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दो नाव की सवारी, नीतीश कुमार को पड़ेगी भारी

नीतीश कुमार के राजनीतिक संदेश कई बार उनके समर्थकों तक को भ्रम की स्थित में डाल देते हैं

Alok Kumar

बिहार में सत्ता पर काबिज महागठबंधन की अंदरूनी खलबली ने नीतीश कुमार के लिए नई चुनौती पैदा कर दी है. बतौर मुख्यमंत्री नीतीश की छवि एक निर्णायक नेता की रही है, जो फैसले लेने में देरी नहीं करता पर हालिया राजनीतिक गतिविधियों ने उन्हें दुविधा में डाल दिया है.

ये दुविधा बतौर मुख्यमंत्री नहीं बल्कि जनता दल यूनाइटेड के नेता के तौर पर स्पष्ट झलक रही है. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को कई नीतिगत मुद्दों पर समर्थन देकर उन्होंने अपने राजनीतिक साझीदार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव को असहज कर रखा था.


जब सारी उम्मीदें राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश प्रायोजित विपक्षी एकता के सामने आने की थी तब उन्होंने अचानक भाजपा उम्मीदवार को समर्थन देकर सबको चौंका दिया. इस फैसले से नीतीश ने फिर अपने को अलग लीग में रखने की कोशिश की.

उन्होंने इसे दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर लिया फैसला बता दिया. भले ही इसने केंद्र में विपक्षी एकता की सारी कवायद पर पानी फेर दिया हो पर नीतीश की छवि निर्णायक फैसला करने वाले नेता के तौर पर फिर स्थापित हुई.

हालांकि इस बार वो फंस गए हैं. शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि राजद और कांग्रेस वैचारिक आधार पर उन पर इतना बड़ा हमला करेंगे. तिलमिलाए नीतीश ने शुरू में राजद और कांग्रेस को बखूबी जवाब दिया. महागठबंधन टूटने के आसार पैदा हो गए. फिर नीतीश और लालू ने हड़बड़ी में गठबंधन की असामयिक मौत को टालने की कोशिश की और फिलहाल इसमें सफल होते दिखाई भी दे रहे हैं. लेकिन तेवर वही हैं.

नीतीश ने 2019 में कांग्रेस के साथ जाने की सारी संभावनाओं पर एक तरह से विराम लगा दिया है. उन्होंने स्पष्ट कहा कि वो किसी के पिछलग्गू नहीं बनेंगे, हां सहयोगी जरूर बन सकते हैं.

पर कांग्रेस और राजद ने भी वैचारिक प्रतिबद्धता जताते हुए नीतीश को स्पष्ट संदेश दिया है कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भले ही बदल जाए पर वो भाजपा विरोध के अपने रास्ते को नहीं छोड़ेंगे.

तीनों दलों के बीच रिश्तों में खटास के बीच जदयू महासचिव केसी त्यागी ने ये कह कर भूचाल पैदा कर दिया कि नीतीश कुमार जब एनडीए में थे तब ज्यादा सहज थे.

इधर अपने ही साझीदारों के हमलों से असहज नीतीश ने रणनीति में बदलाव किया. अब वो भाजपानीत केंद्र सरकार पर भी हमले बोल रहे हैं. हालांकि उनका हमला राजद और कांग्रेस पर ज्यादा तीखा है. पर वो किधर देख रहे हैं, इसको लेकर न केवल जदयू कार्यकर्ताओं बल्कि आम जनता में भी संदेह है.

नीतीश को लेकर इस तरह का संदेह शायद पहली बार पैदा हुआ है. जब 2013 में भाजपा से 17 साल पुरानी दोस्ती नीतीश ने तोड़ी थी तब भी वो जनता को ये संदेश देने में कामयाब रहे कि नरेंद्र मोदी के विरोध के कारण उन्होंने ये फैसला किया. इस बार वो फंस गए हैं. इसलिए कोई फैसला नहीं ले पा रहे.

एक तरफ महागठबंधन को भी अटूट बता रहे हैं तो दूसरी तरफ इस गठबंधन को सिर्फ राज्य तक सीमित बता कर वो 2019 के लिए नए राजनीतिक समीकरण का संदेश भी दे रहे हैं.

इस ऊहापोह में नीतीश की छवि को आघात लग रहा है. नीतीश के समर्थकों ने कभी अपने नेता को इस तरह के अनिर्णय की स्थिति में नहीं देखा. उनके सामने विकल्प भी सीमित हैं.

बिहार की राजनीति का अंकगणित एकला चलो की इजाजत नहीं देता. ऐसा करके वो 2014 के लोकसभा चुनाव में मात खा चुके हैं. इसलिए दो ही विकल्प हैं. या तो एनडीए के साथ जाएं या राजद के साथ रहें.