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नरेंद्र मोदी की बीजेपी के लिए ममता बनर्जी का ‘कोलकाता’ अभी बहुत दूर है

ममता बनर्जी ने बहुत जल्दी भांप लिया कि बीजेपी का उभार उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है

Sreemoy Talukdar

बात साल 2015 के जाड़े की है. यह वक्त बीजेपी की पश्चिम बंगाल इकाई में सत्ता-परिवर्तन का था. सूबे में पार्टी की कमान राहुल सिन्हा की जगह आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ता दिलीप घोष ने संभाली.

राहुल सिन्हा अध्यक्ष पद पर लंबे समय से काबिज थे और उनका कार्यकाल अंदरूनी कलह और उपेक्षा से भरा हुआ साबित हुआ.


सूबे की बीजेपी इकाई में हुए सत्ता-परिवर्तन की इसी घड़ी में मुझसे पार्टी के 6 मुरलीधर सेन के लेन स्थित मुख्यालय में एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने दरअसल मौका गंवा दिया है.

उनका तर्क बड़ा सीधा-सादा था. जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जन्मभूमि पश्चिमी बंगाल में बीजेपी की सियासी हैसियत किसी छुटभैये से ज्यादा नहीं रही.

पार्टी एक लंबे अरसे से अपनी पहचान के घेरे में बंद चली आ रही है तो अब उसकी जरुरत तेजी से बढ़त हासिल करने की है और इसके लिए जरूरत रणनीति में बदलाव की है.

मोदी लहर के डेढ़ साल बाद

'विकास के एजेंडे में यूं तो कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सिर्फ इसी एक पर जोर देने से हमारा काम नहीं चलने वाला. सूबे की एक बड़ी हिन्दू आबादी हमारी तरफ देखती हैं कि जो मुद्दे बाकी पार्टियां नहीं छू रहीं हैं उन्हें हम उठायेंगे. हमें ऐसे मुद्दों को मुखर करने की जरूरत है. अगर हम उनकी बात नहीं सुनेंगे तो और कौन सुनेगा.'

ये उस वरिष्ठ नेता के बोल थे और जैसा कि मैंने ऊपर अर्ज किया है इस बातचीत को अब एक साल से ज्यादा हो रहे हैं.

2014 के बाद पूरे देश में मोदी की लहर है लेकिन बंगाल इससे अछूता है

वरिष्ठ नेता का ये बयान सचमुच बहुत दिलचस्प था. ध्यान रहे कि यह बात उन्होंने नरेन्द्र मोदी की देशव्यापी लहर चलने के डेढ़ साल बाद कही थी और इस लहर ने पश्चिम बंगाल पर भी अपना असर छोड़ा था.

साल 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी का वोट-शेयर एकबारगी बढ़कर 17.6 फीसद पर जा पहुंचा. पश्चिम बंगाल में बीजेपी को दो सीटों पर जीत हासिल हुई. तो फिर पार्टी का वह वरिष्ठ नेता इतनी निराशा भरी बातें क्यों कह रहा था?

अच्छे नतीजों के बावजूद पश्चिम बंगाल में बीजेपी कुछ कमजोरियों की शिकार है और इन कमजोरियों को झटपट दुरुस्त नहीं किया जा सकता.

पहली बात तो यह कि सूबे में पार्टी का व्यापक जनाधार वाला कोई मुकामी नेता नहीं है. दूसरा, संगठन के ढांचे और बूथ-स्तर की लामबंदी का जैसा करिश्मा पार्टी ने पूरे उत्तर भारत में किया है उसका रत्ती भर भी वह पश्चिम बंगाल में कर दिखाने की हालत में नहीं है.

तीसरी और एक विचित्र वजह यह भी है कि हाल-फिलहाल तक सूबे में पार्टी का विचारधारात्मक आधार एकदम लचर है.

