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क्या अंत की ओर बढ़ रही है कांग्रेस?

लगातार होती हार से कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपना आधार खो रही है

Aakar Patel

कांग्रेस की असली दिक्कत क्या है? देश की यह सबसे पुरानी पार्टी इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और इसके फिर से खड़े होने के आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं. क्या पार्टी अपने अंत की ओर बढ़ रही है या यह किसी नए नेता के जरिए फिर से जिंदा होने का इंतजार कर रही है? आइए इस मसले पर नजर डालते हैं.

समस्या को मानने से ही इनकार


पहली चीज जो साफ दिखाई देती है वह है चीजों से इनकार करना. इसका मतलब है कि इस बात को खारिज कर देना कि कहीं कोई स्थाई दिक्कत है. यह चीज दो वजहों से समझी जा सकती है. पहला, केवल 34 महीने पहले ही कांग्रेस बहुमत से देश की सत्ता चला रही थी. कांग्रेस के एक प्रधानमंत्री ने लगातार 10 साल तक देश की सत्ता संभाली. 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के बाद ऐसा पहली बार हुआ था.

दरबारियों पर टिकी पार्टी

जब यह अवधि खत्म हुई तो यह माना गया कि यह एक अस्थाई चरण है और मतदाता फिर से पार्टी की ओर मुड़ेंगे. दूसरी वजह यह है कि किसी भी परिवार के नियंत्रण वाली पार्टी में दरबारी खुद लोकप्रिय चेहरे नहीं होते हैं. उन्हें अपनी लीडरशिप को सत्य बताने का कोई इनाम नहीं मिलता है. न ही उनकी जमीनी पकड़ होती है क्योंकि उन पर लोगों को एकजुट करने का कोई दबाव नहीं होता है.

खराब सेहत की वजह से सोनिया गांधी का सक्रिय राजनीति से दूर होना कांग्रेस को कमजोर बना रहा है

बहस खड़ी करने में नाकाम

दूसरी समस्या केवल लीडर की कमी की नहीं है, बल्कि यह बहस और उसकी दिशा से जुड़ी हुई है. यह सही है कि नरेंद्र मोदी उच्च दर्जे के करिश्माई नेता हैं. यह एक ऐसा शब्द है जिसका मतलब ऐसी लीडरशिप से है जो कि अन्य लोगों को भी प्रेरित और साथ आने के लिए प्रोत्साहित करता है. वह अपनी बात को प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुंचाते हैं और इस चीज से हम सब वाकिफ हैं. हालांकि, उनकी सबसे बड़ी काबिलियत चीजों को घटाने में है. इसका मतलब यह है कि वह देश की जटिल समस्याओं को उठाते हैं और उन्हें एक अति सामान्य फ्रेमवर्क में घटा देते हैं.

मोदी को जवाब देने में असफल

मिसाल के तौर पर, वह कहते हैं कि आतंकवाद कमजोर और कायर नेतृत्व की वजह से पनपता है और वह इसका अंत कर देंगे. हकीकत यह है कि वह ऐसा नहीं कर सकते जैसा कि हमने पाया है, लेकिन उनकी इस बहस का कोई प्रतिवाद मौजूद नहीं है.

मोदी राजनीतिक बहस की शर्तें इतनी अच्छी तरह से तय कर सकते हैं कि नोटबंदी जैसे हर भारतीय पर उलटा असर करने वाले नीतिगत फैसले भी ब्लैकमनी, आतंकवाद और नकली करेंसी के खिलाफ जंग में एक बड़ी सफलता के तौर पर दर्ज किए जाते हैं.

राहुल गांधी की नीरसता

राहुल गांधी का एक मजबूत और भरोसे योग्य बहस को न छेड़ पाना उनकी सबसे बड़ी नाकामी है. लोगों के बीच में उनके नीरस भाषण और ऊर्जा का अभाव उनकी दूसरी नाकामी है. वह मोदी के नरेगा और आधार पर लौटने को कांग्रेस की सफलता के तौर पर लोगों को बताने में असफल रहे हैं.

राहुल गांधी जनता से जुड़ने और संवाद कायम करने में नाकाम साबित रहे हैं (फोटो: पीटीआई)

जमीन पर काडर का अभाव

तीसरी दिक्कत यह है कि कांग्रेस का काडर जमीन पर मौजूद नहीं है. बीजेपी के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ता मौजूद हैं जो कि ग्राउंडवर्क कर रहे हैं. ये लाखों में हैं. सभी को न भी मानें तो भी इनमें से कई प्रतिबद्ध और उच्च स्तर पर प्रेरित हैं. कुछ साल पहले तक हम अक्सर लोगों के लिए स्वतंत्रता सेनानी या फ्रीडम फाइटर शब्द को सुनते थे. ये लोग फिजिकल फाइटर नहीं थे, इन्होंने कांग्रेस के सहयोग से नागरिक विरोध के जरिए अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी थी.

