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लोकसभा चुनाव 2019: क्या दिल्ली का रास्ता इस बार बंगाल से होकर जाएगा?

बीजेपी बंगाल में पूरा जोर लगा रही है लेकिन 2019 में राज्य में 22 सीटें जीतने का लक्ष्य बेहद मुश्किल है

Rakesh Kayasth

बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले दिनों एक अहम राजनीतिक यात्रा की. शाह की बंगाल यात्रा सिर्फ इसलिए चर्चा में नहीं रही क्योंकि उन्होंने अपनी शैली में तृणमूल सरकार पर तीखा हमला बोला. दरअसल शाह ने एक तरह से साफ कर दिया कि 2019 में सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी को हर हाल में बंगाल में अच्छा प्रदर्शन करना होगा.

पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को उन्होंने टारगेट-22 का मंत्र दिया है. यानी बंगाल में बीजेपी को 42 में से कम से कम 22 सीटें जीतनी होंगी. मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के खाते में बंगाल के कोटे से सिर्फ दो सीटें हैं और वो भी 2014 की मोदी लहर की बदौलत. ऐसे में सवाल यह है कि कहीं अमित शाह बंगाल से कुछ ज्यादा उम्मीद तो नहीं कर रहे हैं?


सबसे पहले यह समझना होगा कि बंगाल को लेकर अमित शाह इतने महत्वाकांक्षी क्यों हैं. जवाब बहुत आसान है. जिन राज्यों ने 2014 में बीजेपी और एनडीए को प्रचंड बहुमत दिलाया था, उनमे से किसी भी राज्य में पार्टी अपना पिछला प्रदर्शन दोहराने की स्थिति में नज़र नहीं आ रही है. यूपी में एसपी-बीएसपी गठबंधन बनने से गणित पूरी तरह बदल गया है. मौजूदा आकलन के आधार पर यह माना जा रहा है कि 2019 में बीजेपी को अकेले यूपी में 30 से 40 सीट का नुकसान उठाना पड़ सकता है. बिहार में एनडीए में दरार अभी से दिखाई दे रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना ने साफ कर दिया है कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी. गुजरात, राजस्थान और एमपी-छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी नुकसान में दिख रही है. ऐसे में सीटों की भरपाई कहां से होगी? पूर्वोत्तर में बीजेपी लगातार मजबूत हुई है, लेकिन उसका असर आंकड़ों पर कम और मनोवैज्ञानिक ज्यादा है.

बंगाल बन सकता है टर्निंग प्वाइंट

ऐसे में बीजेपी की निगाहें बंगाल पर टिकी हैं, जो सीटों के लिहाज से यूपी और महाराष्ट्र के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है. बंगाल में अपनी पैठ गहरी करने के लिए बीजेपी बरसों से कोशिश कर रही है. तीन दशकों तक इस राज्य की राजनीति पर लेफ्ट का एकछत्र राज था. लेकिन अब वहां ममता बनर्जी का सिक्का चलता है. अस्सी या नब्बे के दशक में बंगाल में जो स्थिति लेफ्ट की थी, आज वही स्थिति ममता बनर्जी की है.

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लेकिन इस बीच एक और बदलाव आया है. लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे धकेलकर बीजेपी बंगाल की दूसरी सबसे बड़ी ताकत बनने की दिशा में आगे लगातार आगे बढ़ रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में 17 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 2016 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को अच्छे-खासे वोट मिले थे, सीटें उसके खाते में भले ही तीन आई हों. लेकिन इन बातों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हाल के दिनों में हुए उपचुनावों के आंकड़े हैं. लगभग हर उपचुनाव में बीजेपी ने लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे छोड़ा है. पंचायत चुनाव में अच्छा-प्रदर्शन करके बीजेपी ने बता दिया है कि जमीनी स्तर पर भी अब उसने आपको मजबूत कर लिया है. ऐसे में बीजेपी अब यह मानने लगी है कि वह तृणमूल कांग्रेस को हर सीट पर सीधी टक्कर देने की की स्थिति में है. 22 लोकसभा सीटें जीतने का बड़ा लक्ष्य इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर ही तय किया गया है.

मुस्लिम तुष्टीकरण बनाम हिंदू ध्रुवीकरण

यह साफ हो गया है कि 2019 में बीजेपी हिंदुत्व की तरफ लौटेगी. वह हिंदुत्व को राष्ट्रवाद का पर्याय साबित करने की कोशिश करेगी और बहुसंख्यक वोटरों को लामबंद करने के लिए आक्रमक अभियान चलाएगी. हिंदुत्व का नारा पूरे देश में कितना चलेगा इस बारे में अलग-अलग राय है. लेकिन बंगाल के बारे में हर कोई यह मान रहा है कि हिंदू कार्ड खेले जाने के लिए यहां की जमीन बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा अनुकूल है.

पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में आधी से ज्यादा सीटों पर मुसलमान वोटर प्रभावी हैं. कई सीटें ऐसी है, जहां मुस्लिम वोटर पूरी तरह निर्णायक हैं. राज्य में मुस्लिम वोटरों की तादाद करीब 27 फीसदी है. ये वोट एक समय लेफ्ट और कांग्रेस में बंटते आए थे. लेकिन अब इस वोट बैंक का सबसे बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस के खाते में जाता है. ममता बनर्जी ने मुसलमान वोटरों को खुश रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखा है.

बीजेपी कथित मुस्लिम तुष्टीकरण को लेकर ममता सरकार पर हमलावर रही है और इसी रुख की वजह से बंगाल में पार्टी का जनाधार लगातार बढ़ रहा है. सांप्रादायिक तनाव की जितनी खबरें बंगाल से आती हैं, उतनी शायद उतनी किसी और राज्य से नहीं आती हैं. हिंसक हिंदू-मुस्लिम झड़प, कभी दुर्गा विसर्जन पर विवाद तो कभी मुहर्रम के जुलूस को लेकर फसाद. घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं. इस सांप्रादायिक विभाजन ने बीजेपी को तृणमूल के मुख्य विरोधी के रूप में ला खड़ा किया है और लेफ्ट-कांग्रेस खेल से लगभग बाहर हो गई हैं. अपनी पुरुलिया रैली में अमित शाह ने भीड़ से जय श्रीराम के नारे लगवाकर यह साफ कर दिया है कि बंगाल में आनेवाले दिनों में बीजेपी के अभियान की शक्ल क्या होगी.

बंगाल में बीजेपी जनसंघ के जमाने से सक्रिय है. भले ही जनसमर्थन बहुत ज्यादा सीटों में तब्दील ना हो पाया हो. लेकिन आरएसएस से जुड़े संगठनों की कोशिशों की बदौलत गांव और कस्बों तक बीजेपी का नेटवर्क फैल चुका है. झारखंड से लगे आदिवासी इलाकों में बीजेपी की स्थिति बेहतर हुई है. गैर-बंगाली आबादी वाले शहरी इलाकों में भी पार्टी का आधार बढ़ा है. पार्टी को लगता है कि उज्जवला जैसी योजनाओं की वजह से प्रधानमंत्री मोदी यहां के वोटरों के बीच लोकप्रिय हैं. मुकुल रॉय जैसे बड़े तृणमूल नेता का बीजेपी में आना भी एक बड़ा फैक्टर है. पार्टी मानती है कि मुकुल रॉय तृणमूल के कुछ और कद्दावर नेताओं को ही नहीं बल्कि उनके काडर के एक हिस्से को भी तोड़ने में कामयाब रहेंगे. यानी बीजेपी के लिए बंगाल में बहुत कुछ पॉजिटिव है. लेकिन सवाल यह है कि बदली हुई परिस्थितियां 2019 के लोकसभा चुनाव में उतनी सीटें दिला सकती हैं, जिसकी उम्मीद अमित शाह कर रहे हैं?

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दीदी से टक्कर लेना खेल नहीं

मां, माटी और मानुष के नारे के साथ बंगाल की राजनीति को सिरे से बदलने वाली ममता बनर्जी की लोकप्रियता ज़रा भी कम नहीं हुई है. चुनावी नतीजे इस बात पर मुहर लगाते आए हैं. 2014 के मोदी लहर के बावजूद ममता बनर्जी बंगाल की 42 में 34 सीटें अपने नाम करने में कामयाब रही थीं. 2016 का विधानसभा चुनाव ऐसे माहौल में लड़ा गया जब राष्ट्रीय नेता के रूप मे प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता कायम थी और दूसरी तरफ लेफ्ट और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे थे.

इतना होते हुए भी सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने एंटी-इनकंबेंसी जैसी थ्योरी को दरकिनार करके प्रचंड बहुमत हासिल किया. लेफ्ट फ्रंट अपने संगठन के दम पर किसी दौर में बंगाल में अपराजेय हुआ करता था. ममता बनर्जी ने भी यही फॉर्मूला अपनाया. लेफ्ट के वोटर ही तृणमूल की तरफ नहीं मुड़े बल्कि काडर भी ममता के साथ आ गया. बीजेपी अपनी आक्रामक कार्यशैली के लिए पहचानी जाती है. लेकिन एग्रेसिव पॉलिटिक्स की जो बानगी ममता बनर्जी ने अब तक बंगाल में पेश की है, उसकी कोई और दूसरी मिसाल नहीं मिलती है.

