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अखिलेश का ‘इंदिरा दौर’, क्या होगा अंजाम!

मुलायम और लालू ने वंशवाद की राजनीति को गले लगा लिया.

Kinshuk Praval

उत्तर प्रदेश में जारी घमासान ने क्या भारतीय राजनीति में 'समाजवादी' प्रयोग के खात्मे की नींव रख दी है?

कई लोग यह मानने से इनकार करते हैं कि मुलायम की समाजवादी पार्टी राम मनोहर लोहिया की समाजवादी परंपरा पर खड़ी है.


साल 1967 में 57 साल की उम्र में लोहिया की असामयिक मौत हो गई. इसके बाद समाजवादी आंदोलन की लहर लगभग खत्म सी हो गई.

लोहिया के समाजवाद को लालू और मुलायम ने कास्ट वोट बैंक के जरिए अपने पाले में कर लिया.

इसकी बदौलत लालू लगातार तीन बार सत्ता में आए. लालू के हाथ से सत्ता उस वक्त फिसली जब नीतीश कुमार मुसलमानों का वोट बैंक हासिल करने में कामयाब हुए.

यूपी में मुलायम सिंह की किस्मत लालू यादव जैसी नहीं थी. वे मुस्लिम वोटरों पर पूरी पकड़ नहीं बना पाए.

कांशीराम-मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से बीएसपी ने यूपी के दलितों के साथ मुसलमानों को भी मोह लिया.

बीजेपी के पास सवर्णों का साथ था.

मुलायम और लालू ने लोहिया के समाजवाद को छोड़कर वंशवाद की राजनीति को गले लगा लिया. जबकि लोहिया वंशवाद के कड़े आलोचक थे.

माना जाता है कि राजनीति में वंशवाद की शुरुआत कांग्रेस ने की थी. वैसे जवाहरलाल नेहरू पर सीधे वंशवादी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता.

उन्होंने उत्तराधिकारी के रूप में अपनी बेटी इंदिरा को आगे नहीं किया था. नेहरू की मौत के बाद इंदिरा पहले मंत्री, फिर प्रधानमंत्री बनी थीं.

लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाले लालू यादव ने मौका मिलने पर वंशवाद की राजनीति अपनाने में रत्ती भर भी देर नहीं लगाई.

1996 में चारा घोटाले में गिरफ्तार होने के बाद लालू ने अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपने में देर नहीं की.

दो दशक बाद लालू ने वंशवादी राजनीति को फिर दोहराया. उन्होंने दसवीं फेल अपने 26 साल के बेटे को विधानसभा में पार्टी का नेतृत्व सौंपा और उप मुख्यमंत्री बनाया.

जबकि पार्टी में इस पद के लिये अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे बड़े नेता मौजूद थे. वहीं लालू के दूसरे बेटे बिहार कैबिनेट में मंत्री हैं.

मुलायम भी लालू से कुछ अलग नहीं रहे. 2012 में चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सीएम बना दिया.

जाहिर है, समाजवादी पार्टी में बस नाम भर का समाजवाद बाकी है.

एक विचारधारा के रूप में समाजवाद मधु लिमये, मधु दंडवते, किशन पटनायक और रवि राय जैसे समाजवादी दिग्गजों की मौत के साथ ही खत्म हो गया था.

समाजवादी पार्टी में घमासान किसी वैचारिक मतभेद का हिस्सा नहीं है.

पार्टी और परिवार के मुखिया मुलायम सिंह को बीच-बचाव करके इस संकट का निपटारा करना चाहिए था.

लेकिन दुर्भाग्य से वो भी शिवपाल के साथ और अपने महत्वाकांक्षी बेटे के खिलाफ नजर आ रहे हैं.

कयास लगाए जा रहे हैं कि मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की वजह से बाप—बेटे में दरार आई है.

शिवपाल और अमर सिंह चाहते हैं कि मुलायम फिर सीएम बन जाएं, लेकिन अखिलेश यह मानने को तैयार नहीं हैं.

यहां तक कि अखिलेश को अगर चुनाव तक सीएम पद पर बने रहने की इजाज़त मिल भी जाती है तो भी पार्टी में उनका भविष्य तय नहीं है.

अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए ही अखिलेश बगावत के मूड में हैं.

अखिलेश को लगता है कि मुफ्त चीजें बांटकर उन्होंने वोटरों के दिल में जगह बना ली है. वफादार कैडर तैयार कर लिए हैं.

ऐसे में अगर पार्टी टूटती है तो अखिलेश युवाओं को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो सकते हैं.

वह 2017 के चुनाव में राहुल के साथ गठबंधन करके देश को नई पीढ़ी का विकल्प देने पर विचार कर सकते हैं.

यह भी माना जा रहा है कि यह अखिलेश का ‘इंदिरा दौर’ है.

साल 1969 में इंदिरा ने भी दिग्गज कांग्रेसियों से विद्रोह कर पार्टी तोड़ी और विजेता बनकर उभरी थीं.

क्या अखिलेश अब मुलायम के खिलाफ इंदिरा जैसा कदम उठा सकेंगे?