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मुलायम को छोड़ वाजपेयी बनने की राह पर अखिलेश यादव

पहली बार मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव अपने पिता, मुलायम सिंह के सियासी साये से बाहर आने को बेताब हैं

Ajay Singh

आगरा और इटावा में नजदीकी रिश्ता है. दोनों ही चंबल और यमुना के बीहड़ों के पास स्थित हैं. बीहड़ ही यहां के रहन-सहन और तौर-तरीकों को तय करते हैं. इटावा और आगरा का सामाजिक रुझान बीहड़ों के हिसाब से तय होता है.

बंदूकें यहां की संस्कृति का उसी तरह से अटूट हिस्सा हैं जैसे कि सिसली के माफिया के साथ. बंदूकों के साथ यहां बदले की भावना भी बहुत गहरे पैठ वाली है. और बदले के बारे में तो मशहूर है कि ये वो जायका है जो ठंडा करके खाया जाए तो बेहतरीन लगता है.


बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी आगरा के थे. वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इटावा के सैफई जिले में पैदा हुए. दोनों ने एक-दूसरे से बिल्कुल अलग तरह की राजनीति की. इसकी वजह भी है.

वाजपेयी का परिवार उनके जन्म के कुछ ही दिन बाद मध्य प्रदेश के ग्वालियर जा बसा था. शायद यही वजह थी कि वाजपेयी के मिजाज पर इटावा-आगरा की ठेठ, अक्खड़ जीवनशैली का असर नहीं पड़ा. वहीं मुलायम सिंह को ऊंचाई पर पहुंचने के लिए अपने विरोधियों से कई लड़ाइयां लड़नी पड़ीं.

अफसोस की बात है कि मुलायम के बेटे अखिलेश यादव को अपने इलाके का ये इतिहास नहीं पता है और इस बात के साफ संकेत हैं कि वो अपने पिता मुलायम के बजाय राजनीति में वाजपेयी के दिखाये रास्ते पर चलना चाहते हैं.

वाजपेयी के बारे में अक्सर कहा जाता था कि वो शानदार शख्सियत हैं और अच्छे आदमी हैं. मगर गलत पार्टी में हैं. उनके बारे में इसी राय का फायदा उठाकर बीजेपी राजनीति के अकेलेपन के दायरे से निकल सकी.

सियासी साये से बाहर आने को बेताब

तो क्या ये बात अखिलेश यादव पर भी सटीक बैठती है? अगर यादव परिवार की लड़ाई से मिलने वाले संकेत देखें तो लगता है कि अखिलेश अपने पिता के सियासी साये से बाहर आने को बेताब हैं.

उत्तर प्रदेश सरकार के सूत्र कहते हैं कि अखिलेश को इस बात का यकीन है कि आने वाले चुनावों में उन्हें बढ़त हासिल है. इसका श्रेय वो अपनी युवा, साफ-सुथरी और विकासवादी प्रशासक की छवि को देते हैं. खास तौर से ऐसी पार्टी में जिसमें बाहुबलियों और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला रहा है.

पिछले दो महीनों से मुलायम इस बात पर अड़े हैं कि पार्टी उन्हीं के दिखाये रास्ते पर चलेगी. आखिर समाजवादी पार्टी को उन्होंने अपने खून-पसीने की मेहनत से इस मुकाम तक पहुंचाया है.

इसका एक और संकेत उस वक्त मिला जब मुलायम ने विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के प्रत्याशियों की लिस्ट जारी की. इसमें कमोवेश वो सब नाम शामिल थे, जिनका अखिलेश यादव सार्वजनिक तौर पर विरोध कर चुके हैं. वहीं अखिलेश के कई चहेतों के टिकट काट दिए गए.

ये सोचना तो बचकाना होगा कि अखिलेश यादव अपराधीकरण और अपने पिता के बिल्कुल खिलाफ हैं. उनका कमोबेश पूरा कार्यकाल उनकी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी, बदमाशी और अपराधों के लिए चर्चित रहा.

