view all

केजरीवाल के लिए फिर 'विश्वास' जीतना आसान नहीं

ऐसा नहीं लगता कि आम आदमी पार्टी का शांति फॉर्मूला लंबे समय के लिए काम करेगा

Sanjay Singh

कुमार विश्वास ने आखिरकार अपनी पार्टी ‘आप’ और इसके दो बड़े नेताओं अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से युद्धविराम कर लिया. जो थोड़ी बहुत खुशियां मिलीं, उसका इजहार आप नेताओं ने लड्डू बांट कर किया और संकेत दिया मानो एक बार फिर अच्छे दिन लौट आए हों. लेकिन, लड्डू का पैकेट बहुत छोटा था, जो वहां बड़ी संख्या में मौजूद कार्यकर्ताओं का मुंह मीठा नहीं करा सकता था.

ज्यादातर लोग जैसे रूखे-सूखे थे, वैसे ही रह गए और अगर राजनीति में प्रतीकवाद का कोई मतलब है तो ऐसा नहीं लगता कि आम आदमी पार्टी का शांति फॉर्मूला लंबे समय के लिए काम करेगा. वैसे भी पार्टी हाल फिलहाल गलत कारणों से ही सुर्खियों में रहती है.


फ़र्स्टपोस्ट ने महसूस किया है कि मुख्यमंत्री के आधिकारिक आवास सिविल लाइंस एरिया से गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित कुमार विश्वास के आवास तक ड्राइव करने के अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के फैसले के पीछे वजह कुछ और थी. ये वजह अपने मित्र के लिए सद्भावना नहीं थी, बल्कि ये सोच समझकर लिया गया फैसला था.

केजरीवाल के लिए यह वक्त की जरूरत थी कि किसी भी कीमत पर विश्वास को शांत करें, अपना चेहरा बचाएं और पार्टी को एकजुट रखें. इसके अलावा उन्हें इतना समय मिल जाए कि जब सही वक्त हो तो इन मुद्दों को हल करें.

अपनी पहचान छिपाने की शर्त पर पूरे मामले की जानकारी रखने वाले एक वरिष्ठ आप कार्यकर्ता ने बताया कि सभी संबंधित पक्ष को यह पता था कि विश्वास जोर देकर जिस बात की वकालत कर रहे थे, वह पार्टी के जनाधार को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा रहा था.

उनका केजरीवाल और दूसरे नेताओं को उन मूल्यों की याद दिलाना जिनसे पार्टी बनी थी, ये बताना कि किस तरह पार्टी अपने तय किए गए रास्ते से भटक गई और किस तरह पंजाब, गोवा और दिल्ली में हार के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को दोष देना उल्टा साबित हो रहा था. किस तरह कार्यकर्ताओं की पार्टी व्यक्तित्व (केजरीवाल) पूजा सिंड्रोम की शिकार हो गयी, जहां नेता और कार्यकर्ताओं के बीच संवाद खत्म हो गया. पार्टी के कांग्रेसीकरण के आरोप और कश्मीर पर कुमार विश्वास के वीडियो और दूसरे बयान, जिसमें पाकिस्तान के पीओके में भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगना और ऐसी ही चीजें शामिल थीं. इन्हें केजरीवाल के खिलाफ माना गया.

पार्टी में अपने साथियों के बीच विश्वास का तर्क था कि व्यक्ति पूजा की इस प्रवृत्ति को तुरंत रोका जाए. आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर निरकुंशता को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति मान्य नहीं थी, क्योंकि नेता आम कार्यकर्ताओं को आवाज उठाने देने और उनकी सुनने को तैयार नहीं थे. यहां तक कि अन्ना आंदोलन के दौरान भी कार्यकर्ताओं की इस आजादी का कभी उल्लंघन नहीं हुआ कि वे अपनी भावना प्रकट करें. यह आधारभूत अनुशासन का हिस्सा था.

केजरीवाल के कभी बहुत करीब रहे एक अन्य पार्टी नेता ने कहा कि विश्वास हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं की आवाज बन गए थे. पार्टी के भीतर कुमार नाम से मशहूर विश्वास ने जो कुछ कहा, उसमें इन कार्यकर्ताओं ने वजह और मेरिट देखी. वे लगातार अलग-अलग मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी बातें कह रहे थे.

पार्टी के विधायक, मंत्री और कार्यकर्ताओं ने विश्वास से संपर्क करना शुरू कर दिया था और निजी तौर पर उनके बेबाक बयानों के लिए उनकी जय-जयकार की. पार्टी सूत्र के मुताबिक दिल्ली विधानसभा के 67 विधायकों में से 41 विश्वास के साथ सम्पर्क में थे.

अपने बचपन के दोस्त उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के मीडिया में दिए गए बयान से विश्वास हैरत में थे. अपने बयान में सिसोदिया ने सार्वजनिक बयानों के लिए विश्वास की निन्दा की. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वे (विश्वास) यह सब विरोधी राजनीतिक दलों के फायदे के लिए कर रहे थे. सिसोदिया ने दुनिया को यह भी बताया कि वीडियो के कंटेंट से केजरीवाल खुश नहीं हैं.

