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पटाखों के धुएं में जलती, कागज के टुकड़ों में बिखरी छात्र राजनीति

यदि हर साल ऐसे ही छात्र राजनीति होती रही, पटाखों के धुएं में जलती हुई, कागज के टुकड़ों के रूप में सड़कों पर बिखरी हुई, माला-मंच से सजी हुई, तो फिर यह सिर्फ मुख्यधारा की राजनीति की भद्दी नकल ही होगी

Pallavi Rebbapragada

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव 12 सितंबर को होने जा रहा है. राजधानी में हजारों की संख्या में सफेद पोस्टर्स की बाढ़ आ गई है. इन सफेद पोस्टर्स पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के नाम और उनकी पार्टी के नाम भर लिखे हैं. फ्लाईओवर, बिल बोर्ड, कूड़ेदानों, स्ट्रीट लाइट्स, हर जगह ऐसे पोस्टर्स देखने को मिल जाएंगे. आप आसानी से राजधानी में कही भी ऐसे पोस्टर्स देख सकते हैं. मानो इसके जरिए उम्मीदवार न सिर्फ 17,000 मतदाताओं (छात्र) बल्कि राजधानी के हर एक व्यक्ति के दिमाग में अपनी पहचान दर्ज कराने की भरसक कोशिश कर रहा हो.

जैसे ही आप विश्वविद्यालय के परिसर क्षेत्रों के करीब जाते हैं, ऐसे पोस्टर्स का फैलाव बढ़ता जाता है. इन पोस्टरों पर छपे नामों में वर्तनी की गलतियां आम होती हैं. आप आसानी से ऐसी गलतियों की पहचान कर सकते हैं. मसलन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के Sudhir Dedha का नाम पोस्टर पर Sudhiir Dedha तो Ankiv Baisoya का नाम Ankiv Basoya छपा है. वहीं, एनएसयूआई के Ankit Singh का नाम Ankiit Singh तो इंडियन नेशनल स्टुडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन के Hemant Kumar का नाम Hemantt Kumar छपा है. क्यों? इसके पीछे एक शातिर कारनामा छुपा है. दरअसल, ये उम्मीदवारों द्वारा 5 मई 2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धत्ता बताने का नया तरीका है. कोर्ट ने अपने आदेश में सार्वजनिक संपत्ति का स्वरूप बिगाड़ने (विरूपण) को दंडनीय अपराध बताया है.


प्रशांत मनचंदा की याचिका

सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर ये फैसला दिया था. ये याचिका दिल्ली विश्वविद्यालय, कॉलेज कैंपस, दिल्ली मेट्रो रेल निगम, नगरपालिका संपत्ति, फ्लाईओवर, सार्वजनिक इमारतों, बाउंड्री वाल, सार्वजनिक गलियां व सड़कों सहित सार्वजनिक संपत्ति के स्वरूप बिगाड़ने को ले कर दायर की गई थी. यह याचिका एक पेशेवर वकील प्रशांत मनचंदा ने दायर की थी. यह आदेश सार्वजनिक संपत्ति के विरूपण पर मौजूदा कानूनों के तहत ही था.

यह आदेश मेट्रो रेल (ऑपरेशंस एंड मेनटेनेंस) एक्ट 2002 पर विचार करते हुए दिया गया था. यह एक्ट एक केंद्रीय अधिनियम है, जो पुलिस अधिकारियों को ऐसे लोगों के खिलाफ मामले दर्ज करने और कार्रवाई करने का अधिकार देता है, जो मेट्रो संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं.

इस आदेश में प्रिवेंशन ऑफ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट, 1984 को पर भी विचार किया गया, जो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले के लिए पांच साल तक का कारावास और जुर्माना का प्रावधान करता है. (यह कानून जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू है).

एक अन्य अधिनियम पर भी विचार हुआ, जिसे द डेल्ही प्रीवेंशन ऑफ डिफेसमेंट ऑफ प्रोपर्टी एक्ट, 2007 कहा जाता है. इस एक्ट के सेक्शन 3 में उस व्यक्ति के लिए एक वर्ष तक के कारावास की सजा का प्रावधान है, जो किसी संपत्ति पर सार्वजनिक रूप से स्याही, चॉक, पेंट या किसी अन्य सामग्री से कुछ लिखता है, सिवाए संपत्ति मालिक के नाम और पते को इंगित करने के उद्देश्य को अलावा.

प्रशांत मनचंदा आदेश बताता है कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों के पास यह सुनिश्चित करने के लिए समितियां होंगी कि अदालत के आदेश का पालन किया जाए. साथ ही यह आदेश इस बात का भी सुझाव देता है कि कानूनी प्रावधानों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए प्रबंधन द्वारा कार्यशालाएं आयोजित की जाएंगी.

