुने किस्से (पार्ट-1): आखिर क्या है आडवाणी के साथ 3 घंटे तक चले लंच का राज?

वाजपेयी ने उनके और आडवाणी के बीच चल रही तनाव की खबरों पर अपनी समझदारी और योग्यता से ब्रेक लगा दिया, वो भी महज एक फोन कॉल से. वो कॉल भी उन्होंने आडवाणी को नहीं किया बल्कि उनकी पत्नी कमला को किया था

Ajay Singh

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो चुका है. उसी पंचतत्व में जिससे हम बने हुए हैं और यही पंचतत्व हमें हमेशा ये याद दिलाता है कि आप चाहे कितनी भी ऊंचाई तक पहुंच जाएं या सफलता प्राप्त कर लें अंतिम परिणति यही है. वाजपेयी भले ही हम लोगों से दूर दूसरी दुनिया में जा चुके हों, उनकी यादें हमारे साथ हैं. उनकी बातें हमें ये साबित करने को बाध्य करती है कि एक अकेला व्यक्ति भी अपने कर्मों की बदौलत इतिहास की धारा को बदल सकता है. वाजपेयी ने भारतीय राजनीति और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की पूरी कोशिश की और इस कोशिश में उन्होंने रचनात्मक विरोध को भी अहम स्थान दिया.

वाजपेयी को उनके जाने के बाद लोग काफी याद कर रहे हैं. जो लोग उनके स्टेट्मैनशिप, मिलनसार स्वभाव और उनकी हाजिरजवाबी को याद कर रहे हैं वो उनके व्यक्तित्व की महज चंद खूबियों से ही परिचित रहे हैं. निश्चित रूप से उनके व्यक्तित्व की इन खूबियों की वजह से वो लोगों की नजर में विशिष्ट बने लेकिन ये विशेषताएं तो वाजेपयी के व्यक्तित्व में मौजूद कई खूबियां में से महज चंद ही थी.


वाजपेयी की कहानी शुरू हुई थी एक ऐसी राजनीतिक शक्ति के साथ जो कि उनके शुरुआती जीवन काल में अंतरिम स्वरूप के साथ मौजूद था लेकिन उनके जीवन का अंतिम समय आते-आते ये स्वरूप इतना प्रखर हो गया कि उसने अपने आप को भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. राजनीतिक बदलाव का उतार चढ़ावों वाला ये सफर हमें शायद देखने को नहीं मिलता अगर वाजपेयी इन बदलावों के अगुआ नहीं होते.

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लेकिन ये सब हुआ कैसे? इसके लिए मुझे आपको कुछ घटनाओं की तह तक ले जाना पड़ेगा, जिससे साबित होगा कि वाजपेयी की उपस्थिति ने कैसे राजनीति के उस परिदृश्य को उलटने की कोशिश की जिन पर पहले केवल कांग्रेस पार्टी का ही कब्जा हुआ करता था. इन घटनाओं ने भारतीय राजनीतिक पटल पर भारतीय जनता पार्टी के आगमन की सूचना दे दी थी. इतना ही नहीं इन घटनाओं से तय हो गया था कि भारतीय जनमानस पर दशकों से राज करने वाली पार्टी कांग्रेस को चुनौती देने के लिए बीजेपी का उदय हो चुका है. कई मौकों पर ऐसा भी लगा कि अगर वाजपेयी उन मौकों पर जरा सा भी चूकते तो वो पार्टी के लिए घातक साबित होता. लेकिन वाजपेयी असाधारण प्रतिभा के स्वामी थे. उन्हें मालूम था कि परिस्थितियों के मारे लोगों के विश्वास और दिल कैसे जीता जाता है.

एक फोन कॉल से वाजपेयी ने खत्म कर दी थी सारी अफवाहें

अगर आपको उनकी इस असाधारण प्रतिभा पर जरा सा भी शक है तो इस कहानी पर नजर डालिए. वर्ष 2001 की बात है, सामान्य जाड़े का समय था और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने पंडारा पार्क वाले घर से अपने नॉर्थ ब्लॉक दफ्तर की ओर रवाना होने वाले थे. वो अपनी गाड़ी में बैठने वाले ही थे कि तभी उनकी पत्नी कमला आडवाणी दौड़ते हुए आई और उनसे कहा कि 'अटल जी ने अभी फोन किया था.' आडवाणी को लगा कि शायद अटल ने उनके लिए फोन किया होगा. लेकिन आडवाणी की बात काटते हुए कमला आडवाणी ने कहा कि 'अटल जी ने मुझे फोन करके कहा है कि वो कल हमारे घर दिन का खाना खाने आएंगे.' उनके इस स्वभाव से परिचित आडवाणी ने पत्नी पर नजर डाली और अपने दफ्तर रवाना हो गए.