वीडियो हालांकि कश्मीर पर था, लेकिन विश्वास ने भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के लिए केजरीवाल पर करारा प्रहार किया था और चेतावनी दी थी कि जनता सब देख रही है. संदेश साफ था कि सरकार और पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार से आंखें मूंदना जनता बर्दाश्त नहीं करेगी. सिसोदिया के बयान ने विश्वास को उकसाया, जिसके बाद वे सार्वजनिक बयान के साथ सामने आए कि वे रात तक ये फैसला कर लेंगे कि उन्हें पार्टी में रहना है या कोई स्वतंत्र रास्ता तय करना है. ऐसा कहते हुए वे भावुक हो गए और अपने आंसुओं और भावनाओं पर काबू करने की कोशिश करते देखे गए.

पूर्व मंत्री और विधायक अमानतुल्ला खान ने आरोप लगाया कि विश्वास आप में रहकर बीजेपी के लिए काम करते हैं और पैसों की झोली लेकर पार्टी को तोड़ने में लगे हैं. इसके बाद विश्वास ने मान लिया कि खान बस मोहरा हैं और अब पर्दे के पीछे की ताकत और चेहरे को बेनकाब करना जरूरी है.

मंगलवार की शाम तक केजरीवाल ने महसूस कर लिया था कि कहानी उल्टी हो चुकी है और बेकाबू होते हालात उनका नुकसान कर रहे हैं. इस बीच केजरीवाल ने विधायकों को बुलाया और उनसे आमने-सामने बात कर उनकी राय जानते हुए परिस्थिति को समझा.

सूत्रों का कहना है कि वे करीब 50 विधायकों से सिर्फ ये समझने के लिए मिले कि विश्वास की आवाज में वे कितना दम देखते हैं. आप नेतृत्व के एक हिस्से में यह अहसास था कि अगर विश्वास वैचारिक मतभेद के चलते पार्टी छोड़ते हैं तो इससे पार्टी की छवि और ताकत पर बुरा असर पड़ेगा. वे प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव नहीं हैं.

ये भी महसूस किया जा रहा था कि सार्वजनिक कैंपेनर के तौर पर खुद को साबित कर चुके विश्वास की सेवाएं पंजाब विधानसभा चुनाव और दिल्ली नगर निगम चुनावों में ली जानी चाहिए थी. बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच यह भी बड़ा मुद्दा था कि विश्वास लगातार अलग-थलग पड़ते चले गए और केजरीवाल के आसपास मंडली संस्कृति विकसित होती गयी. ऐसे हालात में मुख्यमंत्री के साथ नजदीकी या कथित नजदीकी सबसे ज्यादा मायने रखने लगी.

सूत्रों का कहना था कि सिसोदिया के साथ केजरीवाल जब गाजियाबाद में विश्वास के घर पहुंचे और उन्हें उनके आवास से अपने साथ लिया तो संकेत साफ होने लगे. संकेत ये कि उनकी इच्छा अभी विश्वास के साथ कुछ और दूर चलने की है ताकि उनके नाराज दोस्त और पार्टी सहयोगियों को शांत किया जा सके.

जब वे दिल से दिल तक बात करने बैठे, विश्वास ने तीन शर्तें रखीं- पहली कि वे राष्ट्रवादी वीडियो के लिए कोई खेद प्रकट करने नहीं जा रहे हैं. जवानों और किसानों के मुद्दे पर कोई समझौता वे नहीं कर सकते. दूसरा नेतृत्व के साथ कार्यकर्ताओं का संबंध बहाल किया जाए क्योंकि पिछले कुछ समय में वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच जमीन पर संवाद में बड़ी कमी आई है. करीब 80 फीसदी कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं कि चुनाव में लगातार हार, संवाद में कमी और परिस्थितियों को सही ठहराने की एकतरफा अविश्वसनीय कोशिशों से उनका मोहभंग हो चुका है. तीसरा, कि भ्रष्टाचार को लेकर वे कुछ भी सहन नहीं करेंगे. भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दों पर जांच एजेंसी की कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाने से पार्टी को कोई मदद नहीं मिलेगी.

यह कहे बिना बात अधूरी रह जाती है कि विश्वास की ओर से अमानतुल्ला खान को पार्टी से निकाला जाना सबसे अहम मुद्दा था, जो बना हुआ है. केजरीवाल का तर्क था कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के तहत खान को एक मौका मिलना चाहिए और जरूरत पड़े तो खेद जताने का मौका भी.

आप की सर्वोच्च नीति निर्मात्री संस्था पीएसी की बुधवार सुबह 11 बजे की मीटिंग औपचारिकता ज्यादा रही. इसमें शांति फॉर्मूले पर आधिकारिक तौर पर मुहर लगाई गई. दोनों ओर से जो रुख लिए गए और विश्वास की तरफ से पीएसी की बैठक के बाद जो बयान दिया गया उससे उनका रुख साफ हो गया. जैसी जरूरत होगी समय-समय पर “हम बाकी सुधार करेंगे” और इस बाबत बताते रहेंगे चाहे कोई इससे सहमत हो या नहीं. इससे संकेत मिलता है कि वर्तमान शांति स्थायी नहीं है. इस तरह इस मामले को पूरी सावधानी के साथ हैंडल करना होगा.