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नेहरू के कहने पर मेनन के पक्ष में दिलीप कुमार ने किया था धुआंधार चुनाव प्रचार

संकेत मिल रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में जितनी बड़ी संख्या में फिल्मी हस्तियां उतरेंगी, उतनी संख्या में पहले कभी नहीं उतरी थीं

Surendra Kishore

संभवतः चुनाव प्रचार के लिए हिंदी फिल्मों के किसी शीर्ष अभिनेता का पहली बार वर्ष 1962 में इस्तेमाल किया गया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वी.के.कृष्ण मेनन के पक्ष में मशहूर फिल्मी कलाकार दिलीप कुमार को चुनाव प्रचार में उतारा था.

नॉर्थ बंबई लोकसभा सीट पर मेनन का पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी से सीधा मुकाबला था. वो चुनाव देश में काफी चर्चित हुआ था. 1984 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने इलाहाबाद में हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को ही उम्मीदवार बना दिया था. नतीजा यह हुआ कि बहुगुणा चुनाव हार गए. कहा गया कि राजीव गांधी ने स्वतंत्रता सेनानी हेमवती नंदन बहुगुणा को एक फिल्म अभिनेता से हरवाकर राजनीति में गलत परंपरा शुरू की. पर कम ही लोग जानते हैं कि यह काम तो जवाहरलाल नेहरू 1962 में ही शुरू कर चुके थे.


2019 के चुनाव प्रचार में जितनी बड़ी संख्या में फिल्मी हस्तियां उतरेंगी, उतनी पहले कभी नहीं उतरी

संकेत मिल रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में जितनी बड़ी संख्या में फिल्मी हस्तियां उतरेंगी, उतनी संख्या में पहले कभी नहीं उतरी थीं.

दिलीप कुमार के अनुसार, ‘मैंने पहली बार 1962 में लोकसभा चुनाव में किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार किया था. पंंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुझे खुद फोन कर के कहा था कि ‘क्या मैं समय निकाल कर बंबई में कांग्रेस आॅफिस में जाकर वी.के.कृष्ण मेनन से मिल सकता हूं? वो नॉर्थ बंबई से चुनाव लड़ रहे हैं. उनके खिलाफ एक बड़े नेता जे.बी.कृपलानी लड़ रहे थे.’ मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया क्योंकि आगा जी के बाद मैं सबसे ज्यादा आदर और सम्मान उन्हीं का करता था.

जवाहरलाल नेहरू के साथ वी.के कृष्ण मेनन (फोटो: फेसबुक से साभार)

आत्मकथा ‘वजूद और परछाई’ में दिलीप कुमार लिखते हैं कि ‘जैसा कि पंडित नेहरू ने कहा मैं जुहू में कांग्रेस आॅफिस गया. मैं मेनन का इंतजार कर रहा था कि एक आदमी तेजी से अंदर आया और अपना परिचय देते हुए बोला कि ‘मेरा नाम रजनी है और मैं रोजी-रोटी के लिए वकालत करता हूं.’ मैं उठ खड़ा हुआ और कहा कि ‘मेरा नाम युसुफ है और मैं रोजी-रोटी के लिए कुछ नहीं करता हूं.’

उसी समय कृष्ण मेनन आ गए. मुझे देख कर मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया तो रजनी यानी रजनी पटेल हैरान रह गए. कृष्ण मेनन ने पंडित नेहरू के फोन के बारे में बताया और कहा कि मुझे मालूम हुआ कि आप यहां आॅफिस में आने वाले हैं. बाद में मेनन ने रजनी का दिलीप कुमार से परिचय कराया तो वो माफी मांगने लगे कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं था. उन्होंने कहा कि ‘मैं फिल्में नहीं देखता.’ मेनन ने दिलीप कुमार से कहा कि चुनाव मुकाबला कड़ा है. वो चाहते थे कि मैं फिल्म उद्योग के लोगों को चुनाव रैली में आने के लिए कहूं. 1962 का वह चुनाव शहर का सबसे नाटकीय चुनाव था.

‘आपसे राजनीतिक भाषण की उम्मीद किसे है? आप लोगों के सामने दिलीप कुमार की तरह बोलिए’ 

मैंने सबसे बड़ी राजनीतिक सभा बंबई के कूपरेज मैदान में संबोधित किया. रजनी और मैं कार से जा रहे थे. मुझे इसके बारे में बिलकुल पता नहीं था कि मुझे भाषण देना है. मरीन ड्राइव के पास रजनी ने मुझसे कहा कि मौजूद लोगों के सामने आपको भाषण देना है. मैं कुछ खीज गया. मैंने कहा कि मैं कोई नेता नहीं हूं कि बिना किसी तैयारी के जनता के सामने बोल पाऊं. उन्होंने मेरे हाथ को थपथपाते हुए कहा कि ‘आपसे राजनीतिक भाषण की उम्मीद किसे है? उसे नेताओं के लिए छोड़ दीजिए. आप तो लोगों के सामने दिलीप कुमार की तरह बोलिए.’

दिलीप कुमार

दिलीप लिखते हैं कि ‘मौके पर पहुंचते ही देखा कि लोग दिलीप कुमार का नाम ले रहे थे और शोर मचा रहे थे. मैं जब जनता के सामने आया तो उनकी खुशी और जोश भरी चीख-पुकार और साफ सुनाई देने लगी. मैंने गहरी सांस ली और 10 मिनट बोला. जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज कानों को बहरा कर देने वाली थी. इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए. बाद में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करना एक मेरा एक नियमित काम बन गया क्योंकि कृष्ण मेनन जीत गए थे.’

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दरअसल वो एक ऐसा चुनाव था जहां दक्षिणपंथ और वाम पंथ आमने-सामने था. अखबारों खास कर साप्ताहिक पत्रिकाओं ने इसमें जबर्दस्त भूमिका निभाई. पर दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार ही थे. कृष्ण मेनन 1957 में उसी क्षेत्र से लोकसभा चुनाव जीत चुके थे. पर 1962 के चुनाव में दिग्गज कृपलानी के उम्मीदवार बन जाने के कारण जवाहरलाल नेहरू अपने मित्र मेनन के लिए चिंतित हो उठे थे. वो कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते थे इसीलिए उन्होंने फिल्म अभिनेता की मदद ली. जब देश को स्वतंत्रता मिल रही थी, तब जे.बी.कृपलानी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. पर कृपलानी को जब लगा कि प्रधानमंत्री देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस अध्यक्ष से राय नहीं लेते तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद वी.के.कृष्ण मेनन ने कांग्रेस छोड़ दिया 

वर्ष 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद तो उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दिया. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी.कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे. पर प्रधानमंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर, 1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा दे दिया.

जवाहरलाल नेहरू के साथ दिलीप कुमार (फोटो: फेसबुक से साभार)

याद रहे कि नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था. ऐसा महात्मा गांधी के कहने पर हुआ था अन्यथा नेहरू और कृपलानी के विचार नहीं मिलते थे. यह दोनों लगभग परस्पर विरोधी विचार वाले नेता थे. दूसरी ओर मेनन वामपंथी थे. ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे चुके थे. 1953 में वो राज्यसभा के सदस्य बने. बाद में देश के रक्षा मंत्री बने.

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चीन के हाथों भारत की पराजय के बाद वी.के.कृष्ण मेनन को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. 1967 में तो कांग्रेस ने उन्हें टिकट तक नहीं दिया. 1969 में वामपंथियों की मदद से पश्चिम बंगाल से एक उपचुनाव के जरिए वो लोकसभा पहुंचे थे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)