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मुख्य सचिव मारपीट मामला: तत्पर प्रतिक्रिया से शक के दायरे में बीजेपी

केंद्र सरकार और उपराज्यपाल ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां दोनों के लिए आंख खोलने वाली हैं

K Nageshwar

दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर कथित हमले को लेकर घमासान जारी है. अंशु प्रकाश का आरोप है कि सत्ताधारी आम आदमी पार्टी की सरकार के कुछ विधायकों ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सामने उनसे मारपीट और बदसलूकी की है.

सोमवार देर रात हुई इस घटना से अंशु प्रकाश के आरोपों से परे कई और गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं. अगर दिल्ली प्रशासन के शीर्ष नौकरशाह की शिकायत सच्ची है, तो यह बेहद निंदनीय कृत्य कहा जाएगा. अगर यह मान भी लिया जाए कि मुख्य सचिव की किसी बात से आप के विधायक उत्तेजित हो गए थे, फिर भी उनके ऊपर लगे आरोपों को राजनीतिक अहंकार का उच्चतम प्रतीक माना जाएगा. घटना का एक शर्मनाक पहलू यह भी है कि यह सब मुख्यमंत्री केजरीवाल की मौजूदगी में हुआ.


मारपीट नहीं मामूली झड़प?

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ हुई घटना से पूरी तरह से इनकार नहीं किया है. हालांकि सिसोदिया ने इसे मामूली झड़प करार दिया है.

लेकिन घटना को लेकर आम आदमी पार्टी और मुख्य सचिव ने अलग-अलग कहानी बयान की है. लिहाज़ा घटना के भिन्न-भिन्न पहलुओं ने मुद्दे को और भी जटिल बना दिया है. मुख्य सचिव और विपक्ष की दलील है कि दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के खिलाफ विज्ञापनों के लिए फंड्स जारी करने की मांग पर अड़ी थी. लेकिन जब शीर्ष नौकरशाहों ने सरकार की तर्कहीन मांगों को खारिज कर दिया तो मुख्यमंत्री समेत सत्ताधारी पार्टी के विधायक भड़क गए. जिसके बाद मुख्य सचिव से हाथापाई और बदसलूकी की गई.

लेकिन आप सरकार का दावा है कि शीर्ष आधिकारी जनता के लिए राशन की मंजूरी के मुद्दे पर सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रहे थे. मुख्य सचिव का कहना था कि, राशन के मामले में वह मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्री परिषद के बजाए उपराज्यपाल के निर्देशों का पालन करेंगे. जिससे दोनों पक्षों के बीच बहस हुई लेकिन मारपीट के आरोप सरासर गलत हैं.

लिहाज़ा जब तक पूरे प्रकरण की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच के आदेश नहीं दिए जाते, तब तक सच सामने आना मुश्किल है.

विधायकों के लिए संयम जरूरी

इसमें कोई दो राय नहीं कि नौकरशाहों से बातचीत और व्यवहार में आप विधायकों को संयम रखना चाहिए. लेकिन जितने जोश और तेज़ी के साथ बीजेपी इस विवाद में कूदी है उससे पार्टी की मंशा पर शक गहरा गया है. दरअसल बीजेपी दिल्ली विधानसभा में मिली करारी हार का स्वाद अब तक नहीं भूल सकी है. 2014 लोकसभा चुनाव में देश भर में शानदार प्रदर्शन के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में उसे मुंह की खानी पड़ी थी. ऐसे में केजरीवाल सरकार बीजेपी की आंख की किरकिरी बनी हुई है.

बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने कभी भी दिल्ली में जनता के जनादेश का सम्मान नहीं किया है. केंद्र सरकार जिस तरह से दिल्ली सरकार से बर्ताव करती है वह काफी निराशाजनक है. दूसरे केंद्र शासित राज्यों के मुकाबले राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को उतनी संवैधानिक आज़ादी नहीं है जितनी उसे मिलना चाहिए. दिल्ली के प्रति केंद्र सरकार का यह व्यवहार उसकी राज्य विरोधी मानसिकता को दर्शाता है.

यह बात दुरुस्त है कि कई मौकों पर केजरीवाल का व्यवहार स्वीकार करने लायक नहीं रहा है. लेकिन फिर भी दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री के प्रति केंद्र सरकार का रवैया सरासर अलोकतांत्रिक है. दिल्ली के उपराज्यपाल को शह देकर केंद्र सरकार केजरीवाल सरकार को लगातार कुचक्र में फंसाए रहती है.

अगर सच है तो दुर्भाग्यपूर्ण है 

मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर कथित हमले की घटना अगर सच है तो वह यकीनन दुर्भाग्यपूर्ण है. सामान्य तौर पर यह एक आपराधिक केस है. लिहाज़ा इसका निराकरण दोषियों को कानून के तहत दंड देकर किया जाना चाहिए. लेकिन अफसोस सभी पार्टियां इस प्रकरण पर राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुटी हुई हैं. बीजेपी तो हमेशा से ही केजरीवाल सरकार से दो-दो हाथ करती आ रही है. बीजेपी को जब भी मौका मिलता है वह केजरावील सरकार को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है. इसके अलावा बीजेपी केंद्र सरकार के माध्यम से दिल्ली पर छद्म तरीके से नियंत्रित करने की कोशिश में भी जुटी रहती है. हालांकि राज्य के लोगों ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बुरी तरह से खारिज कर दिया था.