मुद्दा: जातिगत भेदभाव या फैलोशिप की कमी!

इस चुनाव सत्र में प्रोफेसर रवि रंजन दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए रिटर्निंग अधिकारी के रूप में कार्य कर रहे हैं. वीसी चुनाव के सुचारू संचालन के लिए प्रत्येक कॉलेज में एक मुख्य चुनाव अधिकारी और एक टीम की नियुक्ति करता है. उन्होंने बताया कि जेएनयू एक ही जगह में घिरा हुआ परिसर है, जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज उत्तरी और दक्षिणी कैंपस में फैले हुए है. मसलन, दक्षिण पश्चिम दिल्ली में दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज, पूर्वी दिल्ली में शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ एप्लाइड साइंसेज फॉर वूमेन और भीम राव अम्बेडकर कॉलेज, दक्षिण दिल्ली में रामानुजन कॉलेज, पश्चिम दिल्ली में जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज आदि हैं.

प्रोफेसर रवि रंजन कहते हैं, 'हमारा कॉलेज ऑफ-कैंपस कॉलेज है. गलती के लिए दंड भी दिए जाते है और दिल्ली पुलिस ने 20 नियंत्रण कक्ष स्थापित किए हैं. लेकिन हम केवल अपने संबंधित कॉलेजों के अंदर क्या चल रहा है, बस इसकी निगरानी कर सकते हैं.'

प्रोफेसर रंजन ने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय आचार संहिता बताती है कि प्रत्येक छात्र उम्मीदवार के साथ केवल चार अन्य छात्र ही हो सकते हैं, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं और उत्साही छात्रों के अन्य झुंड को रैली करने से कौन रोक सकता है? ऐसा करने का एक ही तरीका है कि गड़बड़ करने वाले छात्रों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई हो और सार्वजनिक रूप से छात्रों को इस बारे में सबक दिया जाए. लेकिन इसके लिए पुलिस प्रशासन के पास मजबूत इच्छाशक्ति होनी चाहिए.

ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने आम आदमी पार्टी की छात्र युवा संघर्ष समिति के साथ गठबंधन किया है. आइसा की नेता कंवलप्रीत कौर मानती हैं कि चुनावी सीजन के दौरान कैंपस में कार और बाहरी लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और अध्यक्ष पद के लिए बहस कराई जाना अनिवार्य बनाना चाहिए, ताकि बौद्धिक बहस को प्रोत्साहन मिल सके और बेकार के ऐसे ड्रामे बंद होने चाहिए, जो छात्र कल्याण के लिए अप्रासंगिक है.

सोशल साइंसेज संकाय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एन. सुकुमार ने प्रोफेसर रवि रंजन के साथ मिल कर, लगभग 10 साल पहले आठ अलग-अलग सरकारी विश्वविद्यालयों में छात्र संघ की राजनीति में सामाजिक समावेश पर एक सर्वेक्षण किया था. उन्होंने लिंगदोह आयोग की दिशानिर्देशों (एक रिपोर्ट जो छात्र संघ चुनाव आयोजित कराने से संबंधित मानदंड निर्धारित करती है) के बारे में बात की कैसे स्वतंत्र और अन्य राजनीतिक रूप से सक्रिय समूहों को छात्र राजनीति में भागीदारी का मौका मिलता है. प्रोफेसर सुकुमार बताते है, 'जब इन दिशानिर्देशों को पहली बार 2007 में लागू किया गया था, तो कुछ वर्षों तक उनका पालन किया गया. लेकिन अब इन दिशानिर्देशों को कचरे के डब्बे में डाल दिया गया है और विश्वविद्यालय चुनाव आयोजन को ले कर अपने खुद के मानदंडों का पालन करते हैं.'

प्रोफेसर सुकुमार कहते हैं कि पार्टियों को केवल जाति और लैंगिक भेदभाव पर जोर देने के बजाय फैलोशिप की कमी जैसे मुद्दे उठाने चाहिए.

जब लिंगदोह दिशानिर्देश आए थे, तब बीजेपी और कांग्रेस ने कैंपस चुनावों में राजनीतिक दलों के शामिल न हो पाने की वजह से इसकी आलोचना की थी और दावा किया कि पार्टियां छात्र नेताओं के लिए प्रेरणा के स्रोत होते हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) भी अप्रत्यक्ष चुनाव प्रस्ताव पर संदेह कर रहा था. उनके विचार में यह प्रबंधन के निजी हितों का पोषण कर सकता है.

