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कश्मीर सीरीज पार्ट-5: कश्मीरी बच्चों के रोल मॉडल बन रहे आतंकी

कश्मीर में चल रहा रोज-ब-रोज का संघर्ष राज्य में रह रहे बच्चों की जिंदगी किस तरह से प्रभावित कर रहा है, यह देखने के लिए हाल ही में एक दिन सुबह को मैंने आरिफ के घर से ही उसकी गतिविधियों पर गौर करना शुरू किया.

Sameer Yasir

(संपादकीय नोट: जम्मू-कश्मीर में अशांति के दौर से जुड़ा एक और साल खत्म होने को है. ऐसे में फ़र्स्टपोस्ट इस तरह की खबरों की सीरीज पेश कर रहा है कि 2018 में राज्य में किस तरह से बदलाव हुए और ये बदलाव कैसे जमीन पर हालात को प्रभावित करेंगे. इस सीरीज में जम्मू-कश्मीर के तीन क्षेत्रों के बीच बढ़ती खाई के अलावा नए दौर के आतंकवाद और घाटी के बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर फोकस किया जाएगा. )

स्कूल में पढ़ने वाला लड़का आरिफ अली जब दक्षिणी कश्मीर स्थित अपने पुश्तैनी गांव- रेडवानी के बाजार से गुजरता है, तो उसकी जुराब में खिलौने वाली पिस्तौल मौजूद होती है. वह एक आतंकवादी के अंदाज में अपने कंधे को देखता है और सड़क के किनारे मौजूद सेना की गाड़ी पर भी नजर दौड़ाता है. उसके लिए यह सहज स्थिति का संकेत नहीं है, लिहाजा जब तक वह छोटी गली के किनारे नहीं पहुंच जाता है, तब तक उसकी नजर नीची रहती है. इस छोटी गली का रास्ता उसके स्कूल तक जाता है.


यह स्कूल छोटा और दोमंजिला इमारत में मौजूद है. अली के पहुंचने के बाद बाहर इंतजार कर रहे उसके सभी दोस्त हंसने लगते हैं. सेना की गाड़ी आंखों से ओझल होने के साथ ही वह राहत की सांस लेता है. आरिफ के साथ चलना हथियारों से लैस आतंकवादी के साथ चलने जैसा है. अंतर सर्फ इतना है कि आरिफ का पिस्तौल लकड़ी का बना है और उसके कंधे पर लटका बैग गोला-बारूद नहीं बल्कि किताबों से भरा है.

छठी कक्षा में पढ़ने वाला आरिफ का दोस्त जमीर मुट्ठी बांधते हुए कहता है, 'हमारा मुजाहिद आज जिंदा है.' इसके बाद आरिफ का जवाब कुछ इस तरह होता है, 'पहले की तरह मैं आज भी बिना चेकिंग के आने में कामयाब रहा.'

लकड़ी का पिस्तौल रखना और शिक्षकों या सुरक्षों बलों द्वारा नहीं पकड़ा जाना आजकल दक्षिणी कश्मीर के स्कूली बच्चों के बीच लोकप्रिय खेल बन चुका है. हाल के दिनों में एक सुबह आरिफ कुछ ऐसा ही कर रहा था और कुलगाम के कैमोह इलाके में बच्चों का शोर भी इसी तरह से गूंज रहा था.

बहरहाल, जम्मू-कश्मीर में इस साल रिकॉर्ड हिंसा देखने को मिली, लेकिन कश्मीर घाटी के बच्चों पर इसके होने वाले असर के बारे में काफी कम चर्चा की जाती है. दरअसल, उन्हें भी इस हिंसा के प्रकोप का सामना करना पड़ा है और उनकी रोजाना की जिंदगी इससे काफी हद तक प्रभावित हुई है. पिछली सदी के अंत के आसपास पैदा हुए जम्मू-कश्मीर के ये बच्चे राजनीतिक रूप से भी बेहद कट्टरपंथी जैसे हैं. हालात ऐसा हो गए हैं कि युद्ध और एनकाउंटर के शब्दकोष इन बच्चों की जिंदगी में छा गए हैं.

