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बिना पावर के सबसे पावरफुल क्यों माने जाते हैं अहमद पटेल?

दस जनपथ सत्ता का असली केंद्र रहा जहां सोनिया से तभी मंजूरी मिलती थी जब अहमद पटेल को भरोसा होता था.

Kinshuk Praval

गांधी परिवार के लिये संकटमोचक माने जाने वाले अहमद पटेल की अहमियत ही ऐसी है जिसने राज्यसभा चुनाव को इतना रोमांचक बना दिया कि जहां सियासत की बिसात पर ‘शाह और अहमद’ का खेल कई चालों से खेला गया.

बीजेपी ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया लेकिन अहमद पटेल को हरा नहीं पाए. कांग्रेस के लिए साख और नाक का सवाल बन गए अहमद पटेल की जीत कुछ मायनों में काफी बड़ी है. देखा जाए तो बीजेपी और कांग्रेस के अपने-अपने चाणक्य के बीच सीधा मुकाबला था. जिसमें जीत कांग्रेस के चाणक्य की हुई.


अहमद पटेल की जीत गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए उम्मीद की सांस बचाए रखने के लिए काफी है. शायद इसलिए कहा जा रहा है कि अमित शाह जीत कर भी एक मायने में हार गए.

अहमद पटेल के नाम एक और कामयाबी दर्ज हो गई है. उनके राजनीतिक सफर में ये एक अहम पड़ाव माना जा सकता है. हालांकि इसके बाद आगे का रास्ता आसान भी नहीं है. क्योंकि कांग्रेस अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है.

अहमद पटेल के इतिहास में उस नई कांग्रेस में जान फूंकने की कामयाबी दर्ज है जिसकी कमान सोनिया गांधी ने संभाली थी. गांधी परिवार के सबसे निष्ठावान लोगों में से एक माने जाते हैं अहमद पटेल.

चाहे वो इमरजेंसी के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ निष्ठा निभाने का दौर रहा हो या फिर राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने का समय हो. अहमद पटेल परिवार के करीबियों में ही शामिल रहे. उनके रणनीतिक कौशल को ही यूपीए सरकार के दो चुनावों में मिली जीत का सेहरा बंधता है. यही वजह है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद नंबर 2 की हैसियत उनकी मानी जाती है.

लेकिन वक्त का सितम देखिये कि जिस आदमी के एक इशारे भर से लोकसभा और राज्यसभा की सीटों का गणित तय होता था वो खुद अपनी ही सीट बचाने के लिये एक एक सीट पर मजबूर हो गया.

आपातकाल के समय इंदिरा गांधी के विश्वसनीय लोगों में अहमद पटेल का नाम भी शामिल था. 1977 में जिस जनता लहर में इंदिरा गांधी खुद भी चुनाव हार गईं उसके बावजूद अहमद पटेल गुजरात के भरूच से जीत कर संसद पहुंचे. अहमद पटेल के भरूच छोड़ने के बाद कांग्रेस वहां से कभी चुनाव नहीं जीत सकी.

अहमद पटेल संगठन को मजबूत करने के लिये जाने जाते हैं. चाहे इंदिरा की सरकार हो या राजीव की या फिर सोनिया गांधी की सरकार हो, अहमद पटेल ने कैबिनेट का कोई पद नहीं लिया. केवल संगठन पर ही ध्यान दिया. उनका लो-प्रोफाइल अंदाज और बिना मंत्रालय के गांधी परिवार के लिये वफादारी ही उनकी पावर बढ़ाता चला गया. संगठन में उनकी पकड़ ने सोनिया को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने में भी भूमिका अदा की. साल 2000 में वो सोनिया गांधी के विश्वस्त सलाहकार बन गए.

उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और फैसले लेने की क्षमता ने विदेशी मूल के सियासी चक्रव्यूह से सोनिया को बाहर निकालने में मदद की. उनकी चुनावों की रणनीति ने ही यूपीए को साल 2004 और 2010 में जीत दिलाने का करिश्मा किया. यही वजह रही कि मनमोहन सरकार में बड़े फैसलों पर अहमद पटेल की रजामंदी की मुहर जरूर होती थी.

पर्दे के पीछे के इस रणनीतिकार के रसूख का ही असर है कि कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर कभी भी मुखालफत खुल कर सामने नहीं आ सकी. अहमद पटेल ने कभी कांग्रेस के भीतर सोनिया के अलावा दूसरा पावर सेंटर नहीं बनने दिया. यूपीए सरकार के पीएम मनमोहन सिंह भी बड़े फैसलों के लिये सोनिया गांधी से राय मशवरा करते थे तो इसके पीछे का दिमाग अहमद पटेल का ही था. अहमद पटेल की वजह से ही दस जनपथ सत्ता का असली केंद्र रहा जहां सोनिया से तभी मंजूरी मिलती थी जब अहमद पटेल को भरोसा होता था.

संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ इंदिरा गांधी

लेकिन किसान के बेटे से कांग्रेस के रणनीतिकार बनने के लिये 67 साल के अहमद पटेल को गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों का भरोसा जीतना पड़ा. अहमद पटेल ने इंदिरा की नजरों में युवा कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई तो राजीव गांधी के भरोसेमंद लोगों में अरुण सिंह और ऑस्कर फर्नांडिस के साथ वो खुद भी थे.

अहमद पटेल की कर्मभूमि भरूच ही रही. यहीं से उन्होंने संसदीय करियर की शुरुआत करते हुए 1977 में पहला चुनाव जीता था. पटेल इसके बाद 1980 और 1984 में भी भरूच लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. लेकिन 1993 में उन्होंने सांसद के लिये राज्यसभा की राह चुनी.

चालीस साल के सियासी सफर में अहमद पटेल गुजरात यूथ कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे तो एआईसीसी के महासचिव भी बने. साल 1991 में नरसिम्हा राव सरकार के वक्त कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य बने. कांग्रेस में मिली कई भूमिकाओं के बावजूद आज अहमद पटेल की पहचान उस पावरफुल शख्स की है जिसके पास कभी मंत्रालय की पावर नहीं रही.