इस तीसरी वजह को थोड़ा विस्तार से समझने की जरुरत है. बेशक साल 2014 के चुनावों में पार्टी ने सूबे में बढ़त हासिल की लेकिन बीजेपी का आकर्षण अब भी उत्तरी बंगाल के कुछ इलाकों तक ही सिमटा हुआ है.

कोलकाता में बीजेपी अपनी 'गैर-बंगाली बनिया समुदाय की पार्टी' की छवि से निकलने के लिए हाथ-पैर मार रही है. बेशक मोदी की जीत से समाज के हर तबके में बीजेपी के लिए एक आकर्षण पैदा हुआ है.

यह आकर्षण खासतौर से नौजवानों में नजर आता है लेकिन मतदाताओं का एक समूह किसी उड़नदस्ते की तरह है और प्रधानमंत्री के संदेश के मोह में बीजेपी की तरफ खींचा चला आया है.

प्रधानमंत्री के संदेश का जादू जैसे ही मंद पड़ेगा बीजेपी को अपने पक्ष में वोटरों को एकजुट करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने की नौबत आन पड़ेगी.

वोट शेयर में बढ़त

पिछले साल के विधानसभा चुनाव से भी कुछ जमीनी सच्चाइयां उभरकर सामने आयीं. साल 2011 के चुनावों की तुलना में बीजेपी का वोट-शेयर चार फीसद बढ़कर 10.2 प्रतिशत पर जा पहुंचा लेकिन 2014 के चुनाव की तुलना में यह सात प्रतिशत कम है.

2016 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के वोटों में 27% का इजाफा हुआ है

बेशक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के बीच अंतर होता है लेकिन इस अंतर को ध्यान में रखें तब भी वोट-शेयर का यह फर्क पार्टी को हासिल वोटों में बहुत बड़ी गिरावट की सूचना देता है.

सवाल उठता है कि ये वोट किसके खाते में गये? यह बात तो बिल्कुल जाहिर है कि ये वोट कांग्रेस या फिर वाममोर्चा को नहीं मिले.

सीपीआई(एम) और कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के विरोध में पड़ने वाले वोटों को अपने पाले में जुटाने के लिए महागठबंधन बनाया और इस महागठबंधन ने मुंह की खायी.

वाममोर्चा के वोट-शेयर में 17 प्रतिशत की कमी आई. वाममोर्चा को साल 2011 में 41% वोट हासिल हुए थे लेकिन 2016 में उसका वोट-शेयर खिसक कर 24% पर आ गया. साल 2014 के लोकसभा की तुलना में भी 2016 के चुनावों में वाममोर्चा का वोट-शेयर पांच प्रतिशत कम है.

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कांग्रेस के वोटों में मामूली बढ़त हुई. उसे साल 2011 के चुनावों में 9.09% और 2014 में 9.06 फीसद वोट हासिल हुए थे जो साल 2016 में बढ़कर 12.3% हो गये.

बीजेपी को पश्चिम बंगाल में साल 2011 की तुलना में ज्यादा वोट पड़े जबकि 2014 के चुनावों की तुलना में उसके वोटों में कमी आई लेकिन सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के वोट लगातार बढ़ते गये हैं.

ममता बनर्जी अपने किले में फिर से काबिज हुई हैं. तृणमूल कांग्रेस ने 294 में से 211 सीटें झटक लीं हैं और इस तरह उसने साल 2011 की अपनी जीत में एकमुश्त 27 सीटों का इजाफा किया.

अंग्रेजी वेबसाइट डीएनए में छपी खबर के अनुसार साल 2016 में तृणमूल कांग्रेस का वोट-शेयर 44.9 फीसदी पर पहुंच गया जबकि 2011 में उसे 39 प्रतिशत और 2014 में 39.03 फीसद वोट हासिल हुए थे.

जाहिर है साल 2014 में बीजेपी को जो बढ़त हासिल हुई थी उसका एक हिस्सा साल 2016 में तृणमूल की झोली में खिसक गया. इसमें अचरज की कोई बात नहीं है क्योंकि स्विंग-वोटर्स (उड़न्तु किस्म के मतदाता) किसी एक पार्टी से देर तक बंधकर नहीं रहते.