ये उस समय का दौर था जब बीजेपी के दोनों शीर्ष नेताओं और एनडीए सरकार के दो प्रमुख स्तंभों के बीच तनाव को लेकर मीडिया में पूरी कयासबाजी चल रही थी. उस समय जम्मू-कश्मीर के मामलों और ब्रजेश मिश्र को नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर और पीएम के प्रिंसिपल सेक्रेटरी, जैसे दोनों शक्तिशाली पदों पर नियुक्त करने जैसे मामलों पर वाजपेयी और आडवाणी के बीच तनाव की खबरें मीडिया में तैर रही थीं. उस समय ये अफवाहें जोर पर थीं कि दोनों बड़े नेताओं में आपसी बातचीत न के बराबर हो रही थी.

इससे पहले वाजपेयी का आडवाणी के घर खाना खाने आना कोई नई खबर नहीं थी. वाजपेयी को कमला आडवाणी के हाथ का बनाया हुआ खाना काफी पसंद आता था और वो कई बार खाना खाने उनके घर आ जाते थे. लेकिन इस बार मामला दूसरा था और दूसरी तरह का संदेश देने की कोशिश की गई थी.

प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय के बीच तनाव की खबरें सत्ता के गलियारों में काफी तेजी से फैल रही थी और इसकी वजह से सरकार के कामकाज पर भी असर पड़ रहा था. इसमें कोई दो राय नहीं कि आडवाणी और वाजपेयी के बीच तनाव की खबरें एक ऐसा वर्ग भी उड़ा था जिसका इसमें निजी स्वार्थ जुड़ा हुआ था. ये लोग दोनों के बीच तनाव की खबरों के बीच अपना फायदा उठाना चाह रहे थे.

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वाजपेयी ने उनके और आडवाणी के बीच चल रही तनाव की खबरों पर अपनी समझदारी और योग्यता से ब्रेक लगा दिया, वो भी महज एक फोन कॉल से. वो कॉल भी उन्होंने आडवाणी को नहीं किया बल्कि उनकी पत्नी कमला को किया और खुद को ही घर पर खाना खाने के लिए आमंत्रित कर लिया. स्पष्ट रूप से ये तरीका केवल वाजपेयी का ही हो सकता था जो ये बताता है कि उनकी विशेष बॉन्डिंग न केवल आडवाणी के साथ थी बल्कि उनके परिवार के साथ भी उनका गहरा लगाव था. वो शायद नहीं चाहते थे कि 5 दशकों से चला आ रहा उनका संबंध महज कुछ तुच्छ वजहों की भेंट न चढ़ जाए. अगले दिन वाजपेयी का दोपहर के भोजन का सत्र तीन घंटे तक चला जिसमें सिंधी व्यंजनों के स्वाद में सभी गिले शिकवे बह गए.

इस कहानी का सार ये है कि वाजपेयी में किसी तरह का झूठा अहम और घमंड नहीं था जो कि उनके द्वारा किए जा रहे सामाजिक हितों से जुड़े कार्यों के आड़े आ जाता. वाजपेयी की इस पहल ने बड़े स्तर पर मीडिया का ध्यान आकृष्ट किया क्योंकि वाजपेयी सरकार के मुखिया थे और आडवाणी सरकार में सबसे शक्तिशाली मंत्री. इस वाकये के अलावा ऐसे कई उदाहरण हैं जब वाजपेयी ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पार्टी की बेहतरी के लिए कुर्बान कर दी थी.

दीनदयाल उपाध्याय को वाजपेयी में अपना नेहरू दिखता था

शुरुआत से ही, जब वो 1957 में भारतीय जनसंघ के सदस्य के रूप में पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए, उन्होंने अपनी खासियत साबित करते हुए अपने आप को उस समय के शीर्ष नेताओं की श्रेणी में शामिल करा लिया. उनकी दृढ़ता और वक्तृत्व ने उनको बड़े नेताओं में शुमार कर दिया था. उस समय के कुछ अंग्रेजी बोलने वाले और कुलीन वर्ग के नेताओं से इतर वो अपनी बात हिंदी में रखते थे और उनका हिंदी में अपनी बात रखने का अंदाज सबसे जुदा था. वाजपेयी हिंदी के एक प्रखर वक्ता थे और उनका धोती कुर्ता का पहनावा सीधे उन्हें जमीनी स्तर पर लोगों से जोड़ देता था. वो उस समय के विदेश से शिक्षा ग्रहण किए हुए और अंग्रेजी में बात करने वाले उन नेताओं से बिल्कुल अलग दिखते थे जिन्हें अपनी अंग्रेजी पर और विदेशी शिक्षा पर गुमान था. शायद यही वजह थी कि आम जनता ने वाजपेयी में अपनी झलक देखी और उन्हें तुरंत स्वीकार्यता प्रदान कर दी.

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वाजपेयी के मेंटर दीनदयाल उपाध्याय थे और इसमें कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं कि दीनदयाल के अपने अनुमान के मुताबिक वाजपेयी में उन्हें अपना नेहरू नजर आता था. एक ऐसा नेहरू जिसमें आकर्षण तो नेहरू जैसा ही था लेकिन वो भारतीय संस्कृति और परंपरा से गहरे रूप में जुड़ा हुआ था. भरतीय जनसंघ जैसी अनुभवहीन पार्टी के लिए वाजपेयी में कांग्रेसी परंपरा का चुनौती देने का सामर्थ्य दिखाई देता था. हालांकि उस समय भारतीय जनसंघ अपने शुरुआती दौर में था और उस समय उसकी कमान मंझे हुए और विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हाथों में थी. मुखर्जी आरएसएस से जुड़े हुए थे और उन्होंने इस संगठन पर नियंत्रण अपने पूर्णकालिक सदस्यों के माध्यम से किया हुआ था जो हमेशा आजादी से पहले के अंग्रेजीदां नेताओं की लीडरशिप को लेकर सशंकित रहते थे.