करीब चार साल तक समाजवादी पार्टी से नजदीकी रखने वाले अपराधी बेखौफ घूमते रहे, जुर्म को अंजाम देते रहे. चुनाव करीब आने के बाद ही उन पर कुछ लगाम लगाने की कोशिश हुई.

पिछले पांच सालों में यूपी में कई जगहों पर सांप्रदायिक दंगे हुए. मुजफ्फरनगर दंगों के शोले अभी तक बुझे नहीं हैं. वहीं हिंदुत्ववादी ताकतें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता को हवा देकर सियासी फसल काटने पर आमादा हैं.

पर्दा डालने की नाकाम कोशिश

मुलायम और अखिलेश के राज करने में फर्क साफ नजर आता है. हालांकि मुलायम ने हमेशा ही अपराधियों को प्रश्रय दिया. मगर जब भी जरूरत पड़ी वो उन पर चाबुक चलाने में भी नहीं हिचके. साथ ही मुलायम सिंह अफसरों से भी अच्छे रिश्ते रखते थे.

जबकि, अखिलेश अपने ज्यादातर कार्यकाल में एक असहाय मुख्यमंत्री नजर आए. आज वो विकास की बातें करके पिछले पांच सालों के कुप्रशासन पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं.

रायटर इमेज

वो खुद को युवा, साफ-सुथरा, नरम बोलने वाला और विकासवादी नेता साबित करने में लगे हैं. मगर उनके अंधविश्वास की मिसाल ये है कि वो पूरे कार्यकाल में एक बार भी नोएडा नहीं आए. जिसके बारे मे कहा जाता है कि वहां आने के बाद नेताओं से मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन जाती है.

दादरी के अखलाक हत्याकांड पर इतना सियासी हंगामा हुआ मगर अखिलेश यादव ने अखलाक के गांव का दौरा करना जरूरी नहीं समझा. इसके पीछे उनका अंधविश्वास ही था. एक बार उन्होंने दावा किया कि अफसर उन्हें नोएडा नहीं आने देते क्योंकि इससे उनकी करतूतें उजागर हो जाएंगी.

अखिलेश की कमजोरियां मुलायम से बेहतर कोई नहीं जानता. इसीलिए वो खुलेआम अखिलेश को, शिवपाल सिंह यादव और अमर सिंह की अनदेखी करने पर फटकार लगाते रहे हैं.

मुलायम को पता है कि यूपी की राजनीति में केवल इमेज के बूते अच्छी सियासी फसल नहीं काटी जा सकती. इसके लिए पैसों और ताकत की जरूरत होगी.

अपराधियों के प्रति लगाव

मुलायम का अपराधियों के प्रति लगाव उनके इटावा के होने की जीती-जागती मिसाल है. जहां जुर्म और बंदूक शोहरत और ताकत हासिल करने का जरिया है. इसीलिए मुलायम अपने उन साथियों को किनारे लगाने को राजी नहीं, जो सियासी लड़ाई में उनके साथ रहे हैं.

साफ है कि समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव का वाजपेयी के सियासी नुस्खे आजमाने के तरीकों में कई खामियां हैं.

वाजपेयी अपनी पार्टी के कद्दावर नेता थे. वो एक ऐसी पार्टी के सबसे बड़े नेता थे, जो धार्मिक राजनीति के लिए जानी जाती थी.

वहीं अखिलेश ऐसी पार्टी में हैं जिसे मुलायम ने तमाम समीकरणों को बिठाकर तैयार किया है. और पिछले पांच सालों में अखिलेश ने ऐसा कुछ नहीं किया जो उन्हें मुलायम से बड़ा नेता साबित करे. हालांकि ये सोचना भी गलत होगा कि बेटे के प्रति मुलायम का मोह कम हुआ है.

असल में मुलायम जो खुलेआम अखिलेश को फटकार लगाते हैं, वो उन्हें ये संकेत देना चाह रहे हैं कि तुम्हारे तरीके की राजनीति से तुम औंधे मुंह गिरोगे. इसलिए बेहतर है सावधान हो जाओ और मेरे बताए रास्ते पर चलो.