इससे साफ जाहिर है कि अगर बीजेपी को पश्चिम बंगाल में अपनी पुख्ता बढ़त बनानी और नई जमीन तलाशनी है तो जरूरत विचारधारा को समर्पित निष्ठावान कैडर की भी है और वैसे मतदाताओं की भी जो उसके मुख्य एजेंडे से हमेशा जुड़ाव महसूस करे.

संक्षेप में कहें तो पार्टी के अंदरूनी आकलन के मुताबिक जरूरत अपने एजेंडे में हिन्दुत्व की छौंक लगाने की है.

हाल के दिनों में देखा गया है कि ममता बनर्जी भी पहचान की राजनीति करने में लगी हैं

हिंदुत्व की राजनीति

साल 2017 की शुरुआत से बीजेपी ने अपने हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करने के लिए पहचान की राजनीति पर पूरा जोर लगाया. पश्चिम बंगाल सीमावर्ती राज्य है. अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट और आबादी की बसाहट (डेमोग्राफी) के मामले में यह उत्तर भारत के बाकी राज्यों से थोड़ा अलग हटकर है.

ऐसे में हिन्दुत्व की राजनीति पर जोर देना जोखिम भरा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक सूबे की आबादी में मुसलमानों की तादाद 27 फीसदी है. ऐसे में क्या दक्षिणपंथी तेवर की सख्त हिन्दुत्वादी राजनीति को इस सूबे में कोई पसंद  भी करेगा? याद रहे कि रामजन्म भूमि आंदोलन के दौर में भी पश्चिम बंगाल इसकी लहर से अछूता रहा था.

खैर, इस बार बीजेपी को मदद वहां से मिली जहां से मिलने की उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. ममता बनर्जी ने अपना सारा जोर पहचान की राजनीति पर लगाया है और इसका फायदा बीजेपी को भी मिला है.

पहचान की राजनीति ने तृणमूल के साथ-साथ बीजेपी को भी उभारा है भले यह उभार थोड़े समय के लिए हो. इसे समझने के लिए बंगाल के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने पर एक नजर डालना जरूरी है.

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एक लंबी और तीखी लड़ाई के बाद आखिरकार तृणमूल कांग्रेस वाममोर्चा को साल 2011 के चुनावों में सत्ता से बेदखल करने में कामयाब हुई. ममता बनर्जी की सियासत में वह रूढ़िवादिता कभी नहीं रही जो बीते 34 सालों से सीपीआई (एम) की पहचान बनी चली आ रही थी.

पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) ही राजसत्ता का पर्याय बन गई थी. लोगों की नजर में सूबे की सरकार और वामदल के बीच का फर्क मिट गया था और इसकी वजह थी वामपंथ की विचारधारा. कैडर अपनी लकीर पर एकदम सधा हुआ रहता था, विरोध की आवाजों को दबा दिया जाता था और लोकतांत्रिक केंद्रवाद का डंडा चलाकर कुशासन को जायज ठहराया जाता था.

कांग्रेस से अपना दामन छुड़ाने के बाद ममता बनर्जी ने बिल्कुल यही काम नये अंदाज में किया. वाममोर्चा विचारधारा के डंडे से विरोध की आवाजों को दबाता था तो तृणमूल कांग्रेस ने ममता की शख्सियत और पहचान की राजनीति के सहारे यही काम किया.

मुख्यमंत्री के बड़े-बड़े कटआउटस् शहर के हर नुक्कड़-चौराहे पर सज गये. कुछ कटआउटस् में ममता बनर्जी को हिजाब पहने दिखाया गया. इन तस्वीर को बड़ी सोच-समझ के साथ उन जगहों पर लगाया गया जहां अल्पसंख्यक आबादी ज्यादा घनी थी.

सूबे में बीते छह साल से सत्ता की बागडोर ममता बनर्जी के हाथ में है और इस दौरान में उनकी पर्सनैलिटी का कायापलट हुआ है. अगर साल 2011 में उन्हें बदलाव (पोरिबोर्तन) का अग्रदूत माना जाता था तो 2016 में उनकी छवि धर्मनिरपेक्षता के अलंबरदार की है.