लिंगदोह दिशानिर्देशों की अनदेखी

लिंगदोह दिशानिर्देश बताते हैं,  'सभी संस्थानों को 5 साल की अवधि में, नामांकन मॉडल को एक संरचित चुनाव मॉडल में परिवर्तित करना चाहिए, जो संसदीय (अप्रत्यक्ष) चुनावो या राष्ट्रपति (प्रत्यक्ष) प्रणाली पर आधारित हो सकता है या दोनों का एक मिश्रण हो.' प्रसिद्ध समाजशास्त्री टीके ओमेनैन स्टुडेंट्स पॉलिटिक्स इन इंडिया: द् केस ऑफ डेल्ही यूनिवर्सिटी (1974) में डूसू के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली की आलोचना करते हैं.

उनके मुताबिक, यह लोकतांत्रिक ताकतों को सीमित करता है और विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार के रास्ते खोलता है. तब पैसा छात्र नेता बनने की इच्छा रखने वालों के लिए बुनियादी संसाधन बन जाता है. नतीजतन, धनी परिवारों से आने वाले छात्र नेतृत्व पर एकाधिकार जमा लेते हैं. बाहुबल और धनबल, विचारधारात्मक मजबूती पर भारी पड़ जाते है. दिल्ली विश्वविद्यालय में आज की राजनीति में ऐसा ही होता प्रतीत हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मुकुल गुप्ता ने कहा कि विश्वविद्यालय लिंगदोह दिशानिर्देशों से परे अपने दिशानिर्देश बनाते हैं और उसी के तहत चुनाव करवा रहे हैं.

उन्होंने बताया, 'लिंगदोह दिशानिर्देश यह निर्धारित करते हैं कि एक व्यक्ति जिसका ट्रायल हुआ हो और सजायफ्ता हो, उसे चुनाव से बाहर करना चाहिए. आरोप तय किए जाने के दिन से ट्रायल शुरू होता है. लेकिन विश्वविद्यालय के अधिकारी इसका इस्तेमाल चुनिंदा उम्मीदवार के खिलाफ हथियार के रूप में करने की कोशिश करते हैं.'

मुकुल गुप्ता के अनुसार, दो अस्पष्ट क्षेत्र हैं, जहां कार्रवाई मनमानी तरीके से होती है. एक तो यह कि लिंगदोह दिशानिर्देशों के अनुसार, संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का मौका मिलना चाहिए, लेकिन यह नाटक नामांकन और आवेदनों की जांच के दौरान सिर्फ चार दिनों में समाप्त हो जाता है. और चार दिनों की अवधि के दौरान आप छात्रों से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उस दौरान अदालतों के चक्कर लगाएं.

दूसरा, चुनाव समिति और एक शिकायत समिति होती है. इनसे उम्मीद की जाती है कि वे ठीक से काम करेंगी. लेकिन, गुप्ता के अनुसार, उनमें से कोई भी उम्मीदवार को सवाल करने का मौका देने को तैयार नहीं होती है. यह एक मौलिक कानून है कि कोई भी प्राधिकारी नागरिक अधिकारों से संबंधित अपनी कार्रवाई को ले कर पीड़ित व्यक्ति की बातों को सुने.

वकील निखिल भल्ला लिंगदोह आयोग के दिशानिर्देशों में अनुशासनात्मक कार्रवाई वाले प्रावधान पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, 'लिंगदोह दिशानिर्देशों और दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून के बीच एक स्पष्ट विरोधाभास है. लिंगदोग दिशानिर्देश किसी व्यक्ति को केवल उसके खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू करने के आधार पर चुनाव लड़ने से रोकने की बात करता है, भले ही वह दोषमुक्त हो गया हो या आरोप वापस ले लिए गए हो. भल्ला ने आगे कहा कि कॉलेजों ने स्पष्ट अनुशासनात्मक प्रक्रिया और दंड की व्यवस्था नहीं किए है. नतीजतन, वह छात्र भी अयोग्य घोषित किया जा सकता है, जिसने कभी कैंपस में धूम्रपान किया हो या हॉस्टल या मेस बिल न चुकाया हो और इस वजह से उसकी जांच हुई हो.