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी (फोटो: रॉयटर्स)

भारतीय जनसंघ की उत्पत्ति और विकास को लेकर विस्तृत और ब्यौरेवार तरीके से राजनीतिक वैज्ञानिक ब्रुस ग्राहम ने ‘हिंदू नेशनलिज्म एंड इंडियन पॉलिटिक्स’ शीर्षक से अपनी बात रखी है. उन्होंने लिखा है कि पार्टी के अंदर कई परंपरावादी थे जो कि अंग्रेजी बोलनेवाले नेताओं को लेकर व्यग्र थे. ऐसे में उपाध्याय और उनके कुनबे ने अपना विश्वास उन नई पीढ़ी के महिला और पुरुषों पर जताया जो कि ब्रिटिश राज से ज्यादा परिचित नहीं थे. उनका मानना था कि नई पीढ़ी, जिसने की ब्रिटिश राज का अनुभव केवल बचपन और छात्र जीवन में ही किया है वो हिंदू परंपरा और संस्कृति को ज्यादा समझेंगे.

सामान्य शब्दों में अगर समझें तो जनसंघ ने कांग्रेस को चुनौती देने का फैसला उस समय तक के लिए टाल दिया जब तक कि उपाध्याय, वाजपेयी और मधोक जैसे नई पीढ़ी के नेता तैयार नहीं हो जाते. जनसंघ को लगता था कि जब ये नेता अपनी जमीन मजबूत कर लें और अपनी बातों को विश्वासपूर्वक लोगों के सामने रखने के लिए तैयार हो जाएं उसके बाद ही कांग्रेस को चैलेंज किया जा सकता है.

वाजपेयी ने राजनीति और विचारधारा के बीच बैठा रखा था सामंजस्य

उपाध्याय की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में 1968 में ही हो गई. अपनी पार्टी को ऊंचाई तक पहुंचाने से बहुत पहले. हालांकि उन्होंने जनसंघ की विचारधारा राम मनोहर लोहिया के साथ गठबंधन करके पहले ही स्पष्ट कर दी थी. उन्होंने मानवतावाद के दर्शन को बढ़ावा दिया जिससे कि सांप्रदायिकता की सीमा पर खड़े हिंदू पार्टी की एक नई छवि लोगों के सामने आई और लोगों ने उसे स्वीकार करना भी शुरू कर दिया.

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एक और प्रतिभाशाली नेता बलराज मधोक ने पाया कि जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का समर्थन करके पार्टी समाजिक न्याय और समतावाद की ओर मुड़ रही है जो कि पार्टी मुख्य विचारधारा से विचलन के समान है. उपाध्याय के निधन के तीन साल के भीतर ही मधोक पार्टी से अलग थलग हो गए और अंत में उन्हें निकाल दिया गया. लेकिन वाजेपयी इनसे अलग थे उन्होंने राजनीति और विचारधारा के बीच बेहतरीन सामंजस्य बैठा रखा था ऐसे में वो ‘सही समय पर सही व्यक्ति’ बन कर उभरे. वाजपेयी राजनीति अस्पृश्यता पर विश्वास नहीं करते थे और यही वजह थी उन्होंने अलग-अलग विचारधाराओं के राजनीति धुरंधरों से दोस्ती गांठी और निभाई भी.

(फोटो: रॉयटर्स)

वाजपेयी में एक खास तरह का लचीलापन था जो कि भारतीय प्रतिभाशालियों से मेल खाता था. खास करके उनका ‘मध्यम मार्ग’ अपनाने का तरीका बेहद शानदार था. वाजेपयी पर आरोप लगता है कि 1966 में संसद के सामने गोरक्षा के मामले पर साधु संतो के एक वर्ग द्वारा बुलाई गई रैली के दौरान उन्होंने भीड़ को उत्पात मचाने से नहीं रोका. इसके बावजूद उन्होंने उस समय अपनी पार्टी को कांग्रेस के खिलाफ बनने वाले महागठबंधन में शामिल होने के लिए राजी करा लिया.

वो विरोधाभासों से बड़ी कुशलता के साथ निपटते थे. वो भारतीय जनसंघ का आधार बढ़ाने के लिए उसे उस राह तक ले गए जो कि समझौतावादी और मैत्रीपूर्ण था. सत्तर के दशक में उन्होंने अपनी लंबी और कठिन सफर की शुरुआत की जिसके रास्ते में उन्हें आडवाणी का साथ मिला. भारतीय राजनीतिक जीवन में ऐसी दोस्ती की मिसाल दूसरी देखने को नहीं मिलती है.