ममता लगातार ऐसे फैसले ले रहीं हैं जिसे मुसलमानों के तुष्टिकरण से जोड़कर देखा जा रहा है

ममता और मुसलमान

मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप उन पर बीजेपी ने ही नहीं कोलकाता के हाईकोर्ट ने भी लगाया है. इस बारे में अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाईम्स ने तफ्सील से एक रिपोर्ट भी छापी है.

मुस्लिम वोट-बैंक तैयार करने के चक्कर में ममता बनर्जी ने सूबे में वह जगह कायम की है जहां खड़े होकर बीजेपी हिन्दुत्व की राजनीति कर सके. भगवा पार्टी को हाल के उपचुनाव में 30 फीसद वोट-शेयर हासिल हुए जिससे संकेत मिलता है कि पार्टी हिन्दुत्व की जमीन पर वोटर को एकजुट करने में कामयाब हो रही है.

लेकिन यहां एक पेंच भी है. बेशक बीजेपी पश्चिम बंगाल के ग्रामीण अंचल में हिन्दुत्व की राजनीति के सहारे घुसपैठ कर रही है और लोगों की नजरों में चढ़ती भी जा रही है लेकिन नाराजगी और ठगे जाने के भाव पैदा करने भर से वह ममता बनर्जी को सूबे में सत्ता से बेदखल नहीं कर सकती.

बाहर से देखने पर भले यह लगता हो कि ममता बनर्जी की लोकप्रियता सिर्फ उनकी करश्माई छवि और पहचान की राजनीति पर निर्भर है लेकिन पूरी कहानी इतनी भर नहीं है. यह तो कहानी का एक हिस्सा भर है.

बीते छह सालों में ममता बनर्जी ने सामाजिक कल्याण के नाम पर दिल खोलकर सरकारी खजाना लुटाया है. राज्य सरकार कर्ज में डूबी है सो ऐसा करना बहुत मुश्किल था लेकिन मुख्यमंत्री और अपने फन के उस्ताद वित्तमंत्री अमित मित्रा ने बड़ी होशियारी दिखायी है.

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दोनों ने शराब के ठेके के खूब सारे लाइसेंस बांटकर राजस्व-उगाही का दायरा बढ़ाया है. इस काम में पड़ोसी राज्य बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कुछ मदद पहुंचायी है. उन्होंने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दिया है.

सामाजिक कल्याण के नाम पर लोगों पर सरकारी खर्च किया जा रहा है तो ये लोग बड़ी आसानी से वोटर में तब्दील हो सकते हैं- ममता बनर्जी की सरकार सूबे में इस समझ से काम कर रही है और पश्चिम बंगाल में अभी इस समझ का जोर है.

ममता बनर्जी ने बहुत जल्दी भांप लिया कि बीजेपी का उभार उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है. चूंकि, वाममोर्चा से उन्हें अभी चुनौती नहीं है इसलिए बीजेपी की हिन्दुत्व की राजनीति की काट में उन्होंने भी हिन्दुत्व की एक खास राजनीति को तूल दिया है.

सूबे में अब हनुमान जयंती बीजेपी मना रही है तो इसके मुकाबले में तृणमूल कांग्रेस भी हनुमान जयंती के आयोजन कर रही है. ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अब 'रामधनुष' को 'रोंगधोनुष' और 'आकाशी' को 'आसमानी' में बदलने के प्रयास कम हो जायेंगे.

बीजेपी के विरुद्ध मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की लड़ाई को राज्य के बुद्धिजीवियों और उच्च जाति के हिन्दू अभिजन का भी साथ मिल सकता है क्योंकि यह तबका बीजेपी से हद दर्जे की नफरत करता है.

इन सब से जाहिर है कि बीजेपी के लिए अभी बंगाल जीतना हंसी का खेल नहीं है.