बीजेपी को दिल्ली की केजरावील सरकार को परेशान करके आनंद मिलता है. इसके लिए केंद्र सरकार के इशारे पर उपराज्यपाल और संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है. वास्तव में केंद्र सरकार के अडंगों के चलते राष्ट्रीय राजधानी का प्रशासन अपंग हो गया है. केंद्र की दखलअंदाजी ने दिल्ली में राजनीतिक कार्यकारिणी और स्थायी कार्यकारिणी के बीच गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण कलह पैदा कर दी है. मुख्य सचिव के साथ घटित कथित घटना निर्वाचित कार्यकारिणी और नौकरशाही के बीच बढ़ते असंतोष की चरम अभिव्यक्ति है.

मतभेद जगजाहिर 

दिल्ली में केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल के बीच मतभेद जग-ज़ाहिर हैं. दोनों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है. वहीं राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच मतभेद पर भारतीय संविधान के संस्थापकों के रूप में सुप्रीम कोर्ट कई बार अपना फैसला सुना चुकी है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि, किसी राज्य का राज्यपाल (गवर्नर) केंद्रीय सरकार का राजनीतिक एजेंट नहीं होता है, बल्कि वह एक संवैधानिक प्रतिनिधि होता है. दिल्ली की संवैधानिक सीमाओं के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का फैसला उपराज्यपाल पर भी लागू होता है. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने भी इस विचार और फैसले को बरकरार रखा है. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक संवैधानिक बेंच ने कहा था कि, उपराज्यपाल को सरकार की सहायता और सलाह को स्वीकार करना चाहिए, जब तक कि अथॉरिटी का दुरुपयोग न हो रहा हो.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि दिल्ली के उपराज्यपाल से यह आशा की जाती है कि, वह राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन को सुचारू रखने में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार से 'संवैधानिक शासन कला' के तहत पेश आएंगे. संवैधानिक पीठ ने यह टिप्पणी दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली हाई कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की थी.

दरअसल दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि राष्ट्रीय राजधानी में शासन के लिए उपराज्यपाल ही अंतिम अथॉरिटी हैं. उस वक्त केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का बचाव और समर्थन किया था. दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करने वाली संवैधानिक बेंच में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा, जस्टिस सीकरी, जस्टिस ए.एम. खानविल्कर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे.

दिल्ली सरकार के पास पावर नहीं

केंद्र सरकार ने संवैधानिक पीठ के सामने कहा था कि दिल्ली की चुनी गई सरकार के पास कोई शक्ति नहीं है, राज्य की असल अथॉरिटी तो उपराज्यपाल के पास है जो कि स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार के आदेश पर कार्य करता है. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली को केंद्र सरकार प्रशासित करती है. लिहाज़ा दिल्ली में केंद्र सरकार ही सभी शक्तियों का केंद्र है.

सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने आगे कहा था कि, चुनी गई सरकार के मंत्रियों की परिषद में किसी भी प्रकार की विशेष शक्तियां निहित नहीं होती हैं. क्योंकि इस तरह की व्यवस्था राष्ट्रीय हित में नहीं है.

केंद्र सरकार की तरफ से बोलते हुए मनिंदर सिंह ने आगे तर्क दिया था कि राष्ट्रीय राजधानी के मामले में वास्तविक अथॉरिटी उपराज्यपाल नामक प्रशासक होता है जो केंद्र के अधीन काम करता है. यह शक्तियां निर्वाचित सरकार के पास नहीं होती हैं.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली राज्य की संवैधानिक सीमाओं को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार के विचार को खारिज कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने पाया था कि दिल्ली के उपराज्यपाल के पास राज्य सरकार के फैसलों में रोड़े अटकाने की शक्ति थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच मतभेद तुच्छ या कल्पनिक नहीं होना चाहिए. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल को भविष्य में ऐसी किसी भी घटना की पुनरावृत्ति से बचने की सलाह दी थी. क्योंकि मतभेद की स्थिति में भारतीय लोकतंत्र का अपमान होगा.

केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर इशारा करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि, "विभिन्न राज्यों के राज्यपालों द्वारा "संवैधानिक शासन कला" का देश भर में प्रदर्शन किया जा रहा है. यह समस्या खासकर उन राज्यों में ज्यादा है जहां सत्ताधारी पार्टी और केंद्र सरकार की पार्टी अलग-अलग हैं." सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र शासित प्रदेशों में उपराज्यपाल के अत्याधिक दखल पर हैरत भी जताई थी. अदालत ने कहा था कि अगर केंद्र शासित प्रदेश को शक्तियां नहीं दी जाएंगी तो उन्हें संवैधानिक दर्जा देने का क्या उद्देश्य था.

केंद्र सरकार और उपराज्यपाल ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां दोनों के लिए आंख खोलने वाली हैं. भारत के संविधान में निहित शक्तियों के नाजुक संतुलन को पक्षपातपूर्ण राजनीतिक निष्कर्ष की वेदी पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है. हालांकि, यह किसी के बेलगाम व्यवहार को वैधता नहीं देता है. वह चाहें व्यवस्थापक हों, कानून बनाने वालों हों या जनप्रतिनिधि सभी से मर्यादित और संयमित व्यवहार की अपेक्षा की जाती है.