बंगाल की राजनीति पर नज़र रखने वालों का कहना है कि मुस्लिम तुष्टीकरण के इल्जाम पर हरेक का अपना नज़रिया हो सकता है. लेकिन सच यह है कि ममता की लोकप्रियता जन-कल्याणकारी योजनाओं की वजह से कहीं अधिक है. केंद्र सरकार की मदद से चलने वाली योजनाओं को तृणमूल सरकार ने इस तरह पेश किया है कि वे राज्य सरकार की योजना लगे. अपने वोटरों के साथ ममता का एक स्वभाविक जुड़ाव है. इन सब बातों की काट ढूंढना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा.

यह सच है कि 2016 के बाद से उपचुनावों में बीजेपी दूसरे नंबर की पार्ट के तौर पर उभरी है. लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि वोटों का फासला बहुत बड़ा है. तृणमूल को हर जगह बीजेपी के मुकाबले बहुत ज्यादा वोट मिले हैं. आखिर बीजेपी इस फासले को किस तरह पाटेगी? अगर 2014 लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो तृणमूल को लगभग 40 प्रतिशत वोट मिले थे. बीजेपी के खाते में 17 प्रतिशत वोट आए थे. अगर लेफ्ट और कांग्रेस के वोट जोड़े तो उन्हे भी करीब-करीब तृणमूल के बराबर वोट मिले थे. यह सच है कि लेफ्ट और कांग्रेस का जनाधार लगातार घटा है. लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए इन दोनो पार्टियों के कोर वोटर अगर छिटके भी तो वे बीजेपी को नहीं बल्कि तृणमूल को ही वोट देंगे. ऐसे में अमित शाह का मिशन-22 भला किस तरह पूरा होगा?

क्या और हिंसक होगी बंगाल की राजनीति?

तृणमूल कांग्रेस यह जानती है कि 2019 में बीजेपी हिंदुत्व के पिच पर लाकर उसे पटखनी देने की कोशिश करेगी. मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप की तोड़ ढूंढने के लिए तृणमूल भी अब सॉफ्ट हिंदुत्व का भी सहारा ले रही है. पार्टी के कद्दावर नेता अनुव्रत मंडल ने इसी साल साल बीरभूम जिले ब्राहण सम्मेलन का आयोजन किया था. खुद ममता बनर्जी जगन्नाथ मंदिर की यात्रा पर गई थीं. गंगासागर यात्रियों के लिए की जानेवाली व्यवस्था का जायजा मुख्यमंत्री द्वारा लिए जाने की खबर को भी तृणमूल ने जमकर प्रचारित किया था. ममता ने हाल के दिनों में यह बयान कई बार दिया है कि हिंदू होने का मतलब मुसलमानों से नफरत करना नहीं है.

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इसके बावजूद बंगाल में हिंदुओं की कथित दुर्दशा को लेकर बीजेपी के हमलावर तेवर जारी है. अपनी बंगाल यात्रा के दौरान अमित शाह ने बीजेपी की आईटी सेल के लोगों के साथ विशेष रूप से बैठक की थी. धार्मिक गोलबंदी के एजेंडे को आगे बढ़ाने में आईटी सेल बेहद कारगर भूमिका निभाता आया है. बंगाल से उभरने वाला एंटी-मुस्लिम सेंटिमेंट अगर राष्ट्रीय स्तर पर फैला हुआ तो इसका बीजेपी को फायदा होगा.

तृणमूल एक ऐसी पार्टी है जिसे राजनीतिक हिंसा से कोई परहेज नहीं है. लेफ्ट की तरह तृणमूल के कार्यकर्ता भी खूनी राजनीतिक झड़पों में शामिल रहे हैं. कई बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या के इल्जाम भी तृणमूल के सिर हैं. अमित शाह अपनी बंगाल यात्रा पर तृणमूल को खुली चेतावनी दे चुके हैं. केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो ने हाल ही में विरोधियों की खाल खींचने की धमकी दी थी. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भी दोहरा चुके हैं कि तृणमूल की हिंसा का जवाब उसी अंदाज़ में देने में पार्टी के कार्यकर्ता पीछे नहीं रहेंगे. 2019 में बंगाल से निकलने वाला रास्ता किसी को दिल्ली तक पहुंचाएगा या नहीं यह कहना मुश्किल है. लेकिन अगर इस रास्ते पर खून के छींटे नजर आएं तो किसी को ताज्जुब नहीं होगा.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)