जनाधार पार्टी से छिटका

1930 के दशक के दौरान पैदा कोई शख्स जो नेहरू का और बाद में इंदिरा का अनुयायी रहा, उसका पार्टी से लगातार रिश्ता इस वजह से रहा क्योंकि कांग्रेस स्वतंत्रता की पार्टी थी. 1980 के दशक के आते-आते यह कांग्रेस वर्कर गायब होना शुरू हो गए और अब इस कैटेगरी का कोई अस्तित्व नहीं बचा है.

पार्टी की हिंदुत्व या वामपंथ जैसी कोई विचारधारा नहीं है. मायावती के दलितों या असदुद्दीन ओवैसी के मुस्लिमों जैसा पार्टी का कोई प्रतिबद्ध सामाजिक आधार भी मौजूद नहीं है. कम ही लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस के साथ एकजुट होने में फायदा है.

इस हकीकत की वजह से लोकल कांग्रेसी नेता को अपना सपोर्ट खुद अपने पैसे से बनाना पड़ता है.

पिछले कुछ बरसों में कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी देश भर में मजबूत होकर उभरी है (फोटो: रॉयटर्स)

पैसे की किल्लत

इसके बाद आती है चौथी समस्या. यह संसाधन से जुड़ी हुई है. चुनावों के लिए मोटी पूंजी चाहिए. चुनावी राजनीति के लिए पैसा दो जरियों से आता है. पार्टी फंडिंग इकट्ठा करती है. यह आधिकारिक चंदे, मेंबरशिप फीस या भ्रष्टाचार के जरिए आता है. इसका एक हिस्सा उम्मीदवारों में बांटा जाता है और कुछ राष्ट्रीय विज्ञापनों, ट्रैवल, रैली के खर्चों जैसे मदों के लिए जनरल पूल में डाला जाता है. विधानसभा का चुनाव लड़ने में 10 करोड़ रुपये से ज्यादा और लोकसभा चुनाव लड़ने में इससे बहुत ज्यादा रकम खर्च होती है.

कांग्रेस आज की तारीख में केवल दो बड़े राज्य चला रही है, कर्नाटक (जिसमें पार्टी के अगले साल हारने के मजबूत आसार हैं) और दूसरा राज्य है पंजाब. ये दोनों राज्य इतना पैसा नहीं दे सकते कि जिससे पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर बरकरार रह सके. साथ ही कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले अपना पैसा नहीं लगाना चाहते क्योंकि वे एक हारने वाली बाजी पर इनवेस्ट नहीं करना चाहते हैं.

प्रासंगिक विपक्ष की भूमिका से भी नदारद

इसकी वजह से कांग्रेस अंत की ओर बढ़ रही है. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर आधार खो रही है क्योंकि इसके हाथ से राज्य निकल गए हैं. यह चुनाव नहीं जीत सकती.

जब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करेंगी तब कांग्रेस को इन राज्यों में सत्ता से बाहर हुए 15 साल हो जाएंगे. यहां यह स्थाई रूप से विपक्ष में नजर आ रही है. उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में अभी और यूपी, बिहार और तमिलनाडु में पहले से पार्टी एक मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा तक खो चुकी है.

कांग्रेस में जमीन से जुड़े और जनता से संवाद करने वाले नेता धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं

अस्तित्वहीनता की ओर

इस तरह की पार्टियां नई लीडरशिप से भी जिंदा नहीं हो पातीं. इन्हें अस्तित्व बचाए रखने के लिए एक नया संदेश और वजह चाहिए. 2017 की कांग्रेस के पास कुछ भी पॉजिटिव नहीं है, यहां तक सेक्युलरिज्म भी नहीं. हमें यह स्वीकारना होगा.

पार्टी एक मृत मुस्लिम लड़के के पिता की तारीफ करती है क्योंकि उसने अपने बेटे से नाता तोड़ लिया. मौजूदा गुस्से वाले राष्ट्रवाद को देखते हुए पार्टी को ऐसा करना पड़ा. मूल्य रहित और बिना साख वाली इस तरह की पार्टियों के पास जीवित रहने का मौका नहीं होता और ये खत्म हो जाती हैं. यही चीज कांग्रेस के साथ होती नजर आ रही है.