बच्चों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है कश्मीर का संघर्ष

कश्मीर में चल रहा रोज-ब-रोज का संघर्ष राज्य में रह रहे बच्चों की जिंदगी किस तरह से प्रभावित कर रहा है, यह देखने के लिए हाल ही में एक दिन सुबह को मैंने आरिफ के घर से ही उसकी गतिविधियों पर गौर करना शुरू किया. इस स्कूली बच्च से अगले 6 घंटे की हर बातचीत में मुजाहिद (आतंकवादी), मुखबिर, बंदूक, कब्र, छिपने का ठिकाना, जनाजा और इसी तरह के अन्य शब्दों की भरमार थी.

( रॉयटर्स )

आरिफ ने स्कूल से लौटने के दौरान इस साल और पिछले साल मारे गए आतंकवादियों की गिनती करते हुए कहा, 'हमारा हीरो बुरहान, माजिद, सद्दाम है. इस तरह के लोग हमारे लिए लड़े और खड़े हुए. वे हमारे साथ ही रह रहे हैं. वे मरे नहीं हैं.'

पिछले कुछ साल में कश्मीर में संघर्ष का मामला और तेज हुआ है. विशेष रूप से कश्मीर घाटी के दक्षिणी हिस्से में ऐसा देखने को मिल रहा है. इस सिलसिले में मैंने तकरीबन हर सप्ताह दक्षिणी कश्मीर के चार जिलों का दौरा किया है. मेरी सूचना के पहले स्रोत और मेरे पहले गाइड हमेशा से बच्चे रहे हैं. मैं उनसे इसलिए बात करता हूं, क्योंकि घटनाओं के बारे में उनकी तरफ से मुहैया कराई गई जानकारी में किसी तरह की मिलावट नहीं होती है. ये बच्चे आपको ठीक-ठीक बताते हैं कि क्या हुआ था. मसलन मारे गए लोगों के नाम, मारे गए आतकंवादियों के नाम, कौन कब-क्यों और कैसे मारा गया आदि. ये बच्चे एक तरह से जंगल के अंधेर में रोशनी के लैंप की तरह हैं.

इस जगह से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर मौजूद गांव- कपरन में इंशा निसार दोबी अपने छोटे भाई तबन निसार के साथ खेलती नजर आती है. उसके पिता पुलिस कॉन्स्टेबल थे और आतंकवादियों ने उन्हें अगवा कर इस साल सितंबर में उनकी हत्या कर दी थी. तब से इंशा अपने परिवार का मुख्य सहारा बन गई है और कम उम्र में ही काफी हद तक अपने पिता के दायित्वों का पालन करने में जुटी हुई है.

12वीं कक्षा की छात्रा इंशा कहती है, 'मैं अपने पिता को वापस नहीं ला सकती, लेकिन उनके जाने के कारण जो खालीपन पैदा हुआ है, उसे दूर करने में मदद कर सकती हूं.' इंशा के ऐसा कहने का मतलब अपने छोटे भाई, मां और अपने दादा-दादी की देखभाल करना है. पिता की हत्या के बाद इंशा के कोमल कंधों पर ही हर रोज बाजार जाकर तमाम चीजें खरीदने और बगीचे की देखभाल करने की जिम्मेदारी भी आ पड़ी है. बगीचे में होने वाले फल के जरिये उसे घरेलू खर्चों के लिए नकद रकम उपलब्ध हो पाती है.

कपरन गांव पहुंचने पर हमने यहां इंशा के घर के बरामदे में बैठकर उससे बात की. इंशा का कहना था, 'हर कोई अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है. मेरे पिताजी युद्ध का शिकार हो गए, जिसके कारण दुर्भाग्य से कई लोगों की जान जा चुकी है. मौत किसी की भी हो, इसका दंश कश्मीर के लोगों को ही झेलना पड़ रहा है. '

एनकाउंटर खत्म होने के बाद सबसे पहले स्कूली बच्चे ही घटनास्थल पर पहुंचते हैं. कश्मीरी बच्चों की परविश बंदूक के साये में हो रही है और उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है. उनकी जिंदगी, यहां तक खेलों में भी सेना का पहलू काफी हद तक बढ़ चुका है. सेब के घने बागों में ये बच्चे 'मुजाहिद बनाम सेना' नाम का खेल खेलते हैं. यहां तक कि इन खेलों में सेना के सिपाही की भूमिका अदा करना भी एक तरह का अभिशाप है.

