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केजरीवाल को ईसी से फटकार: लेकिन क्या इस बार सही है उनकी बात?

चुनाव भाषणों में लिहाज शायद ही कोई रखता है. सो, दोष केवल आप संस्थापक को क्यों देना?

Akshaya Mishra

अरविन्द केजरीवाल के सियासी भाषणों का जायका ही कुछ और है! उन्हें हाथ घुमाकर नाक छूने में यकीन नहीं. अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पर वे बेधड़क हमला बोलते हैं, एकदम खरी-खरी सुना डालते हैं.

कमाल की आसानी से मुश्किल सवाल उठाते हैं और ज्यादातर वक्त यही लगता है कि बात सीधे उनके दिल से निकल रही है. उनका लहजा अक्सर लिहाज को लांघता जान पड़ता है. राजनेता अमूमन ऐसा नहीं करते. लेकिन इस बात का क्या करेंगे कि केजरीवाल की यही अदा उनके चाहने वालों को पसंद है. तीखे बोल निकाल दीजिए तो केजरीवाल में बचेगा ही क्या!


और फिर वह चुनावी भाषण ही क्या जिसमें राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पर हमला न बोला जाए?

भ्रष्टाचार और चरित्र-हनन के आरोप हों या फिर चुनाव में कदाचार बरतने तक के दोषारोपण- राजनेता अपने प्रतिद्वंद्वी को कमतर ठहराने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से बाज नहीं आते. अब इसे शराफत तो हरगिज नहीं कहा जा सकता लेकिन देश में चुनावी अभियान इसी तेवर में चलते हैं.

लक्ष्मण रेखा का लिहाज शायद ही कोई रखता है. सो, दोष केवल आम आदमी पार्टी के संस्थापक को ही क्यों देना?

केजरीवाल पर विशेष कृपा?

यही कारण है कि गोवा के भाषण पर केजरीवाल को चुनाव आयोग की फटकार कुछ ज्यादा ही सख्त कहलाएगी. बेनोलिम की चुनावी रैली में मौजूद वोटरों से केजरीवाल ने कहा कि बीजेपी या कांग्रेस वाले नोट दें तो मना मत करना, ले लेना लेकिन वोट आम आदमी पार्टी को ही देना.

चुनाव-अभियान के दौरान बहस-मुबाहिसे का स्तर जिस हद तक नीचे गिरता है उसे देखते हुए केजरीवाल के ये बोल सीधे-सादे ही कहलायेंगे. लेकिन चुनाव आयोग ने इसे आचार-संहिता का उल्लंघन समझा.

आयोग को लगा कि केजरीवाल लोगों को रिश्वतखोरी के लिए उकसा रहे हैं जो एक अपराध है.

आयोग ने अपने आदेश में यह भी कहा, '…याद रहे कि आगे अगर आप चुनाव आचार संहिता का इसी तरह उल्लंघन करते हैं तो आयोग अपने तमाम अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए आपके और आपकी पार्टी के खिलाफ सख्त कदम उठाएगा, जिसमें चुनाव चिह्न प्रदान करने और निरस्त करने संबंधी 1968 के आदेश के खंड 16 ए के अंतर्गत कार्रवाई करना भी शामिल है.' केजरीवाल ने कहा है कि वह आयोग के इस आदेश को कोर्ट में चुनौती देंगे.

कोर्ट चाहे जो फैसला करे तथ्य यही है कि हर चुनावी भाषण को मर्यादा के दायरे में बांधे रखना मुश्किल है. अगर कोई भाषण हद दर्जे का भड़काऊ, भद्दा या लोगों में भेद पैदा करने वाला ना हो तो उसे हरी झंडी मिलनी चाहिए.

ठीक इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला भी दिक्कततलब कहलाएगा जिसमें उम्मीदवारों को धर्म, समुदाय जाति या आस्था के नाम पर वोट मांगने से मना किया गया है. अनुभवी नेता अपने भाषणों में इन चीजों का खुला जिक्र करने से बचते हैं लेकिन इस या उस जाति या समुदाय से उनके लगाव की बात किसी से छुपी नहीं होती.

चुनाव आयोग का कदम केजरीवाल के भाषण से तड़का हटाकर उसे बेस्वाद बनाने की कोशिश है. अगर ऐसा होता है तो केजरीवाल के लिए यहां कोई आठ-आठ आंसू बहानेवाला नहीं बैठा लेकिन इंसाफ का तकाजा यही है कि बाकी सभी नेताओं के भाषण पर ऐसी ही कड़ाई से नजर रखी जाय.

चुनावी आचार-संहिता अभिव्यक्ति की आजादी के पांव में बेड़ी साबित नहीं होनी चाहिए. खुलकर बात कहने और ढीली बात कहने के बीच फर्क होता है. दोनों ही मंजूरी के काबिल है लेकिन जब ढीली बातचीत, राजनेताओं के लिए न सही लेकिन लोगों के लिए खतरनाक जान पड़े तो उसकी फिक्र की जानी चाहिए. आयोग को इस मुकाम पर दखल देना चाहिए. रिश्वतखोरी के बारे में केजरीवाल के बयान को खतरनाक बात के दर्जे में नहीं रखा जा सकता.

मोदी पर हमला तो उनकी आदत है

हालांकि आयोग के आदेश के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केजरीवाल का हमला गलत कहलाएगा. उन्होंने सवाल किया कि क्या चुनाव आयोग प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारे पर काम कर रहा है.

टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक साक्षात्कार में केजरीवाल ने कहा कि चुनाव आयोग इंतजार में था कि प्रधानमंत्री का लखनऊ वाला भाषण हो जाए तो चुनाव की तारीख का एलान करें. उन्होंने चुनाव आयोग की स्वायत्तता पर सवाल उठाए और आरोप मढ़ा कि तमाम संस्थाओं को मौजूदा सरकार धमका रही है.

यह तो जानी-पहचानी बात है कि केजरीवाल मोदी पर हमला बोलने का हल्का सा मौका भी नहीं चूकते. इसे देखते हुए उनके इस बड़बोलेपन पर कोई अचरज नहीं. पहले भी उन्होंने यही कुछ इतनी दफे किया है कि अब यह उनका खब्त जान पड़ता है न कि गंभीरता से कही हुई कोई बात. प्रधानमंत्री के साथ केजरीवाल का यह बरताव भले अनुचित जान पड़े लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि तीर केजरीवाल पर भी कम नहीं चलते, खासकर प्रधानमंत्री की पार्टी की ओर से.

केजरीवाल का हमला अपने स्वभाव में राजनीतिक है तो उसे बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए कि वह हमले से राजनीतिक रुप से ही निपटे. अगर पार्टी कानून का सहारा लेना चाहती है, जैसा कि पहले भी उसने किया है, तो एक विकल्प यह भी है.