ये कानूनी जटिलताएं रॉकी तुसीद के मामले में सामने आईं. एनएसयूआई की तरफ से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार (2017-2018), तुसीद को पहले चुनाव लड़ने से रोक दिया गया था. वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की तरफ से कानूनी हस्तक्षेप किए जाने के बाद तुसीद की उम्मीदवारी बहाल कर दी गई थी. तुसीद ने पिछले साल 4 सितंबर को डूसू अध्यक्ष पद के लिए अपना नामांकन दाखिल किया था. हालांकि, 5 सितंबर को तुसीद के खिलाफ एक जांच शुरू कर दी गई. दरअसल, डुसु चुनाव आयोग को एक ईमेल मिला था, जिसमें जानकारी दी गई थी कि तुसीद के खिलाफ शिवाजी कॉलेज में, जहां वह पढ़ा था, अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की गई थी.

रॉकी तुसीद ने दलील दी थी कि उन्हें सुनवाई का मौका नहीं दिया गया था. लेकिन, दिल्ली विश्वविद्यालय ने लिंगदोह दिशानिर्देशों पर भरोसा किया था कि उम्मीदवारों के खिलाफ विश्वविद्यालय द्वारा कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई हो तो उसे चुनाव से बाहर कर देना चाहिए. जुलाई 2018 में, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में रॉकी के कार्यकाल के अंत से कुछ ही समय पहले, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 'अदालत इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकती है कि सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया है, जो स्पष्ट रूप से किसी उम्मीदवार के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई होने की स्थिति में उसे चुनाव में खड़े होने के लिए अपात्र घोषित करता है.’

पिछले साल DUSU चुनाव मे जीत के बाद अपने साथियों के साथ रॉकी तुसीद

कानूनी असमनाताओं और अनियमितताओं को दूर करना जरूरी

तुसीद अपने कार्यकाल के दौरान अदालत में चक्कर लगाते रहे. तुसीद ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि कानूनों में असमानता का इस्तेमाल छात्रों के खिलाफ राजनीतिक रूप से प्रेरित कार्रवाई के लिए किया जाता है और ऐसा किसी भी पार्टी के छात्र के साथ हो सकता है. उन्होंने डूसू के संविधान और लिंगदोह दिशानिर्देशों के बीच असमानताओं व अनियमितताओं को दूर करने की आवश्यकता पर बल दिया.

उदाहरण के लिए, 2005 में डूसू संविधान तैयार किया गया था. इसके मुताबिक, पदाधिकारियों का चुनाव प्रत्येक वर्ष के 16 अगस्त तक पूरा किया जाना चाहिए, जिसके बाद डूसू कार्यालय बंद कर दिया जाएगा. तुसीद ने कहा, 'आज 2018 है और तब से अब तक हर साल सितंबर में चुनाव हो रहे हैं, लेकिन डूसू कार्यालय पुराने नियम के अनुसार सील कर दिया गया है.'

उन्होंने कहा कि पुराने दिशानिर्देश, उदाहरण के लिए, प्रति उम्मीदवार 5000 रुपये खर्च निर्धारित है, में संशोधन की आवश्यकता है. तुसीद यह भी सुझाव देते है कि डूसू कार्यालय केवल चुनाव सत्र के दौरान ही अस्तित्व में नहीं होना चाहिए. क्योंकि पार्टियों के बीच कड़वी राजनीतिक शत्रुता प्रशासन में व्यवधान पैदा करती हैं.

ऐसे में कठोर कानून होने चाहिए ताकि पार्टियां और छात्र निकाय एक दूसरे के साथ मिल कर काम करें न कि एक-दूसरे के खिलाफ हों. उन्होंने आगे बताया कि उनकी कानूनी लड़ाई के कारण पार्टी का काम प्रभावित हुआ है. हाल ही में 28 जुलाई को शंकर लाल कॉन्सर्ट हॉल की बुकिंग रद्द हुई, जिसे सांस्कृतिक सद्भाव के लिए आयोजित एक कार्यक्रम के लिए बुक किया गया था.

कुछ कानून पुराने हो चुके हैं और कुछ कानून नए कानूनों की तुलना में असंगत हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के इस सेक्शन और सब सेक्शन में बंटे बुलेट प्वायंट ही चुनाव संचालन के लिए कानून हैं. लेकिन यदि हर साल ऐसे ही छात्र राजनीति होती रही, पटाखों के धुएं में जलती हुई, कागज के टुकड़ों के रूप में सड़कों पर बिखरी हुई, माला-मंच से सजी हुई, तो फिर यह सिर्फ मुख्यधारा की राजनीति का भद्दी नकल ही होगी. जाहिर है, विश्वविद्यालय को कानूनी सुधार की जरूरत है, ताकि छात्र निकायों को अपने वित्त पोषण या कानूनी हस्तक्षेप के लिए राजनीतिक दलों पर निर्भर रहने की आवश्यकता न हो.