किसी भी एनकाउंटर स्थल पर देखेंगे तो गोली-बारी के बाद वहां सबसे पहले पहुंचने वाले बच्चे ही होते हैं. इन जगहों से वे खाली कारतूस इकट्ठा कर उसे अपने जब में रखते हैं, ताकि बाद में इससे जुड़ी कहानियां वे बता सकें. कई बच्चे अपने बाएं हाथ की उंगली में जेवर की तरह इस तरह की गोली की अंगूठी पहनते हैं. यह थोड़ा सा बगावती अंदाज का तरीका भी है.

कश्मीर के इन हिस्सों में भारत अपने कंधे पर राइफल लटकाए हुए सेना या अर्द्धसैनिक बल के जवान या पुलिसकर्मी की तरह है, जो आतंकवादी की तलाश में रात को पहुंचता है. हालांकि, ये पुलिसकर्मी भी कश्मीरी हैं, लेकिन उनके मुताबिक वे भारत की नुमाइंदगी करते हैं. दुभार्ग्य से केंद्र की सरकारों ने दशकों से कश्मीर में अपनी नुमाइंदगी कुछ इसी तरह से पेश की है और बच्चों को अक्सर इसका शिकार बनना पड़ता है.

इस साल राज्य में करीब 250 आतंकवादी मारे गए

इन बच्चों को मौजूदा संकट के प्रकोप का भी सामना करना पड़ा है. हालांकि, पिछले 29 साल के उपद्रव में इससे पहले कभी भी बच्चों को इस कदर राजनीतिक रूप से परिपक्व और जागरूक नहीं देखा गया था. इनमें कई भारत से नफरत करते हैं और उन्हें वह सब कुछ पसंद नहीं है, जो कश्मीर में भारत का नुमाइंदगी करता है. उनके मोबाइल फोन मर चुके और जिंदा आतंकवादियों की तस्वीरों से भरे पड़े हैं.

मारे गए आतंकवादियों को इन बच्चों की यादों में जगह मिलती है और जो जिंदा बचे रहते हैं, वे उनके लिए वे नायक की तरह हैं. यहां तक कि कश्मीर का कोई भी राजनेता या हुर्रियत का प्रतिनिधि आतंकवादियों की लोकप्रियता की बराबरी नहीं कर सकता है.

इस साल 23 दिसंबर तक कम से कम 247 आतंकवादी मारे गए, जिनमें से ज्यादातर कश्मीर से थे. इस साल लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद आदि आतंकवादी संगठनों के तकरीबन 25 कमांडर सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए. इसके अलावा, इस साल जम्मू-कश्मीर में 87 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, जिनमें 45 कश्मीरी पुलिसकर्मी थे.

तकरीबन सभी आतंकवादियों के जनाजे में आपको बच्चों की सक्रियता देखने को मिल जाएगी. आतंकवादियों के अंतिम संस्कार के लिए तमाम रीति-रिवाजों के पालन से लेकर कब्र खोदने तक में बच्चे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. पुलवामा के सिरनू जिले में सुरक्षा बलों की फायरिंग में कथित तौर पर 7 लोगों के मारे जाने के बाद सादिक रशीद नामक एक छात्र अपने पड़ोसी की कब्र के पास चुपचाप बैठा हुआ था. दुबला-पतला और शर्मीला सादिक गांव में मौजूद आतंकवादियों की पोस्टर को भी घंटों तक देखता रहता है, जो पहले ही मर चुके हैं.

सादिक ने कहा, 'हम उन सबको जानते थे., हमारा जीवन कब्रों से भरा पड़ा है. एक के बाद एक वे सभी मर गए, लेकिन हम उनके बलिदान को हमेशा याद रखेंगे. हम यह नहीं भूलेंगे कि हमारे बेहतर कल के लिए उन्होंने अपनी जान दी है.'